इस दीवाली अगर आप नई कार प्लान कर रहे हैं तो यकीनन आपके जेहन में इलेक्ट्रिक कार यानी ईवी लेने का ख्याल जरूर आ रहा होगा. मुमकिन है आपको लगे कि पर्यावरण के लिहाज से आने वाला कल ईवी का ही है या फिर कोई सलाह दे कि टैक्स बचाने के लिहाज से भी ईवी ही फायदे का सौदा है, लेकिन क्या वाकई इलेक्ट्रिक व्हीकल फायदे का सौदा है? क्या वाकई इलेक्ट्रिक व्हीकल से पर्यावरण सुधर जाएगा? फैक्ट फाइल्स विद अनुराग में आज बात इसी पहलू पर.
साल 2021 में दुनियाभर में करीब 5.5 करोड़ कारें खरीदी गई हैं. बाइक लगभग 5 करोड़ 80 लाख अकेले भारत में इसी साल 30 लाख 69 हजार से ज्यादा कारें खरीदी गई हैं, जबकि बाइक्स 1 करोड़ 34 लाख यानी हर 1 मिनट में औसतन 6 नई कार जबकि हर 1 मिनट में 25 नई बाइक भारत का ऑटोमोबाइल सेक्टर अहम सेक्टर में से एक है ऑटो सेक्टर से देश में 4.5 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता है. कुल कारोबार करीब 7.5 लाख करोड़ का है, जिनमें 3.5 लाख करोड़ का एक्सपोर्ट भी शामिल है.
केंद्रीय मंत्री नितिन गड़करी की मानें तो अगले 3 साल में ऑटो सेक्टर दुनिया का सबसे बड़ा मैन्युफैक्चरिंग हब होगा. करीब 15 लाख करोड़ के कारोबार की क्षमता के साथ पूरी दुनिया को एक्सपोर्ट करेगा. 4.5 करोड़ रोजगार का मौजूदा आंकड़ा बढ़कर 7 करोड़ तक पहुंच जाएगा. इस साल जून में आए वाहन बिक्री के ताजा आंकड़ें नितिन गड़करी के दावों को पुख्ता करते हैं. पिछले साल के मुकाबले जून में वाहन बिक्री में 27 फीसदी का इजाफा हुआ है. अकेले कारों की बिक्री पिछले साल के मुकाबले 40 फीसदी ज्यादा बढ़ी है.
जाहिर है बढ़ती आबादी और अर्थव्यवस्था के साथ मांग काफी है. अब सवाल इलेक्ट्रिक व्हीकल का. बीते 3 महीनों में यूरोप में बेची गई 5 गाड़ियों में से 1 इलेक्ट्रिक थी. यूरोपियन कमीशन की मानें तो साल 2028 तक यानी अगले 6 सालों में सड़कों पर 20 करोड़ इलेक्ट्रिक कारें नजर आएंगी. कमीशन के मुताबिक बैटरी मैन्युफैक्चरिंग में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाकर ही ऐसा मुमकिन हो सकेगा. दरअसल बैटरी की कीमत ही 40 फीसदी तक कार की कीमत बढ़ा देती है. अभी बैटरी मैन्युफैक्चरिंग के दो तिहाई मार्केट पर अकेले चीन का कब्जा है. यूरोपियन संघ मैन्युफैक्चरिंग में अपनी मौजूदा 3 फीसदी हिस्सेदारी को बढ़ाकर 25 फीसदी करना चाहता है.
इलेक्ट्रिक कारें जिस बैटरी से चलती हैं, वो लीथियम से बनती हैं. खबरों के मुताबिक इस बैटरी का आविष्कार साल 1800 में हुआ. दावा किया जाता है कि पहली इलेक्ट्रिक कार 1880 में ही बन गई थी, लेकिन कंबशन इंजन के बाजार में छा जाने के चलते इलेक्ट्रिक कार दरकिनार हो गई. इसके लंबे वक्त बाद साल 1991 में पहली बार लिथियम-आयन बैटरी का इस्तेमाल एक कैमकॉर्डर के अंदर इस्तेमाल किया गया. साल 2019 में लीथियम को जीवाश्म ईंधन के बेहतरीन विकल्प के तौर पर देखा गया और लिथियम आयन बैटरी को रसायनशास्त्र का नोबेल पुरस्कार दिया गया.
माना जाता है दुनिया में जितना कार्बन उत्सर्जन होता है, उसमें एक चौथाई हिस्सेदारी अकेले गाड़ियों की है. ऐसे में दावा है कि अगर दुनिया लिथियम आयन बैटरी वाली इलेक्ट्रिक गाड़ियों को अपना ले तो अरबों टन कार्बन उत्सर्जन रुक जाएगा. यही वजह है कि लिथियम बैटरी फिर तेजी से चलन में आ रही हैं, लेकिन इस मोर्चे पर कई सवाल हैं. एक बड़ी चुनौती कोबाल्ट की है. कोबाल्ट पर ही लिथियम आयन बैटरी टिकी है और कोबाल्ट के लिए हर किसी की निगाहें टिकी हैं अफ्रीकी देश कोंगो पर, जहां दुनिया का 70 फीसदी कोबाल्ट मिलता है.
यही वजह है कि वहां कोबाल्ट माइनिंग से जुड़े बड़े सवाल हैं. बैटरी में इस्तेमाल होने वाले कोबाल्ट के खनन के लिए कोंगो में छोटे-छोटे बच्चे अपनी जान जोखिम में डालकर खदानों में काम करने को मजबूर हैं, जिस पर एमनेस्टी जैसी मानवाधिकार संस्था गंभीर सवाल खड़े करती रही है. दूसरा, कोबाल्ट का खनन अपने अधिकतम स्तर पर पहले ही पहुंच चुका है. जानकारों की मानें तो आने वाले वक्त में इसकी सप्लाई का संकट गहरा सकता है. वैसे कोबाल्ट दुनिया की सबसे मंहगी चीजों में एक है, लेकिन कोंगो दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक है. कहा जाता है कि जिन देशों में दुनिया के सबसे कीमती खनिज हैं, लगभग वो सभी देश अशांत हैं. कोंगो भी उन्हीं में से एक है. कुछ वक्त पहले ही 'एम 23' नाम के विद्रोही संगठन से बचने के लिए हजारों शरणार्थियों को जान बचाकर भागना पड़ा था.
सवाल चीनी खनन कंपनी के एक वायरल वीडियो पर भी उठे, जिसमें तांबे की कथित चोरी के चलते भाड़े के आतंकी स्थानीय लोगों पर कोड़े बरसाते दिख रहे थे. वैसे लिथियम बैटरी हमेशा कोबाल्ट पर ही निर्भर रहें ये जरूरी नहीं, क्योंकि कोबाल्ट के नए विकल्प भी अब सामने आ रहे हैं, जिससे आने वाले वक्त में लिथियम आयन के लिए कोबाल्ट पर निर्भरता कम हो सकती है.
इस बीच खबर है कि लिथियम और कोबाल्ट के विदेशों में खनन के लिए भारत सरकार भी तेजी से काम कर रही है. ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, बोलीविया और चिली जैसे देशों के साथ बातचीत चल रही है. दुनिया में लीथियम का सबसे बड़ा भंडार चिली में है. अर्जेंटीना, बोलीविया, ऑस्ट्रेलिया में भी इसका खनन होता है. भारत की कोशिश इन तमाम देशों के साथ मिलकर आने वाले वक्त की जरूरतों को पूरा करने की है, लेकिन संकट बड़ा है। दुनिया में लीथियम के भंडार सीमित हैं और 2021 की यूबीएस की एक रिपोर्ट डरा रही है, जिसके मुताबिक लीथियम के मौजूदा भंडार 2025 तक खत्म हो सकते हैं.
सवाल सिर्फ लिथियम की उपलब्धता का नहीं बल्कि इसके खात्मे का भी है. लिथियम बैटरी पूरी तरह खत्म नहीं हो सकती. जमीन में दबा तो सकते हैं लेकिन कभी भी वहां आग लग सकती है. एक रिपोर्ट की मानें तो साल 2020 में अकेले चीन में ही 5 लाख मीट्रिक टन यूज्ड बैटरी थी. 2030 तक पूरी दुनिया में ये आंकड़ा बढ़कर 20 लाख मीट्रिक टन हो सकता है. संकट इस कचरे के रिसाइकलिंग का है. ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और अमेरिका में बेहतर रिसाइक्लिंग सिस्टम तो मौजूद है. बावजूद इसके ऑस्ट्रेलिया में 2 से 3 फीसदी और अमेरिका में सिर्फ 5 फीसदी ही यूज्ड बैटरी रिसाइकिल हो पाती हैं. पूरी दुनिया में ये आंकड़ा 1 फीसद से भी कम है. हालांकि, बताया जा रहा है कि सिंगापुर का एक री-साइकिलिंग प्लांट दो लाख अस्सी हजार बैटरियों को एक दिन में 99 फीसदी तक तांबा, निकेल, लिथियम और कोबाल्ट के पाउडर में बदल सकता है. इसका 90 फीसदी तक रिकवरी रेट है. ये खबर आने वाले कल में उम्मीद जरूर बांधती है.
लेकिन इलेक्ट्रिक गाड़ियों के पर्यावरण से जुड़े पहलू यहीं खत्म नहीं होते. जानकारी के मुताबिक कार को एक बार चार्ज करने पर 18 से 20 यूनिट की खपत होती है. ऐसे में भारत जैसे देश में इससे पर्यावरण के मोर्चे पर राहत के आसार नहीं दिखते, जहां 75 फीसदी बिजली कोयले से बनती है. ज्यादा इलेक्ट्रिक कार यानी ज्यादा बिजली की खपत. मतलब ज्यादा कोयले का खनन. यानी ज्यादा फॉसिल फ्यूल, मतलब एक तरफ नेता वोट के लिए मुफ्त या सस्ती बिजली का चुनावी वादा पूरा करेंगे और दूसरी तरफ लोग उस मुफ्त या सस्ती बिजली से अपनी कार चार्ज करेंगे. बेशक इससे फौरी तौर पर फायदा हो सकता है लेकिन आने वाली पीढ़ियों का क्या?
दुनियाभर में पैदा होने वाली कुल बिजली में 60 फीसदी हिस्सेदारी कोयले या गैस की है. ऐसे में सवाल है कि क्या इलेक्ट्रिक कार भी पेट्रोल डीजल कारों जितना ही कार्बन उर्त्सजन करेंगी? इस मोर्चे पर यूरोप में हालात बेहतर नजर आते हैं. बेल्जियम में इलेक्ट्रिक कारों से पेट्रोल डीजल कारों के मुकाबले 3 से 4 गुना कम कार्बन उर्त्सजन होता है.
अब बात भारत की. बताया जाता है कि भारत में ट्रांसपोर्ट सेक्टर क्लाइमेट चेंज में सबसे तेजी से बढ़ता भागीदार है. ग्रीन हाउस गैस में 23 फीसदी हिस्सेदारी अकेले ट्रांसपोर्ट सेक्टर की है. लिहाजा जोर दिया जा रहा है इलेक्ट्रिक व्हीकल्स पर. साल 2010 में संभवत सबसे पहले उस वक्त की केन्द्र सरकार ने महज 95 करोड़ के बजटीय आवंटन के साथ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स से जुड़ी स्कीम लांच की थी, लेकिन इसे रफ्तार दे रहे हैं मौजूदा केन्द्रीय मंत्री नितिन गड़करी. जिन्होंने 2017 में सपना दिखाया 2030 तक 100 फीसदी इलेक्ट्रिक व्हीकल्स का. 2019 के बजट में इलेक्ट्रिक व्हीकल्स पर टैक्स रिबेट का ऐलान किया गया. यानी इलेक्ट्रिक व्हीकल्स खरीदा तो डेढ़ लाख की टैक्स छूट! दिल्ली सरकार ने हाल ही में 10 साल पुराने डीजल वाहनों को इलेक्ट्रिक व्हीकल्स में तब्दील करने की स्कीम का एलान किया है.
महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना, उत्तराखंड, गोवा, गुजरात और वेस्ट बंगाल जैसे कई सूबे इलेक्ट्रिक व्हीकल्स से जुड़ी पॉलिसी बना चुके हैं. सब्सिडी का एलान कर रहे हैं. भारत सरकार अगले साल तक 62 शहरों में 2636 चार्जिंग स्टेशन बनाने पर काम कर रही है. 40 लाख से ज्यादा आबादी वाले 8 शहरों के लिए भी एक्शन प्लान तैयार है. वैसे 25 मार्च 2020 तक देश में 10 लाख 76 हजार से ज्यादा इलेक्ट्रिक व्हीकल्स खरीदे जा चुके हैं, जिनके लिए 1742 पब्लिक चार्जिंग स्टेशन मौजूद हैं.
अगर आप अपनी मौजूदा कार को इलेक्ट्रिक व्हीकल्स के तौर पर बदलवाना चाहें तो ऐसा करवा सकते हैं. छोटी कार के लिए इसका खर्च करीब 2 लाख रुपये जबकि बड़ी कार का खर्च करीब 4 लाख है. इलेक्ट्रिक व्हीकल्स पेट्रोल डीजल के मुकाबले चलाने में काफी सस्ता है. पेट्रोल कार का खर्च जहां प्रति किलोमीटर 10 रुपये है तो वहीं डीज़ल का करीब 7 से 8 रुपये तो इलेक्ट्रिक व्हीकल्स का खर्च सिर्फ 1 रुपये प्रति किलोमीटर.
वैसे सवाल तेल और टैक्स के खेल का भी है. देश में 70 फीसदी डीजल और 99.6 फीसदी पेट्रोल का इस्तेमाल सिर्फ ट्रांसपोर्टेशन के लिए होता है, जिसके लिए सरकार ने बीते साल 119 बिलियन डॉलर का तेल आयात किया था. जानकारों के मुताबिक 2040 तक अगर हमारे देश में पेट्रोल डीजल वाहनों की जगह इलेक्ट्रिक व्हीकल्स ने ले ली तो इंपोर्ट बिल घटकर आधा रह जाएगा यानी विदेशी मुद्रा की बचत! लेकिन सवाल सरकार की कमाई का भी है. पेट्रोल-डीजल से बीते साल अकेले केंद्र सरकार ने ही टैक्स के तौर पर 4 लाख 92 हजार करोड़ से ज्यादा कमाए थे. राज्यवार समझें तो इसी दरमियान यूपी ने 26 हजार करोड़, राजस्थान ने 17 हजार करोड़, तमिलनाडु ने 20 हजार करोड़, पंजाब ने 7800 करोड़ से ज्यादा की कमाई की, सिर्फ पेट्रोल डीजल से. सवाल सिर्फ तेल पर टैक्स का नहीं है.
टैक्स के तौर पर ही हर नई कार पर सरकार को 30 से 45 फीसदी कमाई होती है. मतलब 25 लाख एसयूवी में आप करीब 10 लाख सरकार को देते हैं टैक्स के तौर पर. सवाल है कि जब तेल से चलने वाली कारें ही नहीं होंगी तो सरकार की कमाई कैसे होगी. कमाई नहीं होगी तो वेलफेयर स्टेट के तौर पर सरकारें आपके हमारे लिए खर्च कैसे करेंगी?
जाहिर है बिना कमाई के सरकारें खर्च नहीं कर सकतीं लेकिन उससे ज्यादा जरूरी मुद्दा पर्यावरण का है. दुनिया भर में कुल कार्बन एमिशन में 15 फीसदी हिस्सेदारी सिर्फ ट्रांसपोर्ट की है. भारत में भी ये हिस्सेदारी 11 फीसदी की है. दुनियाभर में 67 लाख लोगों की मौत सिर्फ वायु प्रदूषण के चलते होती है. लेंसेंट के मुताबिक 2019 में अकेले भारत में 16 लाख लोगों की जान सिर्फ वायु प्रदूषण ने ली. इसी के चलते जानकार इलेक्ट्रिक व्हीकल्स को वक्त की जरूरत बता रहे हैं. टेरी और आरएमआई इंडिया जैसे संस्थान इसके फायदे गिना रहे हैं.
बेशक इलेक्ट्रिक व्हीकल्स के कम प्रदूषण, कम मेंटिनेंस और टैक्स छूट जैसे ढेरों फायदे हैं, लेकिन कोबाल्ट-लिथियम का खनन, बैटरी की रिसाइकलिंग और कोयले की बिजली से इलेक्ट्रिक व्हीकल्स की चार्जिंग कई सवाल भी हैं, जिनका जबाव खोजना भी वक्त की जरूरत है, क्योंकि सवाल आपकी हमारी जिंदगी का है.
(इसी मुद्दे पर अनुराग दीक्षित के साथ देखिए Fact Files With Anurag आज रात 8 बजे News Nation Digital पर)
Source : Facts With Anurag