वित्तीय समावेशन के कार्यक्रम वृहद वित्तीय प्रणाली का हिस्सा हैं, जिसकी स्थिरता समावेशी पहल की सफलता के लिए बहुत जरूरी है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के एक पूर्व गर्वनर ने सोमवार को यह बातें कही।
बिमल जालान ने कहा कि वित्तीय स्थिरता के साथ-साथ वित्तीय समावेशन भी चलना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब वे 1990 में आरबीआई के प्रमुख थे, तो उस दौरान एशिया में वित्तीय संकट था और भारत को भुगतान स्थिति में अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा था तथा रुपये का मूल्य तेजी से गिर रहा था, लेकिन उस दौरान भी उनका जोर वित्तीय समावेशन पर था।
आईएफएमआर द्वारा आयोजित समावेशी वित्तीय भारत सम्मेलन में जालान ने कहा, 'वित्तीय समावेशन हमेशा से हमारी वृहद वित्तीय प्रणाली का हिस्सा रहा है, जिसके साथ-साथ वित्तीय स्थिरता रही है।'
उन्होंने कहा, 'यह जरूरी है कि हम वित्तीय स्थिरता से छेड़छाड़ किए बिना वित्तीय समावेशन को मुहैया कराएं और हम ऐसा कर पाने की स्थिति में भी हैं। हमारे विदेशी पूंजी भंडार उच्च हैं और हमारा कर्ज और जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) अनुपात भी काफी अच्छा है।'
जालान ने कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी की मदद से भारत में वित्तीय समावेशन बढ़ा है। उन्होंने आगे कहा, 'बैंकिंग प्रणाली में बदलाव हो रहे है और हम इसे कर पाने में सक्षम हैं। वहीं, ऋण तक पहुंच और ऋण मुहैया करानेवालों की जवाबदेही जरूरी है।'
इस मौके पर अर्थशास्त्री और पूर्व सांसद सी. रंगराजन ने कहा कि वे 1990 के बैंकिंग सुधार में शामिल रहे हैं। उस समय केंद्रीय बैंक ब्याज दरों की 'प्रासंगिक संरचना को समाप्त करने' तथा प्राथमिकता वाले क्षेत्र को कर्ज देने में कटौती के लिए प्रतिबद्ध था।
वहीं, आरबीआई के एक अन्य पूर्व गर्वनर वाई. वी. रेड्डी ने और अधिक छोटे वित्तीय संस्थानों और विकेंद्रीकरण पर बल दिया। रेड्डी ने कहा, 'चैनलों की बहुलता बेहतर है। हमें यह विचार करना होगा कि इन संस्थानों को विनियमित करने के लिए राज्य सरकारों को कैसे शामिल किया जाए।'
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Source : IANS