मद्रास उच्च न्यायालय ने बुधवार को तमिलनाडु सरकार द्वारा सरेंडर की गई अखिल भारतीय कोटा (एआईक्यू) सीटों पर मेडिकल और डेंटल सीटों में प्रवेश के लिए आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 फीसदी आरक्षण को रद्द कर दिया. यह उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन करता है. मुख्य न्यायाधीश संजीव बनर्जी और न्यायमूर्ति पी.डी. ऑडिकेसवालु ने कहा, 'ईडब्ल्यूएस कोटा भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित होने तक अनुमेय है.' हालांकि अदालत ने कहा कि मेडिकल और दंत चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए तमिलनाडु सरकार द्वारा एआईक्यू सीटों पर ओबीसी के लिए केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित 27 प्रतिशत आरक्षण संभव है और इसके लिए राज्य में 50 प्रतिशत आरक्षण देने की जरूरत नहीं है.
अदालत ने वर्तमान शैक्षणिक वर्ष में आरक्षण को लागू करने में विफल रहने के लिए केंद्र सरकार के खिलाफ राज्य के सत्तारूढ़ द्रमुक द्वारा दायर अदालत की अवमानना को भी हटा दिया. पार्टी यह भी चाहती है कि अदालत केंद्र सरकार को राज्य की नीति के अनुसार एआईक्यू सीटों पर ओबीसी के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने का निर्देश दे, न कि केंद्र सरकार द्वारा पालन किए जा रहे 27 प्रतिशत के लिए. केंद्र सरकार ने द्रमुक की प्रार्थना का विरोध करते हुए कहा कि केंद्र सरकार के अधिनियम के आधार पर एआईक्यू सीटों पर एससी/एससी समुदायों के लिए आरक्षण प्रदान किया गया है. यदि ओबीसी के लिए एआईक्यू में राज्य आरक्षण का पालन किया जाता, तो यह एक अलग परिदृश्य को जन्म देता.
गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने हाल ही में स्नातक चिकित्सा पाठ्यक्रमों में अखिल भारतीय कोटे के तहत सरेंडर्ड सीटों के परिप्रेक्ष्य में मौजूदा शैक्षणिक सत्र से 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की थी. इसी मामले को लेकर द्रमुक ने मद्रास उच्च न्यायालय में इस आरक्षण को अस्वीकार करने की बात कही. केंद्र के खिलाफ डीएमके की अवमानना याचिका पर सुनवाई हो रही थी. उसी दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता पी विल्सन ने मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीब बनर्जी और न्यायमूर्ति पी डी औदिकेसवलु की प्रथम पीठ के सामने कहा कि राज्य सरकार 69 प्रतिशत नहीं तो 50 प्रतिशत से कम कुछ भी स्वीकर नहीं करने वाली, जैसा पहले की पीठ ने भी सिफारिश की थी.
बता दें कि द्रमुक और इनके सहयोगियों के द्वारा दायर की गई याचिका पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए पी साही के नेतृत्व वाली पीठ ने याचिकाकर्ताओं के दावे के अनुसार आरक्षण के क्रियान्वयन से जुड़े नियमों को उपलब्ध कराने के लिए एक अलग समिति के गठन का सुझाव दिया था. उस समय कोर्ट ने समिति को आरक्षण का प्रतिशत निर्धारित करने का अधिकार भी दिया था. जब यह मामला 19 जुलाई को फिर सामने आया, तो मुख्य न्यायाधीश बनर्जी की अगुवाई वाली वर्तमान पीठ ने केंद्र को 1993 के राज्य अधिनियम के संदर्भ में ओबीसी आरक्षण कोटा के कार्यान्वयन के तरीके और तरीके पर अपना रुख इंगित करने के लिए एक सप्ताह का समय दिया.
HIGHLIGHTS
- मुख्य न्यायाधीश संजीव बनर्जी और न्यायमूर्ति पी.डी. ऑडिकेसवालु का फैसला
- उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन करता है
- द्रमुक और उसके सहयोगी दलों ने की थी हाई कोर्ट में इसके खिलाफ अपील