सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ भारतीय सेना के अध्यक्ष थे जिनके नेतृत्व में भारत ने सन् 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में विजय प्राप्त किया था जिसके परिणाम स्वरूप बांग्लादेश का जन्म हुआ था. मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में एक पारसी परिवार में हुआ था. उनका परिवार गुजरात के शहर वलसाड से पंजाब आया था. मानेकशॉ की शुरुआती शिक्षा अमृतसर में हुई थी. बाद में वह नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में दाखिल हो गए. वह देहरादून के इंडियन मिलिट्री एकेडमी के पहले बैच (1932) के लिए चुने गए 40 छात्रों में से एक थे. वहां से वह कमीशन प्राप्ति के बाद 1934 में भारतीय सेना में भर्ती हुए.
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1973 में फील्ड मार्शल का सम्मान मिला
1937 में एक सार्वजनिक समारोह के लिए लाहौर गए सैम की मुलाकात सिल्लो बोडे से हुई. दो साल की यह दोस्ती 22 अप्रैल 1939 को शादी में बदल गई. 1969 को उन्हें सेनाध्यक्ष बनाया गया और 1973 में फील्ड मार्शल का सम्मान प्रदान किया गया. 1973 में सेना प्रमुख के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वह तमिलनाडु में बस गए थे. वृद्धावस्था में उन्हें फेफड़े संबंधी बिमारी हो गई थी और वह कोमा में चले गए. उनकी मृत्यु वेलिंगटन के सैन्य अस्पताल के आईसीयू में 27 जून 2008 को हुई थी.
पहली बार दूसरे विश्व युद्ध में जीत का स्वाद चखा
17वी इंफेंट्री डिवीजन में तैनात सैम ने पहली बार द्वितीय विश्व युद्ध में जंग का स्वाद चखा. 4-12 फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के कैप्टन के तौर पर बर्मा अभियान के दौरान सेतांग नदी के तट पर जापानियों से लोहा लेते हुए वह गम्भीर रूप से घायल हो गए थे. स्वस्थ होने पर मानेकशॉ पहले स्टाफ कॉलेज क्वेटा, फिर जनरल स्लिम्स की 14वीं सेना के 12 फ्रंटियर राइफल फोर्स में लेफ्टिनेंट बनकर बर्मा के जंगलों में एक बार फिर जापानियों से दो-दो हाथ करने जा पहुंचे, यहां वह भीषण लड़ाई में फिर से बुरी तरह घायल हुए, द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद सैम को स्टॉफ आफिसर बनाकर जापानियों के आत्मसमर्पण के लिए इंडो-चाइना भेजा गया जहां उन्होंने लगभग 10000 युद्ध बंदियों के पुनर्वास में अपना योगदान दिया.
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भारत-पाकिस्तान युद्ध 1947 में महत्वपूर्ण भूमिका
मानेकशॉ 1946 में फर्स्ट ग्रेड स्टॉफ ऑफिसर बनकर मिलिट्री आपरेशंस डायरेक्ट्रेट में सेवारत रहे, भारत के विभाजन के बाद 1947-48 की भारत-पाकिस्तान युद्ध 1947 की लड़ाई में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. भारत की आजादी के बाद गोरखों की कमान संभालने वाले वह पहले भारतीय अधिकारी थे. गोरखों ने ही उन्हें सैम बहादुर के नाम से सबसे पहले पुकारना शुरू किया था. तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए सैम को नागालैंड समस्या को सुलझाने के अविस्मरणीय योगदान के लिए 1968 में पद्मभूषण से नवाजा गया.
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15 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से सेवानिवृत्त हुए
7 जून 1969 को सैम मानेकशॉ ने जनरल कुमार मंगलम के बाद भारत के 8वें चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ का पद ग्रहण किया, उनके इतने सालों के अनुभव के इम्तिहान की घड़ी तब आई जब हजारों शरणार्थियों के जत्थे पूर्वी पाकिस्तान से भारत आने लगे और युद्घ अवश्यंभावी हो गया, दिसम्बर 1971 में यह आशंका सत्य सिद्घ हुई, सैम के युद्घ कौशल के सामने पाकिस्तान की करारी हार हुई और बांग्लादेश का निर्माण हुआ, उनके देश प्रेम और देश के प्रति निस्वार्थ सेवा के चलते उन्हें 1972 में पद्मविभूषण और 1 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से अलंकृत किया गया. चार दशकों तक देश की सेवा करने के बाद सैम बहादुर 15 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से सेवानिवृत्त हुए.
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 'मैडम' कहने से इनकार
मानेकशॉ खुलकर अपनी बात कहने वालों में से थे. उन्होंने एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 'मैडम' कहने से इनकार कर दिया था. उन्होंने कहा था कि यह संबोधन 'एक खास वर्ग' के लिए होता है. मानेकशॉ ने कहा कि वह उन्हें प्रधानमंत्री ही कहेगे.
Source : News Nation Bureau