पांच राज्यों के आगामी चुनावों में हार-जीत जहां सबसे साफ दिख रही है वो सूबा राजस्थान है। न्यूज़ नेशन के ओपिनियन पोल में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) 200 सीटों वाली विधानसभा में महज 71 से 75 पर सिमटती दिख रही है। पिछले चुनाव में बीजेपी ने 163 सीटों पर कब्जा किया था तो कांग्रेस को महज 21 सीटें मिली थीं। ये बात सही है कि राजस्थान में पिछले 20 सालों में सरकारें बदलने का ट्रेंड है लेकिन उसकी भी कुछ वजहें होती हैं और इस बार बीजेपी के खिलाफ एक ऐसा फैक्टर है जो पहले कभी नहीं था।
पहली बार राजपूत वोट बीजेपी से छिटक कर कांग्रेस की तरफ जाता दिख रहा है। राजपूत करणी सेना, श्री क्षत्रिय युवक संघ जैसे बड़े राजपूत संगठनों ने खुलेआम बीजेपी का विरोध शुरू कर दिया है। मारवाड़ इलाके में बीजेपी के बड़े नेता रहे जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह बीजेपी को बड़ी भूल बता चुके हैं। मानवेंद्र सिंह का कांग्रेस में जाना लगभग तय माना जा रहा है। राज्य के बाकी हिस्सों में बीजेपी के खिलाफ राजपूत समुदाय की नाराजगी साफ जाहिर है।
राजपूत समुदाय राजस्थान में महज 5-6 फीसदी ही है लेकिन सूबे की सत्ता के समीकरण तय करने में इस समुदाय की कई चुनावों में बड़ी भूमिका रही है। 200 सीटों वाली राजस्थान विधानसभा में हमेशा से राजूपत समुदाय से औसतन 17-18 राजपूत विधायक होते हैं इनमें ज्यादातर बीजेपी के होते हैं। यहां तक कि बीजेपी के भैरों सिंह शेखावत तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे हैं जो शेखावाटी से राजपूत समुदाय के बेहद लोकप्रिय नेता रहे हैं।
जनसंख्या में अपनी हिस्सेदारी कम होने के बावजूद राजपूत ही वो समुदाय है जो राजस्थान विधानसभा के चौथे ही चुनाव में कांग्रेस को बहुमत हासिल करने से रोक दिया था। आजादी से पहले राजस्थान में राजपूतों की हकूमत थी। कांग्रेस रियासतों और जमींदारो के खिलाफ आंदोलन किया। राजशाही खत्म करने के लिए राजपूत कांग्रेस को जिम्मेदार मानते रहे इसीलिए उनकी हमेशा कांग्रेस से दूरी रही।
राज्य में 2 चुनावों के बाद ही कांग्रेस को राजपूतों से खतरे का अहसास हो गया था। साल 1962 के विधानसभा चुनाव में जयपुर की महारानी गायत्री देवी और डुंगरपुर के राजा महारावल लक्ष्मणसिंह की अगुवाई में राजपूतों की स्वतंत्र पार्टी को पहली बार में ही 36 सीट मिली थीं तो कांग्रेस महज 88 सीट पर सिमट गई थीं।
1962 के चुनाव के बाद उस वक्त राजस्थान के सीएम रहे मोहनलाल सुखाड़िया ने राजपूतों को अपनी तरफ मिलाने की रणनीति बनाई। जयपुर के महाराजा मानसिंह को स्पेन में एंबेसेडकर बनाकर भेज दिया गया था तो डुंगरपुर के महारावल लक्ष्मण सिंह भी सुखाड़िया के खेमे में शामिल हो गए थे। इसके बावजूद स्वतंत्र पार्टी ने जनसंघ के साथ मिलकर कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने की पूरी कोशिश की।
इस दौरान राजपूत नेताओं और जाटों के बड़े नेता कुंभाराम आर्य में भी गठजोड़ हो गया था। इसका नतीजा भी 1967 के चुनाव में दिखा। कांग्रेस को सिर्फ 89 सीटें मिली तो स्वतंत्र पार्टी को 49 और जनसंघ को 22 सीटें मिली। हालांकि बहुमत होने के बावजूद गठबंधन की सरकार नहीं बन पाई थी और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।
70 के दशक के बाद शेखावाटी के सीकर जिले में भैरों सिंह शेखावत राजपूतों के बड़े नेता बनकर उभरे और इमरजेंसी के बाद साल 1977 में उन्होंने जनता पार्टी सरकार बनाई और मुख्यमंत्री बने। भैरों सिंह शेखावत बीजेपी के संस्थापक सदस्य रहे हैं। साल 1990 से 1992 तक और 1993 से 1998 तक वो बीजेपी के मुख्यमंत्री रहे।
राजपूत के बीजेपी में इस बड़े चेहरे के साथ ही राजपूत समुदाय भी बीजेपी के साथ रहा। अब भैरोंसिंह शेखावत नहीं रहे, ना ही बीजेपी में राजपूतों का कोई बड़ा नेता बचा है। वसुंधरा सरकार में कुछ घटनाएं ऐसी हुई जिससे वसुंधरा राजपूतों की आखों में चुभ गई।
पिछले साल जून महीने में राजस्थान के चुरू में पुलिस ने एक गैंगस्टर का एनकाउंटर किया था। नाम था आनंद पाल। आनंदपाल का एनकाउंटर कई दिनों तक सुर्खियों में रहा था। आनंदपाल एक बड़े जाट नेता की हत्या का दोषी था लिहाजा जाट और राजपूतों के बीच सालों पुरानी जातिगत दुश्मनी में राजपूतों का हीरो आनंदपाल बन गया था।
राजपूत समुदाय का आरोप था कि एनकाउंटर फर्जी हुआ है इसलिए सीबीआई जांच की मांग को लेकर हिंसक प्रदर्शन भी हुए। राजपूत समुदाय के नेताओं का कहना है कि वसुंधरा सरकार ने समुदाय के प्रदर्शनकारियों पर दर्ज केस वापस नहीं लिए जबकि एससी-एसटी के प्रदर्शनकारियों के खिलाफ केस वापस ले लिए।
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जोधपुर इलाके के राजपूतों में अपने बड़े नेता जसवंत सिंह की अनदेखी को लेकर भी नाराजगी है। जोधपुर इलाके में राजपूतों की तादाद अच्छी खासी है। पूर्व केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता जसवंत सिंह राजूपूतों के समाननीय नेता हैं। लोकसभा चुनाव में बाड़मेर-जैसलमेर सीट से उनको टिकट नहीं दिया गया। उनकी जगह राजपूतों के प्रतिद्वंदी जाट नेता कर्नल सोनाराम को टिकट दिया गया।
जसवंत सिंह ने इंडिपेंडेंट चुनाव लड़ने का फैसला किया तो उनको बीजेपी से निकाल दिया गया था। राजपूत समुदाय को इसमें उनके बड़े नेता का अपमान मालूम हुआ। हाल ही में जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र ने भी बीजेपी को तलाक दे दिया है।
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बीजेपी के पास अभी भी राजेंद्र राठौड़ जैसे नेता हैं जिनकी वसुंधरा सरकार में बड़ी भूमिका रही है। लेकिन उनके साथ राजपूतों का जनसमर्थन नहीं दिखता। वसुंधरा राजे सिंधिया खुद मराठा राजपूत हैं लेकिन ये फैक्टर अब राजस्थान में कहीं भी काम करता नहीं दिख रहा है। राजपूत अपनी राजनीतिक अवहेलना का आरोप लगाकर बीजेपी को सबक सिखाकर कांग्रेस की तरफ जा रहे हैं। आजादी के बाद पहली बार बीजेपी बिन-राजपूत रहेगी।
Source : Suresh Kumar Bijarnia