चंद दिनों पहले जब कांग्रेस आलाकमान ने स्पष्ट किया कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी के साथ केरल की वायनाड सीट से भी चुनाव लड़ेंगे, तो कई भवें तन गईं. वह भी तब जब केरल की ही तर्ज पर कर्नाटक कांग्रेस ईकाई ने भी राहुल गांधी से बीदड़ से लोकसभा चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया था. राजनीतिक गलियारों में भी यह प्रश्न तैरने लगा कि आखिर कर्नाटक छोड़ कर कांग्रेस अध्यक्ष ने केरल को क्यों चुना? इसका जवाब राजनीतिक मजबूरियों और महत्वाकांक्षा में निहित है.
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जिस तर्क के साथ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए केरल की वायनाड संसदीय सीट को उपयुक्त बताया गया, जवाब उसी में है. पूर्व रक्षा मंत्री एक एंटोनी ने कहा था कि केरल कांग्रेस ईकाई की मांग पर वायनाड सीट को कांग्रेस अध्यक्ष के लिए चुना गया. कांग्रेस नेता का तर्क था कि राहुल गांधी के वायनाड से लड़ने से आसपास के राज्यों कर्नाटक, तमिलनाडु को भी इसका लाभ मिलेगा. यह बात कुछ हद तक ही सही है. खासकर यह देखते हुए कि गांधी परिवार से केरल जाकर लड़ने वाले राहुल गांधी पहले सदस्य हैं. हालांकि उनकी दादी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी आंध्र प्रदेश के मेडक (अब तेलंगाना) और मां सोनिया गांधी कर्नाटक के बेल्लारी से न सिर्फ चुनाव लड़ चुकी हैं, बल्कि जीती भी.
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वायनाड को चुनने के पीछे दूसरी वजह गठबंधन की राजनीति है. कर्नाटक में ही भले ही कांग्रेस के समर्थन से जनता दल (एस) सरकार चल रही हो, लेकिन कर्नाटक में सरकार गठन का 'नाटक' एचडी कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री के कुर्सी पर बैठ जाने के बाद भी लगातार जारी है. कुमारस्वामी के राज्य कांग्रेस को लेकर दिए गए तीखे बयानों ने भले ही राज्य की राजनीति में भारी उलट-फेर नहीं किया हो, लेकिन इतना तो सभी को पता चल गया है कि दोनों के बीच सब कुछ ठीक नहीं हैं. 'मैं राज्य का सीएम नहीं, क्लर्क हूं...' या 'कांग्रेस अपने विधायकों को काबू में रखे अन्यथा मैं सीएम पद छोड़ दूंगा' जैसे कुमारस्वामी के वक्तव्य ही बताते हैं कि जमीनी स्तर पर कांग्रेस और जद(एस) के ताल्लुकात कड़वाहट भरे ही हैं. ऐसी अस्थिर स्थिति में कांग्रेस आलाकमान पार्टी अध्यक्ष के लिए कर्नाटक को नहीं चुन सकता था.
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दूसरे केंद्र में सत्ता की आदी कांग्रेस पार्टी के लिए यह चुनाव बड़ी राष्ट्रीय पार्टी बतौर अस्तित्व की लड़ाई भी है. बीजेपी के खिलाफ आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की पहल पर भले ही महागठबंधन चर्चा में आ गया हो, लेकिन राज्य स्तर पर कांग्रेस से कोई भी गठबंधन करने को तैयार नहीं है. महागठबंधन के प्रणेताओं ने आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस से किसी भी तरह के गठबंधन से इनकार कर दिया. यहां तक कि बंगाल में पिछली बार के साथी वाम मोर्चे ने भी इस बार कांग्रेस से दूरी बनाने में भलाई समझी. ऐसे में कांग्रेस के लिए जरूरी था कि वह अपने निजी प्रदर्शन को सुधारे. इसे ध्यान में रखते हुए भी कांग्रेस अध्यक्ष के लिए केरल की वायनाड सीट चुनी गई.
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जैसी केरल के मुख्यमंत्री पिन्नारई विजयन की प्रतिक्रिया से जाहिर है राहुल गांधी के वायनाड से लड़ने से महागठबंधन के औचित्य पर ही सवाल उठते हैं. भाजपा खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हराने की चौतरफा खेमेबंदी के बीच राहुल गांधी के केरल आने से लड़ाई का केंद्र बीजेपी से हटकर लेफ्ट-कांग्रेस हो गया है. हालांकि जिन्हें यूपीए का पहला कार्यकाल याद होगा, उन्हें इसमें कोई आश्चर्य नहीं दिखेगा. अमेरिका से नाभिकीय संधि को मसला बनाकर वाम मोर्चे ने 2008 में यूपीए-एक से इस्तीफा ले लिया था. हालांकि वाम मोर्चे का दबाव हटते ही तत्कालीन यूपीए सरकार ने कुछ नीतियों को लागू किया था. इसके प्रभाव में बाद के आम चुनाव में लेफ्ट की संख्या आधी पर सिमट गई थी. जाहिर है बंगाल और त्रिपुरा में अपना आधार बचाने की जद्दोजेहद से जूझ रहे लेफ्ट के लिए केरल अब एक नई चुनौती बन गया है.
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दूसरे शब्दों में कहें तो कांग्रेस आलाकमान ने बंगाल में लेफ्ट के गठबंधन को लेकर दिखाए गए तेवर, 2008 के अनुभव को देखते हुए केरल में उन्हें चुनौती देना बेहतर समझा. हालांकि इसके लिए कांग्रेस अध्यक्ष के लिए वायनाड के रूप में सुरक्षित सीट चुनी गई है, जहां जीत का मार्ग कम चुनौतीपूर्ण है. कर्नाटक की तरह केरल में राजनीतिक स्थितियां कांग्रेस के अनुकूल हैं. यहां जीत दर्ज कर कांग्रेस अध्यक्ष दक्षिणी राज्यों को संदेश देने में सफल होंगे कि केंद्र की सत्ता का रास्ता कांग्रेस पार्टी को साथ लेकर जाता है. बस इन्हीं कारणों से राहुल गांधी ने कर्नाटक के बजाय केरल की वायनाड सीट को चुना है.
Source : News Nation Bureau