भले ही मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की नई 'मांग' से दिल्ली में आप-कांग्रेस गठबंधन पर फिर से नया पेंच फंस गया है, लेकिन ऐसा लग रहा है कि यहां आप-कांग्रेस गठबंधन इतिहास बनाने की ओर अग्रसर है. 2019 के लोकसभा चुनाव दिल्ली के लिए पहली बार गठबंधन का साक्षी बनेंगे. अभी तक किसी भी दो राजनीतिक दलों ने गठबंधन कर दिल्ली के संसदीय चुनाव नहीं लड़े हैं. हालांकि आपातकाल के बाद 'भारतीय लोकदल' के बैनर तले एक साथ सात पार्टियां जरूर साथ आ चुकी हैं, लेकिन इसके लिए उन्होंने मूल पार्टी के नाम पर चुनाव में जाने के बजाय 'बीएलडी' का मंच चुना था.
दिल्ली अब तक 16 संसदीय चुनाव का साक्षी बनी है. सबसे पहले संसदीय चुनाव 1951 में हुए, तब तीन सीटें थी. हालांकि आजाद भारत के पहले आम चुनाव में दिल्ली में चार सांसद चुन कर आए. तीन सीटों पर चार सांसद की वजह यह थी कि बाहरी लोकसभा सीट बड़ी होने से वहां से दो सांसद चुने गए थे. उस चुनाव में तीन सांसद कांग्रेस और एक केएमपी की सुचेता कृपलानी थीं.
दूसरे आम चुनाव यानी 1957 में दिल्ली में चार लोकसभा सीटों हो गईं. पिछली बार की तुलना में अंतर यही था कि सुचेता कृपलानी कांग्रेस में शामिल हो चुकी थीं. इस तरह चारों सीटों पर कांग्रेस सांसद हो गए. उन दिनों नए-नए स्वतंत्र हुए भारत देश के लिए दलगत स्वार्थ या हित उतने मायने नहीं रखते थे, जितने आज हैं. ऐसे में सुचेता कृपलानी कांग्रेस में शामिल हो गई थीं.
1977 में परिसमीन के बाद दिल्ली में सात संसदीय सीट हो गईं. उसी साल पहली बार जनसंघ चुनाव मैदान में उतरा और उसने दिल्ली की छह सीटों पर जीत हासिल की. कांग्रेस को महज एक सीट पर विजय हासिल हुई. इसके बाद एक परंपरा सी बन गई कि दिल्ली की जनता ने एक बार कांग्रेस और एक बार हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी (जनसंघ और फिर बाद में अस्तित्व में आई बीजेपी) के अलावा कांग्रेस को ही मौका दिया. पिछले लोकसभा चुनाव में पहली बार दिल्ली त्रिकोणीय मुकाबले का साक्षी बनी, जब कांग्रेस और बीजेपी के साथ आम आदमी पार्टी ने चुनाव लड़ा. इस बार पहला मौका होगा जब दिल्ली गठबंधन राजनीति का साक्षी बनेगा और कांग्रेस-आप मिल कर बीजेपी के खिलाफ लड़ेंगी.
Source : News Nation Bureau