साल 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार ज्यादातर राज्यों के मतदान प्रतिशत में गिरावट देखी जा रही है. ओवरऑल वोटिंग प्रतिशत में लगभग 2 फीसदी कम है. घटते-बढ़ते वोटिंग प्रतिशत (low and high voter turnouts) को लेकर ज्यादातर लोग कह रहे हैं कि बढ़ी हुई वोटिंग सत्ता के खिलाफ नाराजगी होती है जबकि घटी हुई उसे समर्थन. हालांकि घटे या बढ़े मतदान प्रतिशत का सत्ता विरोधी या सत्ता के पक्ष में कोई कनेक्शन समझ में नहीं आता. अगर छह-सात फीसदी का अंतर हो तब जरूर इसका फर्क पड़ता.
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2013 के मुकाबले दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनाव में तीन प्रतिशत ज्यादा मत पड़े थे. बीजेपी मत प्रतिशत के मुकाबले कांग्रेस से बढ़त बनाई हुई थी. जब मध्य प्रदेश में 2003 का विधानसभा चुनाव हुआ था तो लगभग 7.2 % वोटिंग ज्यादा हुई थी. इसका प्रभाव भी दिखा और कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकल गई.
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2003 में भी एमपी में बीजेपी की सरकार बनी. इसके बाद 2008 के चुनाव में वोटिंग में 2% का इजाफा हुआ. फिर भी बीजेपी की सरकार बनी. 2013 में फिर दो-तीन फीसदी का इजाफा हुआ फिर भी बीजेपी की सरकार बनी रही. मतलब ये है कि मतदान प्रतिशत बढ़ता रहा फिर भी बीजेपी सरकार बनी रही. इसका मतलब ये हैं कि मतदान बढ़े या घटे इसका कोई मतलब अब नहीं निकलता.
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2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो बड़ा सवाल ये है कि पहले चरण के मतदान प्रतिशत में बिहार क्यों पिछड़ गया? जबकि त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में 81 फीसदी तक वोटिंग हुई. जो वामपंथियों के गढ़ रहे हैं. बिहार और बंगाल सटे हुए राज्य हैं फिर भी मतदान व्यवहार में अंतर आता है. इसकी कई वजहें होती हैं. इसके अलावा दूसरे, तीसरे और चौथे चरण में भी कम मतदान हुआ लेकिन अंतर वही 2 से 4 फीसद.
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कई बार वोटर राजनीतिक कारणों से तो कई बार सामाजिक कारणों से वोट डालने नहीं जाता. कई बार टीना-TINA (देयर इज नो अल्टरनेटिव) फैक्टर भी काम करता है. मतलब जब हम ये मान बैठते हैं कि किसी पार्टी और नेता का इस समय कोई विकल्प ही नहीं है तो लगता है कि जीतेगी तो वही पार्टी. ऐसे में लोग वोट डालने नहीं निकलते. कई बार ध्रुवीकरण की वजह से वोटिंग ज्यादा होती है.
Source : News Nation Bureau