शिवसेना (shivsena) ने एक बार फिर सरकार पर हमला बोला है. सामना में लिखे लेख में शिवसेना की ओर से कहा गया है कि महाराष्ट्र में ‘युति’(बीजेपी शिवसेना गठबंधन) की चर्चा पर पूर्णविराम लग गया है. कुछ विरोधियों का सवाल है कि युति क्यों हुई? ऐसा दर्द उठा ही था और जब नहीं हुई थी तब कहा जाता था, ‘छी, छी, शिवसेना तो मुद्दे को तानती है!’ ऐसे सवालों का जवाब देने से अच्छा है कि महाराष्ट्र के हित में जो नई व्यवस्था बनी है, उसे आगे लेकर जाएं, इसी में सबकी भलाई है. जनता के मन में कम लेकिन हमारे राजनीतिक विरोधियों के दिमाग में सवालों का कीड़ा कुछ ज्यादा ही बिलबिला रहा है.‘युति’(BJP Shiv Sena alliance) के कारण ये कीड़े कुचल दिए जाएंगे, इस डर से उनकी बिलबिलाहट शुरू है.
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अमित शाह खुद ‘मातोश्री’ आए. हमें जो कहना था उसे ‘ठाकरे’ शैली में कह दिया. जो गलतियां पहले हुई हैं, वह दोबारा न हों इस पर एकमत हुए. इसके बाद ‘युति’ को एक और मौका देने का निर्णय हुआ. हालांकि भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के बीच वैसे दुश्मनी नहीं थी. मूलत: राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी ‘NDA’ की ‘कलई’ करने का प्रयास गत महीने भर से शुरू है. इस एनडीए का जनकत्व बीजेपी जितना ही शिवसेना और अकाली दल का भी है. नीतिश कुमार जैसे भरोसेमंद साथी ने भी दो बार NDA छोड़ा है. राम मंदिर और गोधरा आदि मामलों पर हमला करने वाले नीतिश कुमार को तो मोदी बिल्कुल स्वीकार्य नहीं थे.
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लेकिन आखिरकार विचार और नीतियां न मिलने और जिससे खूब झगड़ा हुआ हो तो भी राजनीति में फिर उसके साथ आने के लिए कुछ आम शब्द कहे जाते हैं जैसे कि ‘राष्ट्रीय व्यापक हित’, ‘जनहित’ और ‘जनता की इच्छा’. इस इच्छा के अनुसार कांग्रेस का महागठबंधन हो सकता है और नीतिश कुमार आदि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में आ सकते हैं तो शिवसेना तो इस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की बराबरी की हिस्सेदार ही है. साल 2014 की परिस्थिति अलग थी. लहरों का उफनना और गिरना देश में नई बात नहीं है. ऐसा नहीं होता तो राजनारायण जैसे विदूषक ने इंदिरा गांधी को हराया नहीं होता.
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चिढ़ और संताप के कारण जनता अच्छे-अच्छों को पटक देती है और उनके विरोध में नए लोगों को सिर पर बिठा लेती है. 2014 में कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ जनता में प्रचंड रोष था ही. मोदी का उदय और उनका प्रस्तुतीकरण लोगों को भा गया तथा कांग्रेस के साथ ही उनके बगलबच्चों के विरोध में एक लहर तैयार हुई. हालांकि उस लहर की ऊंचाई और तूफान कम हुआ है तथा 2019 की स्थिति ऐसी है कि यह चुनाव लहर पर नहीं बल्कि विचार, काम और भविष्य पर लड़ना है. राहुल गांधी की प्रगति पुस्तक 2019 की तुलना में अवश्य ही सुधरी है. सहायता के लिए प्रियंका हैं लेकिन उनकी तुलना मोदी के नेतृत्व से नहीं की जा सकती. हालांकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सामने नई चुनौतियां हैं. भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा पार करना आज आसान नहीं है, वे यह बात दो साल पहले ही जान गए थे और एनडीए के बेकार बर्तनों की कलई करना ही उन्हें ठीक लगा लेकिन शिवसेना उसमें का बर्तन नहीं है तथा सत्य, देशहित और हिंदुत्व के मुद्दे पर हमारे बर्तन उनके बर्तन से टकराकर बजते रहे और सिक्के खनखनाते रहे. दबाव और दमन के भूतों को शिवसेना ने कभी कंधे पर बैठने नहीं दिया.
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हमने अपनी शान बनाए रखी और रखेंगे भी शिवसेना सत्ता के लिए लाचार नहीं है. 2014 में बीजेपी से विधिवत अलगाव के बावजूद फिर एक जैसे हुए? राम मंदिर बनेगा क्या? शिवसेना का मुख्यमंत्री बनेगा क्या? ऐसे कई सवाल हैं और उनके उत्तर सकारात्मक हैं. लोकतंत्र में विशेषत: तुम्हारे संसदीय लोकतंत्र में ‘आंकड़े’ को जितना महत्व नहीं मिलना चाहिए था उतना ही मिल गया है इसलिए जैसे दूसरे लोग ये आंकड़े बिठाते हैं, उसी प्रकार हमें भी बिठाना पड़ता है. युति के संयोजन में नई व्यवस्था बनी है. उसकी अपेक्षा राज्य की नई ‘व्यवस्था’ हुई तो हमें वो चाहिए. 2014 के बाद तलवारें निकलीं और अगले चार वर्ष सब तलवार में धार लगाते रहे लेकिन शिवसेना की तलवार दुधारी है. मां भवानी की है.
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न्याय और सत्य के लिए दमकने वाली है. हमारी पीठ पर जो वार हुए, वो हमारे अपनों ने ही किए. इतिहास में ऐसा कई बार हुआ है, फिर वो शिवराय हों या शिवसेना प्रमुख. पीठ पर वार सहकर बहे हुए खून की कीमत देकर उन्होंने संगठन को आगे बढ़ाया. यह पलायन नहीं होता और न ही लाचारी होती है, जोड़तोड़ तो बिल्कुल नहीं होती. देश में हवा किस दिशा में बह रही है यह कल ही पता चलेगा लेकिन ‘हवा’ हमारी ओर घूम गई है. हवा आएगी इसलिए हमने पीठ नहीं दिखाई. इतिहास को इसे दर्ज करना होगा. फिलहाल इतना ही. तलवार की धार बरकरार है और शिवसेना की तलवार ‘म्यानबंद’ नहीं है.
Source : Anil Shinde