शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना के संपादकीय में लिखा, '' देश में बड़े पैमाने पर उथल-पुथल मची है. कश्मीर हमले के बाद माहौल तनावपूर्ण हो गया है. देशभक्ति या राष्ट्रवाद को प्रदर्शित करने के लिए कश्मीर जैसे आतंकी हमलों की आवश्यकता क्यों? हर गांव और शहर में देशभक्ति की गर्जना करनेवाले लोग इकट्ठा हो रहे हैं. दिल्ली स्थित इंडिया गेट पर कल रात हजारों युवा अमर जवान ज्योति के पास इकट्ठा हुए. जवानों का खून बहे बिना देशभक्ति की चिंगारी नहीं फूटती. बिना आतंकवादी हमला हुए हमारी देशभक्ति नहीं जागती. पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए ऐसे हमलों की प्रतीक्षा क्यों करनी पड़ती है? ये काम कब का हो जाना चाहिए था. अब जनभावना ये है कि कम से कम ‘पुलवामा’ हमले के बाद वर्तमान सरकार पाकिस्तान को सबक सिखाती. इसमें थोड़ा बहुत राजनीतिक रंग मिला ही दिया जाता है. लेकिन किसी एक की देशभक्ति की अपेक्षा किसी दूसरे की देशभक्ति प्रखर है, इसपर सोशल मीडिया में स्पर्धा न हो.''
सामना में लिखा गया कि, ''दूसरी तरफ इस हमले के बाद देशभर में जो तीव्र संताप व्यक्त हो रहा है, उस आवेश में कोई अनावश्यक गंभीर मुद्दा सामने आ जाए, ऐसा न हो. हम खबरें देख रहे हैं कि पुलवामा हमले के बाद देशभर में कश्मीरी विद्यार्थियों पर हमले शुरू हो गए हैं. यह चिंताजनक और उतना ही खतरनाक साबित होगा. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में सिखों का हत्याकांड हुआ. कांग्रेस पार्टी को उसकी कीमत आज भी चुकानी पड़ रही है. आज कश्मीरी युवाओं को विशेषकर विद्यार्थियों को निशाना बनाया जा रहा होगा तो नए संकट को हम बुलावा दे रहे हैं. नवजोत सिंह सिद्धू बेलगाम बोलनेवाला आदमी है लेकिन मूलत: वह भारतीय जनता पार्टी का ‘प्रोडक्ट’ है. पुलवामा हमले के बाद जब देश आक्रोषित हुआ, तब महाशय ने वक्तव्य दिया कि, ‘कुछ भी हो जाए, पाकिस्तान से चर्चा जारी रखनी चाहिए. इस वक्तव्य के बाद ‘सोनी’ टीवी के एक कार्यक्रम से सिद्धू की हकालपट्टी कर दी गई और दबाव बनाकर मुहीम चलाई गई. लेकिन उसी दौरान उत्तर के एक भाजपा नेता नेपाल सिंह ने शहीद सैनिकों का अपमान किया. ‘सैनिक मरते हैं तो मरने दो, उन्हें इसी का तो वेतन मिलता है न? ऐसे फालतू बयान देनेवाला नेपाल सिंह आज भी भारतीय जनता पार्टी में है और उसपर कोई कार्रवाई नहीं हुई.''
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पुलवामा हमले में शहीद जवानों की अंतिम यात्रा में शामिल सत्ताधारी पार्टी के कुछ नेताओं के ‘हंसमुख’ चेहरे सोशल मीडिया पर वायरल हो गए हैं. फिर इस हमले के बारे में कोई कुछ न बोले. शांति रखो. कश्मीर हमले पर बोलना मतलब देशद्रोह है, मानों ऐसा प्रस्ताव ही कुछ लोगों ने रख दिया है. पर 2014 के पहले ऐसे हर आतंकी हमले के बाद मोदी और संघ परिवार ने उस समय मनमोहन सरकार पर जोरदार हमले किए और हर आतंकी हमले के लिए मनमोहन सिंह को जिम्मेदार ठहराया. ‘दिल्ली की सरकार के पास वो सीना नहीं है!’ ये शब्द वर्तमान प्रधानमंत्री के वर्ष 2014 से पहले के हैं. ऐसे में अगर कोई कहे कि आतंकवाद को समूल से नष्ट करने की जिम्मेदारी वर्तमान प्रधानमंत्री की है तो इस बात को समझना चाहिए. पुणे के नक्सलवादियों से प्रधानमंत्री की जान को खतरा है, ऐसा ‘ई-मेल’ हमारे गुप्तचर पकड़ लेते हैं और प्रधानमंत्री की जान बचाते हैं लेकिन 40 जवानों को ले जा रही बस पर दिन-दहाड़े हमला हो जाता है तो इसकी खबर नहीं लग पाती. विस्फोटकों से भरी एक गाड़ी जवानों की बस से टकरा दी जाती है.
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प्रधानमंत्री सहित अन्य वीआईपी लोगों की सुरक्षा की चिंता की जाती है लेकिन हमारे जवान आतंकी हमलों में जान गवां देते हैं. जवान मरने के लिए ही वेतन लेते हैं, ऐसे राजनीतिक वक्तव्य पर विश्वास होता है. आतंकवाद रोकनेवाली ‘छाती’ होने के बावजूद पठानकोट के बाद उरी का हमला हुआ और उरी हमले के बाद अब पुलवामा में हमला हुआ है. ‘पुलवामा’ मामले पर राजनीति न हो. 40 जवानों के शहीद होने के बाद देश में आक्रांत, आक्रोश और संताप का माहौल है फिर भी राजनीतिक सभाओं में उस समय कोई प्रचार का भाषण करता होगा तो उस पर टीका तो होगी ही. ये देशभक्ति निश्चित रूप से नहीं है. कुछ दिनों पहले राजनीतिक आरोप लगे कि चुनाव से पहले एकाध आतंकी हमला होगा और उसके बाद एकाध छोटे युद्ध खेलकर चुनाव जीते जाएंगे. सत्ताधीश ऐसा बर्ताव न करे कि इन आरोपों को बल मिले. लोगों के मन की सुलगती भावनाएं लावे की तरह फूटकर बाहर आ जाएंगी और उसे संभालना मुश्किल होगा. दंगे और आतंकी हमले चुनाव जीतने के साधन न बनें, ऐसा कोई कर रहा होगा तो उन सभी राजनीतिक पार्टियों को सद्बुद्धि दें!
यह पूरा आर्टिकल शिवसेना के मुखपत्र सामना में लिखा गया है.
Source : News Nation Bureau