अपने जमाने की मशहूर बॉलीवुड ऐक्ट्रेस मधुबाला (Bollywood Actress Madhubala) का जन्म भले ही एक मुस्लिम परिवार में हुआ हो लेकिन उनकी आस्था गुरुनानक देव के प्रति ज्यादा थी. गुरुनानक देव के लिए उनकी दीवानगी का ये आलम था कि आखिरी वक़्त तक मधुबाला के पर्स में 'जपुजी साहिब' की किताब मौजूद थी. इस किताब को मधुबाला हर रोज पढ़ती थी, जिसे पढ़कर उन्हें बेहद सुकून मिलता था. गुरुनानक देव के प्रति मधुबाला का प्यार यही तक सीमित नहीं था, बल्कि हर साल गुरुनानक देव जी के जन्मोत्सव यानी गुरुपर्व पर मुंबई के अंधेरी गुरुद्वारे भी उनके दर्शन करने जाती थी.
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मधुबाला जब अपने कैरियर की बुलंदी पर थीं, तब फ़िल्म निर्माताओं से उनकी एक ही शर्त होती थी कि वे पूरे साल देश-दुनिया में कहीं भी शूटिंग करती रहेंगी लेकिन गुरुनानक देव जी के जन्मोत्सव पर वह मुंबई के अंधेरी गुरुद्वारे में उनके दर्शन के लिए जरुर जाएंगी. अपनी इस शर्त को वे प्रोड्यूसर के साथ होने वाले एग्रीमेंट में भी लिखवा लेती थीं.
वहीं, मधुबाला के इस्लामिक होने के बावजूद उनकी गुरुनानक देव के लिए इस कदर की दीवानगी का खुलासा उस दौर के संगीत निर्देशक एस महेन्द्र ने किया था. एस महेन्द्र से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि, 'जब एक दिन किसी फ़िल्म के सेट पर अगले शॉट की तैयारी चल रही थी. इस दौरान खाली वक़्त में मधुबाला ने अपने पर्स में से एक छोटी-सी किताब निकाली और अपना सिर दुपट्टे से ढककर उसे पढ़ने लगीं. जब कुछ देर बाद उन्हें सीन शूट के लिए बुलाया गया तब वो अपना पर्स और वह किताब मेरे जिम्मे छोड़ शॉट देने के लिए चली गईं. जब मैनें किताब खोलकर देखी तो वह फारसी भाषा में लिखा जपुजी साहिब था.
वही शूटिंग से फ़्री होने के बाद महेंद्र ने जब मधुबाला से इस बारे में पूछा तो मधुबाला ने बताया, 'सब कुछ होने के बावजूद मैं भीतर से पूरी तरह टूट चुकी थी. तब एक दिन मेरे एक जानकार अंधेरी के गुरुद्वारे में ले गए. दर्शन के बाद वहां के ग्रंथी को जब मेरी परेशानी के बारे में बताया तो उन्होंने रोज जपुजी साहिब का पाठ करने का सुझाव दिया. चूंकि मुझे गुरमुखी नहीं आती, लिहाज़ा मैंने फारसी भाषा में छपी यह किताब मंगवाई. तबसे मैं इसे हर रोज पढ़ती हूं. वही इसको पढ़ने के बाद एक अजीब-सा सुकून व शांति मिलती है.'
वहीं, इस बारें में अंधेरी गुरुद्वारे के ग्रंथी बताते हैं कि, 1969 में अपनी मौत से सात साल पहले मधुबाला ने ये इच्छा जाहिर की थी कि वह गुरुनानक देव जी के जन्मोत्सव पर लंगर की सेवा देना चाहती हैं. उस दिन के लंगर पर जितना भी खर्च आता उसका चेक वह गुरुद्वारा कमेटी को दे देती और यह सिलसिला सात साल तक लगातार चलता रहा. वहीं, जब मधुबाला का निधन हो गया उसके बाद करीब छह साल तक उनके पिता ने यह सेवा संभाली.
बाद में जब मधुबाला के पिता भी गुजर गए तब गुरुद्वारा कमेटी और वहां के श्रद्धालुओं ने ये फैसला किया कि मधुबाला भले ही अब जीवित ना हो लेकिन गुरुनानक देव के प्रति उनकी श्रद्धा आज भी इस गुरुद्वारे में जीवंत है. लिहाजा हर साल गुरुनानक देव जी के जन्मोत्सव पर होने वाली अरदास में यह बोला जाता है, 'है पातशाह, आपकी बच्ची मधुबाला की तरफ से लंगर-प्रशाद की सेवा हाजिर है, उसे अपने चरणों से जोड़े रखना.'