भारतीय सिनेमा सबसे पुराने सिनेमा में आता है. आज हर कोई इसका हिस्सा बनना चाहता है. लेकिन इस सिनेमा को लाने वाले की पूरी कहानी क्या थी यह कोई नहीं जानता. दरअसल, दादा साहेब (Dadasaheb Phalke ) ने ही फिल्मों को पहचान दी थी. उनकी बदौलत ही आज हम फिल्म देखने और उसका हिस्सा बनने में कामयाब हैं. उन्होंने फिल्म बनाने में कितनी मेहनत की इससे बहुत ही कम लोग वाकिफ हैं. तो चलिए जानते हैं.
साल 1910 में बंबई के अमरीका-इंडिया पिक्चर पैलेस में ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ दिखाई गई थी. जिसको देखने के बाद लोग हैरान थे. जहां कई लोग दंग थे तो वहीं धुंदीराज गोविंद फाल्के ने यह तय किया कि वो भी भारतीय धार्मिक और मिथकीय चरित्रों को रूपहले पर्दे पर लाएंगे. वो फिल्म को बनाने के लिए इंग्लैंड जाकर कई सारी फिल्म से जुड़ी हुई मशीन लेकर आए. जिसके लिए उन्होंने अपना सारा पैसा दांव पर लगा दिया.
भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के ने इस वजह से खोई थी अपनी आंखें
इंग्लैंड पहुंचने के बाद फाल्के (Dadasaheb Phalke ) ने बाइस्कोप फिल्म पत्रिका की सदस्यता ली. दादा साहेब तीन महीने की इंग्लैंड यात्रा के बाद भारत लौटे. इसके बाद उन्होंने बंबई में मौजूद थियेटरों की सारी फिल्में देखी. दादा साहेब रोजाना शाम में चार से पांच घंटे सिनेमा देखा करते थे. उसके बाद वो फिल्म बनाने की उधेड़-बुन में लगे रहते थे. जिसके चलते उनकी आंखों की रोशनी चली गई. भारत की सबसे पहली फिल्म के जनक भी दादा साहेब थे. उन्होंने ही फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाई थी. जिसके सारा काम उन्होंने ही किया था. इसके बाद वो एक से बढ़कर एक फिल्म देते गए और फिर 1920 में उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म्स से इस्तीफा दे दिया. इसके साथ ही उन्होंने सिनेमा जगत से भी रिटायरमेंट लेने की घोषणा कर दी. आज उन्हीं के नाम से ही फिल्म जगत का सबसे महत्वपूर्ण अवॉर्ड दादा साहेब फाल्के दिया जाता है. यह हर कलाकार के लिए बेहद खास होता है.
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HIGHLIGHTS
- दादा साहेब फाल्के ने ही भारतीय फिल्मों को पहचान दी थी
- इंग्लैंड में फाल्के ने बाइस्कोप फिल्म पत्रिका की सदस्यता ली
- दादा साहेब रोजाना शाम में 4-5 घंटे सिनेमा देखा करते थे