महामारी में इस फिल्ममेकर ने खोया अपना थोड़ा सा स्वैग
फिल्मकार कहते हैं कि अपने बीमार पिता को गोद में लेकर आईसीयू की ओर भागना और फिर उन्हें मरते देखना, इन सब से वह काफी बदल गए हैं और वह अभी भी यह सब समझ नहीं पा रहे हैं कि यह सब कैसे हुआ
फिल्ममेकर सुधीर मिश्रा (Sudhir Mishra) को ऐसा लगता है कि महामारी ने उनके जीवन पर हमेशा के लिए प्रभाव छोड़ दिया है, और यह उनके लिए अच्छा नहीं है. फिल्मकार कहते हैं कि अपने बीमार पिता को गोद में लेकर आईसीयू की ओर भागना और फिर उन्हें मरते देखना, इन सब से वह काफी बदल गए हैं और वह अभी भी यह सब समझ नहीं पा रहे हैं कि यह सब कैसे हुआ. वहीं उनसे उनके प्रोजेक्ट के बारे में पूछे जाने पर मिश्रा ने मीडिया से कहा, 'आप जानते हैं, मनु जोसेफ (लेखक) ने एक बार मेरे बारे में एक लेख लिखा था और कहा था कि 'मैं कमजोर पुरुषों का कलेक्टर हूं.' अब, मैं खुद को महामारी के बाद और अधिक कमजोर देख रहा हूं.'
उन्होंने आगे कहा, "मैं उन चीजों पर ध्यान देना चाहता हूं, जिन पर मैं काम कर रहा हूं. मैं एक फिल्म पर काम कर रहा हूं, मैं एक स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूं, मैं ओटीटी के कुछ रूपों पर काम कर रहा हूं. एक ऐतिहासिक सीरीज है जिसे मैं फिर से लिख रहा हूं. इसलिए, बहुत काम है, लेकिन इन पांच या छह महीनों में, कुछ और कहानी उभरती हुई प्रतीत होती है और मैं इसे समझने की कोशिश कर रहा हूं."
उन्होंने आगे कहा, "मैं महामारी के इस पूरे अनुभव को नहीं समझ पा रहा हूं. मैंने अपना स्वैग थोड़ा खो दिया है. जब मैंने खुद को भयभीत देखा, तो अपने पिता को उठाकर एक आईसीयू की ओर भागा और फिर उन्हें मरते हुए देखा. इन सारी चीजों ने कुछ किया है. मुझे नहीं पता कि वास्तव में क्या है. यह मेरी अगली (परियोजना) में दिखाई देगा."
मिश्रा ने साल 1987 में 'ये वो मंजि़ल तो नहीं' के साथ शो के निर्देशक के रूप में उद्योग में प्रवेश किया था. उन्होंने सिनेमैटिक कैनवास पर विविध कहानियों के स्ट्रोक 'हजारों ़ख्वाहिशें ऐसी', 'चमेली', 'इंकार', 'खोया खोया चांद', 'कलकत्ता मेल','हॉस्टेजेस' के रूप में पेश किया.
उनकी सबसे हालिया परियोजना 'सीरियस मेन' थी, जो मनु जोसेफ की इसी नाम की पुस्तक का रूपांतरण है. इसमें नेटफ्लिक्स ओरिजिनल फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दीकी को दिखाया गया और इसकी कहानी एक ऐसै पिता के बारे में है जो अपने बेटे के लिए एक उज्जवल भविष्य बनाना चाहता है.
उन्होंने आगे कहा, "कहानी कहने का जादू यह है कि कभी-कभी आप एक दृश्य लिखते हैं और जब आप दृश्य को शूट करते हैं, तो कुछ होता है. आप नहीं जानते कि यह कहां से आया है. आप सोचते हैं कि 'मैंने यह कैसे लिखा?', 'यह कहां से आया?' और यह कहानी कहने का जादू है, और फिर जब यह लोगों तक पहुंचता है, तो लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं होती हैं."