कई फिल्मों में गुस्सैल और सख्त मिजाज तो कई फिल्मों में सौम्य और मजाकिया अंदाज में नजर आ रही महिलाओं ने विभिन्न भूमिकाओं के साथ हिंदी सिनेमा जगत में खुद को अलग पहचान के साथ स्थापित कर लिया है. महिलाओं को एक ही तरह की भूमिका में ढालने का चलन अब बंद हो गया है और यह सब मुमकिन हो पाया है महिला लेखकों, फिल्मकारों और उन दर्शकों की वजह से जो ऐसे किरदारों को देखने के लिए पैसा खर्च कर रहे हैं और उन्हें सुन रहे हैं. सई परांजपे और कल्पना लाजमी जैसी लेखिकाओं-फिल्मकारों ने 80 के दशक में स्पर्श और एक पल जैसी फिल्मों के साथ उस वक्त के सिनेमा में पुरुष प्रधान भूमिकाओं के चलन को तोड़ा तो आज की लेखिकाएं और फिल्मकार इस माध्यम का इस्तेमाल अपनी राय एवं महत्त्वकांक्षाओं को सामने रखने के साथ ही आज के समाज को दर्शाने के लिए कर रही हैं.
इस साल के शुरुआती दो महीनों में फिल्मकार मेघना गुलजार - अतिका चौहान की फिल्म छपाक, अश्विनी अय्यर तिवारी और निखिल मेहरोत्रा की पंगा और निर्देशक अनुभव सिन्हा और मृण्मयी लागू वायकुल की थप्पड़ रिलीज हुई. ये सभी बॉलीवुड की मुख्यधारा की फिल्में थीं जिनमें महिला लेखक टीम की हिस्सा थीं. दीपिका पादुकोण अभिनीत छपाक तेजाब हमले के विषय पर बनी थी, वहीं कंगना रनौत अभिनीत पंगा शादी और मां बनने के बाद एक महिला के काम पर लौटने पर आधारित थी. फिल्म थप्पड़ घरेलू हिंसा और सभी तरह की परिस्थितियों में सम्मान के लिए एक गृहिणी के संघर्ष को दिखाती है.
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थप्पड़ ने साबित किया यही लैंगिक भेदभाव रहित कहानियों का सही वक्त
हिंदी फिल्म उद्योग की महिला लेखकों का मानना है कि समावेशी, संवेदनशील और लैंगिक भेदभाव रहित कहानियों को दिखाने का यह सही वक्त है. मृण्मयी को उम्मीद है कि थप्पड़ की सफलता उन कहानियों को बताना आसान बनाती हैं जो उनकी दुनिया से जुड़ी हुई हैं. पटकथा लेखिका कनिका ढिल्लन जिन्होंने मनमर्जियां और जजमेंटल है क्या जैसी फिल्मों में महिलाओं के लिए जुदा पात्र लिखे हैं, का कहना है कि महिलाएं उनकी बात और नहीं सुने जाने के लिए अब तैयार नहीं हैं.
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बॉलीवुड की शुरुवात में था महिलाओं का दबदबा
फातिमा बेगम, जद्दन बाई और देविका रानी जैसी अदाकाराओं के साथ 1930 के दशक का शुरुआती वक्त महिलाओं के दबदबे वाला बॉलीवुड 1950 के दशक तक आते-आते पुरुषों के वर्चस्व वाला बन गया जहां हिंदी फिल्म की अभिनेत्रियां संकट में फंसी युवतियों की भूमिका निभाने तक सीमित थीं. इसके चलते कैमरा के पीछे भी महिलाओं के लिए अवसरों की कमी हो गई. 1970 के दशक में समानांतर सिनेमा आंदोलन ने महिलाओं की पर्दे पर वापसी का संकेत दिया और धीरे-धीरे महिला प्रतिभाओं का फिल्म निर्माण के तकनीकी क्षेत्र में योगदान बढ़ा.
2000 के दशक के बाद फिर महिलाओं का बढ़ा दबदबा
इस युग में कोरियोग्राफी, कला निर्देशन एवं लेखन क्षेत्रों में महिलाओं की भूमिका बढ़ी लेकिन फिल्म निर्देशन अब भी मुख्यतः पुरुषों का ही क्षेत्र माना जाता था. 2000 का दशक आते-आते यह स्थिति बदलने लगी जहां मेघना, तनुजा चंद्रा, देविका भगत, भवानी अय्यर और जूही चतुर्वेदी जैसे फिल्मकार और लेखक वास्तविक और तह तक जाने वाली कहानियों को सामने लाने लगीं. फिल्में भले ही कम थीं लेकिन उनका प्रभाव बड़ा था क्योंकि इन महिला लेखकों के काम ने कई और को आगे आने की प्रेरणा दी. विकी डोनर, पीकू और अक्टूबर जैसी फिल्मों की लेखिका जूही ने कहा कि वह जेंडर के चश्मे से अपनी कहानियों को वर्गीकृत करना पसंद नहीं करती हैं. उनका कहना है कि मेरे दिमाग में हर वक्त मेरा जेंडर नहीं रहता...एक विचार ज्यादा अहम है.