मोदी 2.0 सरकार में गृह मंत्री का पदभार संभालते ही अमित शाह 'मिशन कश्मीर' मोड में चल रहे हैं. बीते कई दिनों से जम्मू-कश्मीर में बदले-बदले से हालात साफतौर पर इशारा कर रहे हैं कि अमित शाह दशकों से अशांत चल रहे जम्मू-कश्मीर को लेकर किसी खास निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं. जाहिर है उन्हें इस मसले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन हासिल है. संभवतः यही वजह है कि जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक पार्टियां तरह-तरह की आशंका जाहिर कर केंद्र को धारा 370 समेत 35-ए समेत परिसीमन से जुड़े मसले पर लगभग 'धमका' रही हैं.
केंद्र को 'धमका' रही जम्मू-कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियां
गौरतलब है कि रविवार को भी जम्मू-कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियों ने राज्य को विशेष दर्जे की गारंटी देने वाले संवैधानिक प्रावधानों को रद्द करने या राज्य को तीन हिस्सों जम्मू, लद्दाख और कश्मीर में बांटने की कोशिश से जुड़े किसी कदम का विरोध करने का सर्वसम्मत संकल्प लिया. नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने बैठक में स्वीकार किए गए प्रस्ताव के हवाले से कहा कि पार्टियों ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राजनीतिक दलों के नेताओं से मिलने के लिए प्रतिनिधिमंडल भेजने तथा संविधान के अनुच्छेद 370 और 35 ए को रद्द करने की किसी कोशिश के परिणामों से उन्हें अवगत कराने का फैसला किया है.
परिसीमन आयोग का गठन संभव
इस बीच इस चर्चा ने बहुत जोर पकड़ लिया है कि केंद्र एक परिसीमन आयोग बनाएगा, जो जम्मू-कश्मीर राज्य का आबादी के लिहाज से नए सिरे से परिसीमन करेगा. यानी कि आबादी के हिसाब से नए सिरे से विधानसभा सीटों की संख्या तय की जाएंगी. अगर ऐसा होता है तो फिर जम्मू क्षेत्र में ज्यादा सीटें हो जाएंगी, जहां हिंदू बहुल आबादी है. ऐसे में जम्मू-कश्मीर को अगला हिंदू मुख्यमंत्री मिल सकेगा. यही बीजेपी की भी इच्छा है. जम्मू-कश्मीर में अक्टूबर-नवंबर के महीने में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं. ऐसे में पहले परिसीमन और फिर चुनाव में राज्य की कानून-व्यवस्था खराब न हो, इसके लिए अतिरिक्त जवानों की तैनाती की गई है. सवाल यह उठता है कि जम्मू और कश्मीर में आखिर परिसीमन जरूरी क्यों है? विद्यमान परिस्थितियों में इसे समझने की कोशिश करते हैं
भौगोलिक बंटवारा
जम्मू और कश्मीर के भौगोलिक नक्शे के मुताबिक राज्य का 58 प्रतिशत भू-भाग लद्दाख है. बौद्ध बहुल इस क्षेत्र में आतंकवाद का कोई नामलेवा नहीं है. इसके बाद राज्य में 26 प्रतिशत भू-भाग जम्मू का है, जो कि हिंदू बहुल है. यहां भी आतंकवाद की भागीदारी इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़ दें तो लगभग शून्य ही है. अब बचती है कश्मीर घाटी, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 16 फीसदी हिस्सा है. यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र है. इस भौगोलिक नक्शे के अनुसार यदि जम्मू और लद्दाख को मिला दिया जाए तो जम्मू-कश्मीर का 84 प्रतिशत क्षेत्र हिंदू और बौद्ध बहुल हो जाता है. इस आधार पर महज 16 प्रतिशत क्षेत्र ही मुस्लिम बहुल बचेगा. यहां यह गौर करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि 84 फीसद हिंदू-बौद्ध आबादी होने के बावजूद राज्य की राजनीति पर अब तक 16 प्रतिशत यानी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं का ही कब्जा है.
यह भी पढ़ेंः जम्मू-कश्मीर को लेकर सहमा शेयर बाजार, सेंसेक्स 450 प्वाइंट लुढ़का, निफ्टी 10,850 के नीचे
अलगाववाद-आतंकवाद प्रभावित जिले
अगर देखें तो आतंकवाद प्रभावित घाटी में 10 जिले आते हैं. इनमें से 4 जिले ही ऐसे हैं, जहां अलगाववादी और आतंकवादी काफी सक्रिय हैं. ये जिले हैं शोपियां, पुलवामा, कुलगांव और अनंतनाग. अगर इन चार जिलों को अलग कर दिया जाए तो संपूर्ण घाटी और जम्मू आतंकवाद और अलगाववाद से मुक्त है. हालांकि मुस्लिम वर्चस्व वाली राजनीति से लगता यही है कि पूरा का पूरा जम्मू-कश्मीर राज्य आतंकवाद से ग्रस्त है.
जनसंख्या में राजनीतिक भेदभाव
जनसंख्या गणना 2011 के मुताबिक जम्मू-कश्मीर की कुल जनसंख्या 1.25 करोड़ है. 2001 में हुई जनगणना के लिहाज से दस सालों में 24 लाख की आबादी बढ़ी है. 2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य में 12,541,302 की कुल जनसंख्या में 6,640,662 पुरुष और 5,900,640 महिलाएं हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में कश्मीर घाटी और जम्मू के बीच मतदाताओं की संख्या में कुछ लाख का ही फर्क था. गौर करने वाली बात यह है कि कश्मीर और लद्दाख को मिलाकर जब जम्मू में ज्यादा वोटर थे तो फिर भी कश्मीर के हिस्से में ज्यादा विधानसभा सीटें क्यों हैं?
यह भी पढ़ेंः सस्पेंस बरकरार : सिर्फ इन्हें पता है कि जम्मू और कश्मीर में आखिर क्या होने वाला है
परिसीमन की राजनीति
दरअसल, परिसीमन का आधार ही जनसंख्या होता है. ज्यादा जनसंख्या वाले क्षेत्र में ज्यादा विधानसभा सीटें होना चाहिए थीं. लेकिन जम्मू-कश्मीर में ऐसा नहीं है. संविधान में प्रत्येक 10 वर्ष में परिसीमन का प्रावधान है, लेकिन राजनीति के चलते इस राज्य में ऐसा हो नहीं सका. यही वजह है कि राज्य की राजनीति में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार ही बारी-बारी काबिज होती आई है.
बहुमत का सरलीकरण
जम्मू और कश्मीर में कुल 111 विधानसभा सीटें हैं. फिर भी विधानसभा में कुल 87 सीटों पर चुनाव होता है, जिसमें से 46 सीटें कश्मीर में, 37 सीटें जम्मू में और 4 सीटें लद्दाख में हैं. 24 सीटें वह हैं जो पाक अधिकृत जम्मू और कश्मीर में हैं, जहां चुनाव नहीं होता है. वर्तमान में 87 विधानसभा सीटों में से बहुमत के लिए 44 सीटों की जरूरत होती है. कश्मीर में 46 सीटें हैं जहां से ही बहुमत पूर्ण हो जाता है. संविधान के अनुच्छेद 47 के मुताबिक 24 सीटें खाली रखी जाती हैं. जम्मूवासी चाहते हैं कि ये 24 सीटें जम्मू में जोड़ दी जाएं. गौरतलब है कि 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी यहां से कुल 37 में से 25 सीटें जीत चुकी है.
यह भी पढ़ेंः क्या है Article 35-A? इसके हटने से क्या बदलाव देखने को मिलेगा, पढ़ें पूरी Detail
शेख अब्दुल्ला की राजनीति
1947 में जन्मू और कश्मीर का भारत में कानूनी रूप से विलय हुआ था. उस समय जम्मू और कश्मीर में महाराजा हरिसिंह का शासन था. दूसरी ओर कश्मीर घाटी में मुस्लिमों के बीच उस वक्त शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता थी, जबकि महाराजा हरिसिंह की जम्मू और लद्दाख में लोकप्रियता थी. इसके बावजूद शेख अब्दुल्ला को जवाहरलाल नेहरू का वरदहस्त प्राप्त होने से पंडित नेहरू ने राजा हरिसिंह की जगह शेख अब्दुल्ला को जम्मू और कश्मीर का प्रधानमंत्री बना दिया. प्रधानमंत्री बनने के बाद 1948 में शेख अब्दुल्ला ने राजा हरिसिंह की शक्तियों को समाप्त कर दिया. इसके बाद मनमानी करते हुए शेख अब्दुल्ला ने 1951 में जम्मू और कश्मीर विधानसभा गठन की प्रक्रिया शुरू होते ही कश्मीर घाटी को 43 विधानसभा सीटें, जम्मू को 30 विधानसभा सीटें और लद्दाख को सिर्फ 2 विधानसभा सीटें दीं. इस तरह से जनसंख्या में अनुपात ज्यादा होने के बावजूद कश्मीर को जम्मू से 13 विधानसभा सीटें ज्यादा मिली. 1995 तक जम्मू और कश्मीर में यही स्थिति रही.
आखिरी परिसीमन 1995 में
1993 में जम्मू और कश्मीर के परिसीमन के लिए एक आयोग गठित किया गया. 1995 में परिसीमन की रिपोर्ट को लागू किया गया. पहले जम्मू और कश्मीर की विधानसभा में कुल 75 सीटें हुआ करती थीं, लेकिन परिसीमन के बाद 12 सीटें और बढ़ा दी गईं. इस तरह अब विधानसभा में कुल मिलकर 87 सीटें हो गईं. इनमें कश्मीर के खाते में 46, जम्मू के खाते में 37 और लद्दाख के खाते में 4 सीटें आईं. तब भी कश्मीर घाटी को जम्मू से ज्यादा सीटें मिलीं.
यह भी पढ़ेंः पाकिस्तान सीमा पर भी 25 हजार भारतीय जवानों की तैनाती, कश्मीर-राजस्थान में कड़ी चौकसी
राजनीति में कश्मीर का दबदबा
इस तरह देखा जाए तो जम्मू और कश्मीर की राजनीति में आज तक कश्मीर का ही दबदबा बना हुआ है. विधानसभा में कश्मीर की विधानसभा सीटें जम्मू के मुकाबले ज्यादा हैं. ऐसे में सरकार कश्मीर से और कश्मीर की ही बनती है जम्मू से या जम्मू की नहीं. सरल शब्दों में कहें तो जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला और मुफ्ती मोहम्मद सईद (महबूबा मुफ्ती) के परिवार का ही दबदबा है. दोनों परिवार बारी-बारी जम्मू और कश्मीर पर विधानसभा के इसी गणित के आधार पर राज करते रहे हैं. इस राज को आगे भी जारी रखने के लिए ये दोनों ही परिवार नहीं चाहते थे कि कभी परिसीमन हो. इसीलिए दोनों ही दस वर्ष में राज्य में परिसीमन कराने के प्रावधान को टालते आए हैं.
अब्दुल्ला सरकार की साजिश
एक खतरनाक साजिश के तहत 2002 में नेशनल कांफ्रेंस की अब्दुल्ला सरकार ने विधानसभा में एक कानून लाकर परिसीमन को वर्ष 2026 तक रोक दिया. इसके लिए अब्दुल्ला सरकार ने जम्मू एंड कश्मीर रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट 1957 और जम्मू और कश्मीर के संविधान के सेक्शन 42 (3) में बदलाव किया था. सेक्शन 42 (3) के बदलाव के तहत 2026 के बाद जब तक जनसंख्या के सही आंकड़े सामने नहीं आते तब तक विधानसभा की सीटों में बदलाव करने पर रोक रहेगी. वर्ष 2026 के बाद जनगणना के आंकड़े वर्ष 2031 में आएंगे. इस लिहाज से देखें तो जम्मू और कश्मीर की विधानसभा के विधेयक के अनुसार 2031 तक परिसीमन टल चुका है. परिसीमन में सबसे बड़ी रुकावट फारूक अब्दुल्ला सरकार का यह विधेयक ही है. इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई, जिसे खारिज कर दिया गया.
यह भी पढ़ेंः नजरबंद हुए उमर अब्दुल्ला के समर्थन में आए कांग्रेस नेता शशि थरूर, ट्वीट कर कही ये बात
बीजेपी की सोच
इसीलिए बीजेपी परिसीमन की बात करती है और मोदी 2.0 सरकार इसके लिए परिसीमन आयोग के गठन पर भी काम कर रही है. हालिया स्थिति में विधानसभा में जम्मू की भागीदारी कम होने से जम्मू और लद्दाख के हितों को ताक में रख दिया जाता है. जो भी नियम, कानून या योजना बनती है वह कश्मीर की जनता के लिए बनती है और ऐसे में जम्मू की आवाज को सुनने वाला कोई नहीं है. अब यदि परिसीमन होता है तो जम्मू और लद्दाख की विधानसभा सीटें बढ़ जाएंगी और अगर ये बढ़ गईं तो विधानसभा में जम्मू और लद्दाख का भी वर्चस्व रहेगा. ऐसे में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार की राजनीति लगभग खत्म हो जाएगी. साथ ही अलगाववादी शक्तियां भी कमजोर हो जाएंगी और जम्मू और कश्मीर में राष्ट्रवादी शक्तियां बढ़ जाएंगी. इस सच्चाई को समझते हुए भी महबूबा मुफ्ती या फारुक-उमर अब्दुल्ला परिसीमन का विरोध कर रहे हैं. इसके विपरीत बीजेपी परिसीमन करा विधानसभा सीटों के आधार पर इन दोनों ही परिवारों को जम्मू-कश्मीर की राजनीति में हाशिये पर धकेल देना चाहती है.
HIGHLIGHTS
- हालिया स्थिति में जम्मू की भागीदारी कम होने से जम्मू और लद्दाख के हित ताक पर.
- नए सिरे से परिसीमन होने पर जम्मू की सीटें बढ़ेंगी. उसे लद्दाख का समर्थन बी मिलेगा.
- ऐसे में जम्मू-कश्मीर की राजनीति से अब्दुल्ला-मुफ्ती परिवार किनारे हो जाएगा. यही है विरोध का कारण.