जयललिता दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु की मुख्यमंत्री। रजत पट की अभिनेत्री और अभिनेता से नेता बने एमजीआर की विरासत संभालने वाली नेत्री। भ्रष्ट्राचार के आरोपों से घिरी। उत्तर भारतीयों के किसी भी दक्षिण भारतीय मुख्यमंत्रियों के जितना परिचय। अखबारों और टीवी चैनलों में अपने दत्तक पुत्र ( शशिकला के बेटे) की भव्यतम शादी में पैसे को पानी में बदल देने वाली राजनेता के तौर पर ही जानता था।
दिल्ली में पत्रकार के तौर काम की शुरूआत करने तक कुल मिलाकर अम्मा से मेरा परिचय इतना ही था। पुरचि तलवि , अम्मा या फिर देवी अम्मा के उपनाम अलग-अलग समय अपने लिए रटा हुआ। सुप्रीम कोर्ट में एक सुनवाई के दौरान वेणुगोपाल को उनकी ओर से बहस करते हुए देखा। वेणुगाोपाल सुप्रीम कोर्ट के कुछ तीखे सवालों का असहज हो कर जवाब दे रहे थे। पीपुल्स रिप्रेजेंसेटन एक्ट में और भ्रष्टाचार के बीच समन्वय करने की कोशिशों से जूझते हुए जयललिता के वकील के विफल प्रयासों को देखा। और फिर भूल गया। जैसे कि ज्यादातर दिल्ली में देश की पत्रकारिता करने वाले पत्रकार करते है। अमेरिका और इंग्लैड के राजनीतिक भूगोल और अर्थव्यवस्था पर ज्यादा अधिकार से बोलने वाले दिल्ली के पत्रकार शायद दक्षिण भारत के बारे अपनी जानकारी सिर्फ कुछ मैगजीन या फिर उधर के कुछ अखबारों के आर्टिकल्स के अलावा जमीन पर कम ही जानते थे।
दिल्ली से एक स्टिंग के लिए चैन्नई में गया। और फिर तमिलनाडु के अलग-अलग इलाकों में घूमकर देखता रहा। दक्षिण भारत को किताबों के बाहर खुद से जीता-जागता हुए देखना। एक दम नया अननुभव । अपने ही देश में एक प्राण होने वाले लोगों को करीब से देखना एक अजनबी की नजर से। देश को लेकर किताबों की रटी-रटाई कहानियों से बाहर आकर देखना। आज भी वो अनुभव देश को और उसके इतिहास को लेकर लिखी गई कहानियों के बीच सच देखने की दृष्टि देता है। फिर कई बार गया। चैन्नई के अस्पतालों में किडनी बेचते हुए गरीबों और मजबूरों को देखा। उनकी किडऩी खरीद कर पैसे के दम पर सिस्टम को चोट पहुंचाते या फिर चांदी के जूते से कानूनों को पीटते हुए लोगों को देखा।
चैन्नई के चार बड़े हॉस्पीटल्स में किस तरह से लोग भरे हुए थे। तमिलनाडु हो या फिर आंध्र . कर्नाटक, गुजरात और महाराष्ट्र के लोगों वहां किडनी बेचते हुए दिख रहे थे।
फिर कई बार तमिलनाडु गया। हर बार एक नया अनुभव। और फिर 2014 में एक स्टिंग्स के चलते तमिलनाडु जाना हुआ। मेरे चैनल की युवा रिपोर्टर ने तमिलनाडु की एक बेहद कुत्सित पंरपरा के बारे में जानकारी दी और उसका स्टिंग्स करने का सुझाव दिया। तमिल न जानने के लिए मेरा रोल बहुत कुछ इस स्टिंग्स में नहीं था। मेरी रिपोर्टर और स्थानीय कैमरामेन ही इस स्टिंग्स के फील्ड में थे और मैं सिर्फ फुटेज के आने के बाद उसके ऐंगल और सवाल जवाब को पूछ कर आगे की योजना बनाने तक सीमित हो गया था। लेकिन इसी यात्रा ने मुझे जयललिता से मिलवाया। उस जयललिता से जिसके जाने पर आज तमिलनाडु शोक में डूबा हुआ है। और ये यात्रा किसी महानगर के आसपास नहीं घूमी। इस यात्रा का दायरा चैन्न्ई से साढे छह सौ किलोमीटर दूर था। रामनाथनपुरम जिले तक फैला हुआ। मदुराई, शिवकाशी, त्रिचि जैसे शहरों को पार करता हुआ विरुधनगर तक जा पहुंचा।
यात्रा में सड़कों को देखकर लगा कि क्या ये देश के किसी राज्य में इतनी सफाई से हुआ है कि नहीं। हाईवे पर कार में पानी से भरे हुए गिलास को रखकर यात्रा करने का अनुभव हासिल किया जा सकात था। गड्ढे भरी सड़कों के आदी उत्तर भारतीय को टोल पर लगने के बावजूद कही से भी झोट्टा बुग्गी का आना .यहां आपको कही दिखाई नहीं दिया। फिर लोगों से बात करना शुरू किया। टूटी फूटी हिंदी में उनके जवाब या फिर अंग्रेजी के सहारे टूटा फूटा संवाद और इससे झरती एक मुख्यमंत्री के राज्य को बदलने की कहानी।
सड़कों के किनारे बने होटलों या दुकानों पर बिकता हुआ दस रूपए का अम्मा नीर। किस तरह से रेलवे नीर की कहानी से उलट एक सफल कहानी। बेहद खुबसूरत बोतल में बंद क्वालिटी में किसी से कम नहीं और रेट सिर्फ दस रूपए। बिसलेरी, किनले या ऐसी ही दूसरी कंपनियों के बीच शान से बिकता हुआ। राज्य सरकार ने कंज्यूमर को एक विकल्प के तौर दिया ये साफ पानी लगभग आधे मूल्य पर उपलब्ध कराया।
चैन्नई में ट्रैफिक बदलाव की कहानियां और शहर के अंदर सफाई की कहानी तो लगा कि ठेकेदारों को ताकत से हुआ होगा। लेकिन रास्ते भर के शहरों में सफाई और मदुरई जैसे विश्वप्रसिद मंदिर में व्यवस्था का आलम देख कर लगा कि राज्य में सिस्टम वाकई काम कर रहा है। विरुदनगर में आदत के मुताबिक पैदल घूम रहा था तो अम्मा रसोई में भी गया। पांच रूपए में भरपेट भोजन का वादा। अंदर सिर्फ रसोई देखने गया। सफाई से तैयार हो रहा खाना। एक रूपए में इडली। ये सब देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं था। काम में लगे हुए कर्मचारियों के रवैये से कही ये नहीं लग रहा था कि जैसे वो किसी भूखे नंगों को सरकारी खजाने से खिलाने के लिए जबरदस्ती काम कर रहे है। पता चला कि किसी भी रसोई में जाईये क्वालिटी के लिए विशेष इंतजामात किए गये है।
सफाई से खाना परोसा जाएं इस बात के लिए अधिकारियों को जिम्मेदार बनाया गया है। एक दम से लगा कि दिल्ली में बैठकर एक राय बनाना और लोगों के बीच जाकर देखना दोनों अलग किस्म की कहानी है। फिर तो अम्मा की दूसरी तमाम योजनाओं पर बात हुई । पता चला कि कानून व्यवस्था में भी ऐसी ही साफगोई बरती जाती है। अम्मा तक पहुंच को लेकर बेहद संकरा रास्ता होने के चलते ऐसे लोगों की तादाद कम जो कानून व्यवस्था में अपना दवाब डाल सके। अस्पतालों में दवाईयों के वितरण की व्यवस्था भी देखी तो लगा कि काम हो रहा है। तमाम दवाईंया तो नहीं लेकिन ज्यादातर दवाईंया हॉस्पीटल से ही मरीजों को दी जा रही है।
औद्योगिक व्यवस्था में आंक्ड़ों ने दिखाया कि काम चल रहा था। इतना सब देखने के बाद लगभग दस दिन बाद जब लौट रहा था तो बस एक ही बात मेरे पास कहने के लिए थी कि काश जयललिता के इस काम को बाकि देश में एक मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता। जयललिता का एक चेहरा हम लोगों ने मीडिया के सहारे ही देखा लेकिन बदलाव की इस कहानी को हम देखने से चूक गए।
ये एक स्टारडम में बंधी हुई जिद्दी अभिनेत्री के ममतामयी अम्मा में बदलने की कहानी थी। और ये कहानी थी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई एक अकेली अहम में डूबी फिल्मी हीरोईन के राज्य को परिवार मान लेने की कहानी। हां एक बात उनके बारे में जो मैं शायद कभी नहीं जान पाऊंगा वो ये कि अपने आप को अकेलेपन के अंधेरों में रखने वाली जयललिता राज्य के गरीबों की जिंदगी में उल्लास का गीत कैसे रच सकी थी। और लगता है कि अम्मा ने जब अलविदा किया तो उस वक्त तक वो इतनी बड़ी अभिनेत्री बन चुकी थी कि किसी भी डॉयरेक्टर की लिखी गई स्क्रिप्ट को धता बता कर अपनी ही कहानी पर अभिनय कर रही थी और हम लोग फिल्म देखने की बजाय डॉयरेक्टर की स्क्रिप्ट ही पढ़ रहे थे। अलविदा अम्मा... एक नई दुनिया में शांति की यात्रा के लिए।
Source : Dhirendra Pundir