सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के वंशज एवं वंशानुगत सज्जादानशीन दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान ने रविवार को कहा, 'शांति के माहौल को कमजोर करने वाली किसी भी चीज का इस्लाम में कोई स्थान नहीं है. उन्होंने एक बयान में कहा कि हिंसा (Violence) से किसी समस्या का समाधान नामुमकिन है. उन्होंने कहा कि राजनीतिक स्वार्थ के चलते समाज को खतरों का भय दिखाकर देश की मुख्यधारा से भटकाने की साजिश को पहचाने की आवश्यकता है.
आबेदीन अली खान रविवार को सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के 808 वें उर्स पर देश भर की प्रमुख दरगाहों के सज्जादानशींनो सूफियों एवं धर्म प्रमुखों की वार्षिक सभा को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने देश के मौजूदा हालात पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि आज देश में हिंसा एवं आक्रामकता का बोलबाला है. उन्होंने कहा कि जब इस तरह की अमानवीय एवं क्रूर स्थितियां समग्रता से होती हैं तो उसका समाधान भी समग्रता से ही खोजना पड़ता है.
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हिंसक परिस्थितियां एवं मानसिकताएं जब प्रबल हों तो अहिंसा का मूल्य स्वयं बढ़ जाता
उन्होंने कहा कि हिंसक परिस्थितियां एवं मानसिकताएं जब प्रबल हों तो अहिंसा का मूल्य स्वयं बढ़ जाता है. उन्होंने कहा कि हिंसा कैसी भी हो, अच्छी नहीं होती. उन्होंने कहा कि राजनीतिक स्वार्थ के चलते किस्म.किस्म के खतरों का भय दिखाकर समाज को मार्ग से उतारने का काम एक लंबे अरसे से चला आ रहा है जबकि यह नकारात्मक राजनीति बर्बादी का रास्ता है लेकिन दुर्भाग्य से यह नकारात्मक राजनीति शिक्षा संस्थानों में भी देखने को मिल रही है.
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नकारात्मक राजनीति में फंसा कोई समाज ढंग से तरक्की नहीं कर सकता
उन्होंने कहा कि नकारात्मक राजनीति में फंसा कोई समाज ढंग से तरक्की नहीं कर सकता. उन्होंने कहा कि समाज को समृद्ध करने वाले शिक्षा संस्थान आज राजनीतिक टकराव और अशांति का केंद्र बन रहे है जबकि इस्लाम में शांति को सबसे बड़ी अच्छाई कहा गया है. उन्होंने कहा कि हर भारतीय को ख़ास तौर से देश के मुसलमानों को सकारात्मकता की डोर थामने की जरूरत है और साथ ही ऐसे ख़ुदगर्ज नेताओं और स्वार्थी तथाकथित धर्म के ठकेदारो से खुद को बचाने की भी ज़रूरत है जिन्हें समाज की कम और अपने स्वार्थ की चिंता ज्यादा है. खान ने कहा कि शांति के माहौल को कमजोर करने वाली किसी भी चीज का इस्लाम में कोई स्थान नहीं है. उन्होंने कहा कि सूफियों के प्यार भरे सन्देश की ही कशिश है कि आज भी देश में ऐसी सैंकड़ों दरगाहें हैं जिनकी देख रेख गैर मुस्लिम कर रहे हैं. इस सूफी परंपरा का साम्प्रदायिकरण करना गलत है.