सन् 1980 के दशक में जब पूर्व भगवाधारी अरुण शौरी ने बांग्लादेशी मुस्लिमों सहित असम में अवैध प्रवासियों पर अपने आलेखों से हलचल पैदा की, तब से भाजपा ने इस मुद्दे के जरिए अपना राष्ट्रवादी झंडा फहराने के लिए इन्हें देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताया है और यह पार्टी की विश्वव्यापी मुस्लिम विरोधी छवि में खूब झलकता है।
असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के ताजा विवाद को भी इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। हालांकि, ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (एएएसयू) ने 1980 के दशक में विदेशी विरोधी आंदोलन शुरू किया था, जिसे अब भाजपा और उसके सहयोगी दल असम गण परिषद (एजीपी) राज्य में जारी रखे हुए हैं।
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विदेशियों के प्रवासन की समस्या का समाधान हालांकि सरल नहीं है। असम शुरू से ही शरणार्थियों का प्रांत रहा है, अंग्रेजों के राज में यहां के चाय बागानों के लिए मजदूरों को बिहार के जनजातीय क्षेत्रों से लाया जाता रहा और बंटवारे से पहले की अवधि के दौरान पूर्वी बंगाल के किसानों को खेती के लिए राज्य में ही बसने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा। इस तरह असम कई समुदायों का ठिकाना बन गया।
हालांकि, नागरिक युद्ध और खूनखराबे को लेकर ममता बनर्जी के बयान अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। उनके इस तरह के बयान का उद्देश्य दरअसल पश्चिम बंगाल में और देशभर में अपने मुस्लिम और उदारवादी समर्थकों के बीच अपनी छवि मजबूत करना है, ताकि उनकी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को इससे फायदा पहुंचे।
हालांकि, असम के 1985 में हुए समझौते के मुताबिक, विदेशियों की पहचान कर उनके निर्वासन को लेकर उथल-पुथल भरे नतीजे तो लगभग निश्चित ही है। इसकी नाकामी कांग्रेस द्वारा मुस्लिमों के तुष्टिकरण की वजह से नहीं है, जैसा कि भाजपा आरोप लगाती है। इसे लेकर सतर्कता बरते जाने की जरूरत है।
इसी तरह की सलाह अब सर्वोच्च न्यायालय भी दे रहा है, जिसके तहत नागरिकों की गणना हो रही है। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी आश्वासन दे रहे हैं कि एनआरसी मसौदे से बाहर रखे गए 40 लाख लोगों को सभी तरह के अवसर दिए जाएंगे।
इसके विपरीत भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने इन 40 लाख लोगों को घुसपैठिया कह दिया है, जबकि एडवोकेट जनरल ने सर्वोच्च अदालत को बताया है कि इनकी बायोमीट्रिक जानकारी इकट्ठी की जाएगी, ताकि इन्हें अन्य राज्यों में नहीं बसाया जा सके, लेकिन इसमें अति क्या है।
भाजपा के नेताओं ने अन्य राज्यों विशेष रूप से पश्चिम बंगाल के संदर्भ में भी इसी तरह की बातें की। जहां ऐसा माना जाता है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों की अधिक संख्या है।
ऐसा लगता है कि एनआरसी के अंतिम मसौदे के तैयार होने से पहले भाजपा इसे विदेशियों को लेकर देश के लोगों के मन में एक डर का माहौल बनाना चाहती है। पार्टी का विश्वास है कि इस तरह के आरोपों से उन्हें आगामी चुनावों में मदद मिलेगी, जबकि उनकी विरोधियों पार्टियों को लगता है कि इस डर से अल्पसंख्यक लोग धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को समर्थन देंगे। दोनों धड़ों के लिए लोगों की यह व्यथा कुछ नहीं, बल्कि उनका चुनावी चारा है।
दूसरी तरफ, ऐसा कोई संकेत नहीं है कि भाजपा सोशल मीडिया पर बिना माहौल बनाए आम नागिरकों से अवैध शरणार्थियों को अलग करने की मुश्किल को समझने की इच्छुक है। यह काम बांग्लादेश के मुस्लिमों को असम के मुस्लिमों से अलग करने की वजह से और पेचीदा बन जाता है, क्योंकि इन दोनों के बीच इनकी जीवनशैली और बोलचाल को लेकर मामूली अंतर है, विशेष रूप से जब कागजाती कार्यवाही उपलब्ध होने के बावजूद हमेशा भरोसेमंद नहीं रहती।
इस मुद्दे को और पेचीदा बनाते हुए प्रशासन का ध्यान उन पर है, जो बांग्ला बोलते हैं और इस कारण बंगाली हिंदुओं में डर बना हुआ है। प्रशासन यह जाने बगैर कि 1960 के दशक में असम में बंगाली विरोधी दंगों की एक श्रृंखला रही है, 1979-1985 के दौरान सुरक्षा की तलाश में बंगाली हिंदुओं का एक वर्ग पश्चिम बंगाल भाग खड़ा हुआ था।
भाजपा इस पर भी ध्यान देना नहीं चाहती कि किसी परिस्थिति में यदि भारत इन अवैध शरणार्थियों को बांग्लादेश निर्वासित करेगा तो बांग्लादेश के इसे स्वीकार करने की कितनी संभावना है।
तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में मंत्रियों के एक समूह ने 2001 में पेश प्रस्ताव में कहा था कि इन्हें वर्क परमिट दिया जाएगा, जो उनका एकमात्र वैध दस्तावेज होगा। हालांकि, वे वोट नहीं कर पाएंगे और किसी भी पार्टी का वोटबैंक नहीं बन पाएंगे।
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इस तरह के अवैध प्रवासी राष्ट्रवादी पार्टियों के लिए डर का सबब होते हैं। उनके लिए यह कार्ड की तरह है, जिनसे वे खेलना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में ऐसा कार्ड खेला जा रहा हो। ऐसा ही कुछ डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका में भी हो रहा है और यूरोप में दक्षिणपंथी पार्टियां भी ऐसा ही कर रही हैं। एनआरसी विवाद 2019 के आम चुनावों तक जारी रह सकता है।
Source : IANS