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6 दिसम्बर 1992 की घटना ने बदल दी बीजेपी और देश की राजनीति का भविष्य

जिन्ना ने कहा था- एक संयुक्त भारत का विचार कभी सफल नहीं होता. मेरे विचार में इसका अंजाम भयानक होता. मेरा ख़्याल सही है या ग़लत, ये वक़्त बताएगा.

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Deepak Kumar
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6 दिसम्बर 1992 की घटना ने बदल दी बीजेपी और देश की राजनीति का भविष्य

6 दिसम्बर 1992 की घटना ने बदल दी राजनीति

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गुरुवार को मस्जिद विध्वंस के 25 साल पूरे हो गए हैं, फ़िलहाल सप्रीम कोर्ट में भूमि विवाद के तौर पर इस मामले की सुनवाई चल रही है. हर साल 6 दिसंबर को अयोध्या समेत पूरे उत्तर-प्रदेश में माहोल गर्म रहता है जिसे देखते हुए आज फिर से पूरे राज्य में सुरक्षा-व्यवस्था के कड़े इंतज़ाम किए गए हैं. हालांकि 6 दिसम्बर के बाद देखें तो भारतीय राजनीति में काफी बदलाव आ गया. सन 1947 में भारत अंग्रेज़ों के चंगुल से आज़ाद तो हुआ लेकिन जिस पृष्ठभूमि में देश का बंटवारा हुआ वह हिंदु-मुस्लिम मुद्दा आगे भी कई सालों तक सांस लेता रहा. वहीं साल 1992 ने जाते-जाते एक बार फिर से हिंदु-मुस्लिम मुद्दे को नई जान दे दी और इस बार उसे राम के नाम पर उभारा गया.

मस्जिद विध्वंस और अयोध्या में बीजेपी

6 दिसम्बर 1992 के बाद से देखा जाए तो अयोध्या बीजेपी का गढ़ बन गया. साल 1993, 1996, 2002 और 2007 में लागातार बीजेपी के लल्लू सिंह यहां से विधायक चुने गये. इतना ही नहीं साल 2014 में लल्लू सिंह फैजाबाद से लोकसभा सांसद चुने गए. बता दें कि अभी हाल ही में फ़ैज़ाबाद का नाम बदलकर अयोध्या किया गया है. हालांकि इस दौरान साल 2012 में एसपी प्रत्याशी तेज नारायण पाण्डेय उर्फ पवन पाण्डेय ने लल्लू सिंह को पराजित किया था लेकिन साल 2016 में एक बार फिर से बीजेपी प्रत्याशी वेद प्रकाश गुप्ता ने पवन पाण्डेय को हरा कर बीजेपी की वापसी कराई.

वहीं साल 1992 की बात की जाए तो सन- 1969 के विधानसभा मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस ने अयोध्या में पहली बार जीत दर्ज़ की थी. इस चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी विश्वनाथ कपूर ने भारतीय क्रांति दल के राम नारायण त्रिपाठी को 3,917 मतों से हराया. उसके बाद सन-1974 में यह सीट भारतीय जनसंघ के खाते में आ गयी, हालांकि उसके बाद 1977 के मध्यावधि चुनाव में जनता पार्टी के जयशंकर पाण्डेय चुनकर आए. वहीं साल 1980 के मध्यावधि चुनाव में जनता ने कांग्रेस-इंदिरा के प्रत्याशी खत्री को विधायक चुना. वर्ष 1985 के चुनाव में कांग्रेस ने एक बार फिर से अपना परचम लहराया. इतना ही नहीं वर्ष 1989 में बीजेपी को फिर से पराजय का सामना करना पड़ा. बीजेपी प्रत्याशी लल्लू सिंह को जनता दल के जयशंकर पाण्डेय ने 9,073 मतों से हराया.

आंकड़ो से काफी हद तक साफ़ होता है कि 26 दिसंबर 1992 की इस घटना ने अब तक अयोध्या में बैकफ़ुट पर रहने वाली पार्टी को फ्रंटफ़ुट पर ला खड़ा किया. आइए एक नज़र डालते हैं बीजेपी की शुरुआती दिनों पर-

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मस्जिद विध्वंस के बाद बीजेपी का देश में उदय

6 अप्रैल 1980 को सातवीं लोकसभा की करारी हार के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया गया जिसके बाद 1984 के पहले चुनाव में बीजेपी को महज़ दो सीटें मिली थी. इसके बाद 1986 में बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी की कमान संभाली. आडवाणी के आने के बाद 1989 के नौवें लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अप्रत्याशित बढ़त हासिल करते हुए 89 सीटें जीत लीं. इतना ही नहीं बीजेपी के समर्थन में पहली बार जनता दल की सरकार बनी और वीपी सिंह तीसरे गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने.

बीजेपी ने 1989 से ही राम मंदिर आंदोलन को समर्थन देना शुरू कर दिया. जिसके बाद 1990 में लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकाली. जिसके बाद 1991 में मुरली मनोहर जोशी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को पूरे देश में समर्थन मिला, जिसके बाद साल 1991 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 121 सीटें जीतीं. हालांकि उस आम चुनाव में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और कांग्रेस ने अन्य पार्टी से समर्थन लेकर पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में सरकार बनाई.

26 दिसंबर 1992 की घटना को देखते हुए साल 1993 में पार्टी की कमान एक बार फिर लालकृष्ण आडवाणी के हाथ में दी गई और 1996 लोकसभा चुनाव में बीजेपी 163 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. बाद में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में देश में बीजेपी की सरकार बनी, हालांकि बहुमत नहीं होने की वजह से महज़ 13 दिनों में बीजेपी की सकार गिर गई.

जिसके बाद 1998 के आम चुनाव में बीजेपी एक बार फिर से 183 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. अटल बिहारी वाजपेयी दोबारा से देश के प्रधानमंत्री बने. हालांकि पूरण बहुमत नहीं होने की वजह से एक बार फिर बीजेपी की सरकार गिर गई और 1999 में फिर से लोकसभा चुनाव हुआ. इस बार अटल बिहारी वाजपेयी देश के पीएम बने और अपना कार्यकाल पूरा किया.

2004 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राम के बजाए इंडिया शाइनिंग का नारा दिया जिसके बाद पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. हालांकि इसके बावजूद पार्टी को 144 सीटें मिलीं. 2004 में कांग्रेस ने डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनाई.

2005 में पार्टी की कमान राजनाथ सिंह को दी गई लेकिन इसके बावजूद 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 119 संसदीय सीटों पर ही सिनटकर रह गई. 2009 लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद 2010-13 के बीच नितिन गडकरी ने पार्टी की कमान संभाली. हालांकि 2013 में लोकसभा चुनाव से एक साल पहले राजनाथ सिंह को फिर से पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया. इस बार बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा और केंद्र में पहली बार बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी.

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2014 के चुनाव ने बदल दी राजनीतिक दिशा

2014 के बाद राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखा गया. अब तक बहुसंख्यकों पर बोलने से बचने वाली सभी राजनीतिक पार्टियां खुले तौर पर उनके समर्थन में उतर आए. वहीं कई सारी ऐसी पार्टियां जो अल्पसंख्यक के नाम पर राजनीति करती थी अब वो भी बहुसंख्यकों को लेकर बोलने लगी है, आप हाल ही के विधानसभा चुनाव को देखें, फिर चाहे वो गुजरात, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और राजस्थान चुनाव हो सभी जगह यह बताने की होड़ लगी रही की नेता का गोत्र किया है, वह किस वर्ण के हैं और कौन कितना सच्चा हिंदू है. इस साल दीपावली के मौक़े पर यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ ने राम की विशाल प्रतिमा बनाने की घोषणा की है.

राज्‍य सरकार द्वारा साझा किए गए विवरण के मुताबिक प्रतिमा की ऊंचाई 221 मीटर होगी जो हाल ही में गुजरात में बनी सरदार पटेल की मूर्ति 'स्‍टैच्‍यू ऑफ यूनिटी' से भी ऊंची होगी. हालांकि इसमें केवल राम की मूर्ति की ऊंचाई 151 मीटर होगी, वहीं राम की मूर्ति के नीचे की चौकी यानी कि स्तंभ के नीचे राम से जुड़ी इतिहास संबंधी जानकारी और संग्राहलय बना होगा. वहीं राम के सर पर बनी छतरी की ऊंचाई 20 मीटर होगी जबकि चौकी की ऊंचाई 50 मीटर होगी.

वहीं यूपी चुनाव की बात करें तो साल 2016 में गोहत्या का मामला भी खूब गरमाया. अब जबकि अगले साल आम चुनाव होने हैं यूपी के बुलंदशहर में एक बार फिर से कथित गोकशी के शक में एक पुलिस इंस्पेक्टर की भीड़ द्वारा हत्या कर दी गई. यूपी कैबिनेट में मंत्री ओपी राजभर ने मृत पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार की हत्या को लेकर राजनीतिक साज़िश की आशंका ज़ाहिर की है.

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बंटवारे के बाद जिन्ना का पहला भाषण

भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना का पहला भाषण आज के संदर्भ में काफी प्रसांगिक जान पड़ता है. जिन्ना के शब्द- विभाजन होना ही था. इस बारे में दोनों समुदायों की चिंता - जहां कहीं भी एक समुदाय बहुमत में है और दूसरा अल्पसंख्यक -समझी सकती है.

सवाल ये है कि क्या जो हुआ उसके विपरीत क़दम उठाना संभव था?

सरकार का सब से पहला कर्तव्य क़ानून व्यवस्था को बनाकर रखना है, ताकि देशवासियों की संपत्ति, जीवन और धार्मिक आस्थाएं सुरक्षा रखी जा सकें.

हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों तरफ ऐसे लोग हैं जो बंटवारे को नापसंद करते हैं. मेरी राय में इसके इलावा कोई और समाधान नही था. मुझे उम्मीद है भविष्य मेरी राय के पक्ष में फ़ैसला देगा.

एक संयुक्त भारत का विचार कभी सफल नहीं होता. मेरे विचार में इसका अंजाम भयानक होता. मेरा ख़्याल सही है या ग़लत, ये वक़्त बताएगा.

समय के साथ-साथ हिन्दू - मुलमान, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के फ़र्क ख़त्म होंगे. क्योंकि मुसलमान की हैसियत से आप पठान, पंजाबी, शिया या सुन्नी हैं. हिन्दुओं में आप ब्राह्मण, खत्री, बंगाली और मद्रासी हैं. अगर ये समस्या नहीं होती तो भारत काफ़ी पहले आज़ाद हो जाता.

आप देखेंगे कि वक़्त के साथ देश के नागरिक की हैसियत से हिन्दू, हिन्दू नहीं रहेगा मुसलमान, मुसलमान नहीं रहेगा, धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं क्यूंकि ये हर व्यक्ति का व्यक्तिगत ईमान है, बल्कि सियासी हैसीयत से.

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Source : Deepak Singh Svaroci

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