उत्तर प्रदेश में कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा सीट समेत कुल 14 सीटों पर हुए उप-चुनाव के नतीजों के बाद भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) पर विपक्षी एकता भारी पड़ती दिखाई दे रही है।
इन चुनावों के नतीजों ने 2019 के आम चुनाव के पहले संयुक्त विपक्ष के 'फॉर्मूले' की नींव को मजबूत किया है।
राज्य के विपक्षी दलों ने गोरखपुर और फुलपूर में जिस 'फॉर्मूले' को अपनाकर बीजेपी को चारों खाने चित्त किया, उसे कैराना में भी सफलता मिली है।
उत्तर प्रदेश में यह दूसरी बार है, जब विपक्षी दलों की एका और संयुक्त विपक्ष की रणनीति ने बीजेपी की रणनीति को धूल धूसरित कर दिया है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में संयुक्त विपक्ष के हाथों मात खाने के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट और नूरपुर विधानसभा सीट पर बीजेपी चारो खाने चित हो गई।
इससे पहले गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट पर सपा के उम्मीदवार, जिसे बहुजन समाज पार्टी का समर्थन मिला, के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा वहीं अब कैराना लोकसभा सीट पर बीजेपी की प्रत्याशी मृगांका सिंह (पूर्व सांसद हुकुम सिंह के बेटी) को राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) प्रत्याशी तबस्सुम हसन के हाथों भारी पराजय का सामना करना पड़ा है।
तबस्सुम हसन ने मृगांका सिंह को 44618 मतों से हराया है।
रालोद के उम्मीदवार को समाजवादी पार्टी (एसपी), बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और कांग्रेस का समर्थन हासिल था।
गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट पर मिली जबरदस्त हार से सबक लेते हुए कांग्रेस ने इस बार विपक्षी गठबंधन को समर्थन देने का फैसला लिया।
वहीं नूरपुर विधानसभा सीट पर बीजेपी की उम्मीदवार अवनी सिंह को एसपी उम्मीदवार नईमुल हसन से हार का सामना करना पड़ा।
हालांकि सबकी निगाहें कैराना लोकसभा सीट पर हुए उप-चुनाव पर थीं, क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले हो रहे इस चुनाव की नतीजे देश की सियासत में बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों के गठबंधन की तस्वीर को साफ करने में मददगार साबित होने वाली है।
2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद बीजेपी को इस राज्य में हुए उप-चुनाव में लगातार हार का मुंह देखना पड़ रहा है।
2014 के आम चुनाव में कुल 80 लोकसभा सीटों में अकेले बीजेपी को 71 (एनडीए को 73) पर जीत हासिल हुई थी, जो अब घटकर 68 हो गई है। उत्तर प्रदेश में लगातार मिल रही हार के बाद योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व पर भी सवाल उठने लगे हैं।
उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ को हिंदुत्व का 'पोस्टर ब्वॉय' बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। गुजरात और कर्नाटक जैसे चुनावों में पार्टी ने योगी को स्टार प्रचारक के तौर पर आगे रखा, लेकिन वह अपने गृह राज्य में पार्टी को बचाने में लगातार फिसड्डी साबित हुए हैं।
इतना ही नहीं गोरखपुर की लोकसभा सीट भी वह नहीं बचा पाए, जबकि इसे बीजेपी का गढ़ माना जाता रहा है और योगी यहां से लगातार सांसद निर्वाचित होते रहे हैं। योगी इस सीट से 1998 से लगातार जीतते रहे हैं।
हालांकि मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें इस सीट से इस्तीफा देना पड़ा और बाद में हुए उप-चुनाव में वह इस सीट को बचा नहीं पाए।
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2014 में केंद्र में दो तिहाई से अधिक बहुमत के साथ बीजेपी की सरकार बनने में उत्तर प्रदेश की 73 सीटों पर एनडीए की जीत की बड़ी भूमिका थी। हालांकि अब इस राज्य में सपा-बसपा-रालोद औऱ कांग्रेस की एका बीजेपी की रणनीति पर भारी पड़ रही है।
गौरतलब है कि बिहार में 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू), राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस का गठबंधन बना था, जो बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए पर भारी पड़ी थी।
इसके बाद विपक्षी दलों के बीच बीजेपी के खिलाफ गठबंधन को बनाने की राष्ट्रीय स्तर पर सुगबुगाहट तेज हुई। तब एनडीए से अलग हुए नीतीश कुमार राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहे थे।
उनकी कोशिश जनता दल से अलग हुए सभी दलों को फिर से साथ लाने की थी, हालांकि उनकी यह कोशिश विफल रही।
लेकिन उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट पर हुए उप-चुनाव के बाद बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों के गठबंधन की कोशिशें फिर से तेज हुई हैं।
इन दोनों सीटों पर हुए उप-चुनाव में एक दूसरे की घोर विरोधी रही एसपी और बीएसपी एक साथ आने को तैयार हुए, और फिर जो हुआ, उसकी उम्मीद बीजेपी को भी नहीं थी।
इसके बाद कर्नाटक में कांग्रेस और जनता-दल सेक्युलर की सरकार बनने के मौके पर एक मंच पर विपक्षी दलों के सभी नेता नजर आए।
विपक्षी दलों के गठबंधन के बीच बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के सी आर गैर बीजेपी-गैर कांग्रेसी गठबंधन को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। इन दोनों नेताओं ने उन सभी क्षेत्रीय दलों के नेताओं को साथ लाने की कोशिश की है, जो अपने-अपने राज्य में सीधे बीजेपी को टक्कर देने की क्षमता रखते हैं।
दरअसल ममता बनर्जी चाहती है कि अगले आम चुनाव में बीजेपी को हराने के लिए सभी राज्यों में अलग-अलग गठबंधन बने। मसलन जिस राज्य में जो क्षेत्रीय दल बीजेपी को हराने की ताकत रखता है, उसे अन्य दलों का समर्थन हासिल हो।
ममता का यह फॉर्मूला, कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल की रणनीति पर पानी फेर सकता है, जो सभी दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर रही है।
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अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव कई मौकों पर साफ कर चुके हैं कि राष्ट्रीय दल होने के नाते सभी विपक्षी दलों को बीजेपी के खिलाफ साथ लाने में कांग्रेस की भूमिका बड़ी होनी चाहिए। हालांकि तीसरा मोर्चा और फेडरल फ्रंट, कांग्रेस की इस भूमिका को स्वीकार नहीं करता है।
2019 के आम चुनाव के पहले बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों के गठबंधन की तस्वीर कैसी होगी, इसके बारे में अभी कुछ कह पाना जल्दबाजी होगी लेकिन लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 14 सीटों पर हुए उप-चुनाव ने साफ कर दिया है कि विपक्षी एकता का फॉर्मूले के बीजेपी को पार पाना मुश्किल होगा।
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HIGHLIGHTS
- बीजेपी पर एक बार फिर से भारी पड़ी विपक्षी एका
- उत्तर प्रदेश में दो सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी की हार
- राज्य में हुए अब तक के सभी उप-चुनावों में बीजेपी की हार
Source : Abhishek Parashar