आंदोलन की कोख से निकली असम की सबसे मजबूत क्षेत्रिय पार्टी असम गण परिषद (एजीपी) राज्य में जारी आंदोलन को लेकर चुप्पी साधे हुए है। राज्य की जनता नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 को लेकर सड़कों पर उतरी हुई है लेकिन अभी तक पार्टी के नेता आंदोलनकारियों के साथ सड़क पर नजर नहीं आ रहे हैं।
अपने आंदोलन के जरिए लोगों के बीच नाम कमाने वाले और राज्य की शीर्ष कुर्सी तक पहुंचे एजीपी के नेता प्रफुल्ल कुमार महंत अभी तक इस मामले में खुलकर कुछ भी नहीं बोल रहे हैं। हालांकि उनकी पार्टी के नेता राज्य सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
कई सप्ताह से पूरा असम एक बार फिर से आंदोलित है। नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 को लेकर कई जातीय संगठन केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रही है। लेकिन एजीपी के बड़े नेता इन आंदोलनकारियों के साथ सड़क पर नहीं उतर रहे हैं।
इस विरोध को लेकर जनता की ओर से एजीपी, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से गठबंधन तोड़ने की धमकी दे रही है लेकिन इसके बावजूद वह बीजेपी सरकार पर दबाव बनाने में कामयाब नहीं हो पा रही है।
14 सीटों के साथ राज्य में बीजेपी को समर्थन दे रही एजीपी को लेकर राजनीतिक जगत में सवाल उठने लगे हैं कि आखिर क्या मजबूरी है कि वह सरकार से अलग नहीं हो रही है।
क्या कहता है केंद्र सरकार का नया बिल
नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 में प्रावधान है कि पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले अल्पसंख्यक समुदाय हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के लोगों को अवैध नागरिक नहीं माना जाएगा।
यह विधेयक 1955 के उस नागरिकता अधिनियम में बदलाव के लिए लाया गया है जिसके तहत किसी भी व्यक्ति की भारतीय नागरिकता तय होती है। 1955 का कानून कहता है कि किसी भी अवैध प्रवासी को भारतीय नागरिकता नहीं दी जा सकती।
जब एजीपी ने हिला दी थी कांग्रेस की जड़ें
राजनीतिक जानकार बताते हैं कि यह वही एजीपी है जिसके नेता प्रफुल्ल कुमार महंत हैं और एक छात्र आंदोलन के जरिए राज्य में आजादी के बाद से जमी कांग्रेस सरकार की चूलें हिला दी थी।
अखिल असम छात्र संघ (आसू) के नेता के तौर पर उभरे महंत ने कांग्रेस और देश को दिखा दिया था कि अगर राजीव गांधी केंद्र के नेता हैं तो वह भी असम के। घुसपैठ के मुद्दे को लेकर महंत और मृगु फुकन ने जब बिगुल फूंका था तब राज्य की जनता ने जमकर उनका साथ दिया था।
आंदोलन का असर ही था कि राजीव गांधी की सरकार को झुकना पड़ा था और आसू के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करके चुनाव सूचियों में सशोधन करके विदेशियों के नाम हटाए जाने की उनकी मांग को स्वीकार कर लिया था। हालांकि अभी तक यह सफल नहीं हो पाया।
कैसा था आसू का छात्र आंदोलन
अपनी किताब 'एक जिन्दगी काफी नहीं' में वरिष्ट पत्रकार कुलदीप नैयर लिखते हैं, 'मुझे इंडियन एक्सप्रेस की तरफ से गुवाहाटी जाने का अवसर मिला तो मैं इन दोनों युवा नेताओं (महंत और मृगु फुकन) की ईमानदारी और समर्पण-भावना से प्रभावित हुए बिना न रह सका।'
अपनी किताब में वरिष्ट पत्रकार ने जिक्र किया है, 'छात्र होने के बावजूद ये दोनों बड़ी सरलता से एक राज्यव्यापी आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे और असम की जनता पूरे जोर-शोर से उनका समर्थन कर रही थी। वे सरकार द्वारा लगाए गए कर्फ्यू को तोड़ने की अपील करते तो हजारों लोग निडर होकर सड़कों पर आ जाते। इसी तरह जब जनता के कर्फ्यू की घोषणा की जाती तो कहीं भी एक मोमबत्ती तक टिमटिमाती हुई दिखाई न देती।'
किताब में लिखा है, 'पूरा आंदोलन इतना अहिंसक था कि धारा 144 का उल्लंघन करते हुए सैंकड़ो लोग डिप्टी कमिश्नर के दफ्तर के सामने जमा हो जाते और जरा भी शोर-शराबा या हंगामा नहीं होता।'
बीजेपी लोकसभा चुनाव में बटोरना चाहती है वोट
हिंदुत्व के मुद्दे पर मतदाताओं को अपने पक्ष में लुभाने के लिए बीजेपी इस कार्ड को खेलना चाहती है। बीजेपी के नेता जानते हैं कि आज भी वो अल्पसंख्यक वर्ग में स्वीकार्य नहीं हैं।
वहीं कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल इस मुद्दे पर इसलिए चुप्पी साधे हुए हैं कि कहीं वोटरों का एक बड़ा वर्ग उनसे नाराज न हो जाए। कारण सभी दल सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड खेलना चाहते हैं और एक वर्ग के वोटर को नाराज नहीं करना चहाते हैं। मामले को लेकर कांग्रेस के शीर्ष नेता भी अभी तक चुप्पी साधे हुए हैं।
अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि आंदोलन के जरिए राज्य की सत्ता तक पहुंचने वाली पार्टी अभी तक प्रदर्शनकारियों के साथ सड़कों पर क्यों नहीं उतरी है। अभी तक इस मुद्दे पर मौन क्यों हैं महंत?
क्या कम हो गया है महंत का असर
राजनीतिक जगत में यह सवाल तैरने लगा है कि आखिर क्यों महंत राज्य की जनता का साथ नहीं दे रहे हैं। सवाल यह भी उठने लगा है कि क्या अब एजीपी में वह दम नहीं रह गई है कि राज्य की जनता को एक छतरी के नीचे ला सके।
जानकार बताते हैं कि यह वही महंत है जो साल 1979 से 1985 के बीच असम में जबरदस्त आंदोनल के जरिए लोगों को एकजुट किया था जिसमें करीब 855 आंदोलनकारी मारे गए थे।। इस आंदोलन ने देश के लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा था।
इस आंदोलन का नतीजा ही था कि बाद में महंत ने मृगु के साथ मिलकर असम गण परिषद के नाम से एक नई राजनीतिक पार्टी का गठन किया और राज्य में हुए विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई थी।
क्या समर्थन वापसी से गिर जाएगी सरकार
अगर एजीपी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेती है तो भी सर्बानंद सोनोवाल सरकार को कोई खतरा नहीं है। क्योंकि राज्य में कुल 126 विधानसभा सीटें हैं और बीजेपी के पास 61 सीटें हैं जबकि साथ में बोडोलैंड पिप्लस फ्रंट (बीपीएफ) के पास 12 सीटें हैं जो कि राज्य की बीजेपी सरकार को अपना समर्थन दे रही है।
ऐसे में एजीपी के अलग होने के बाद भी सोनोवाल की सरकार बनी रहेगी। फिलहाल राज्य सरकार पर कोई खतरा नहीं मंडरा रहा है। लेकिन एक बात तो साफ दिख रहा है कि आंदोलन के जरिए राज्य की शीर्ष सत्ता तक पहुंचने वाली पार्टी इस बार मौन है।
एजीपी के अध्यक्ष जो सरकार में मंत्री भी हैं, वह कहते हैं कि अगर नागरिकता संशोधन विधेयक पास हुआ तो हमारी पार्टी बीजेपी के साथ अपना गठबंधन खत्म कर लेगी। तो ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि क्या एजीपी इस बिल के पास होने का इंतजार कर रही है।
आंदोलन के जरिए जन्मी एजीपी राज्य के लोगों के विरोध प्रदर्शन का साथ जमकर नहीं दे रही है और न हीं इस मुद्दे के विरोध में सरकार से अपना समर्थन वापस ले रही है।
असम गण परिषद की यह चुप्पी कई बातों की तरफ इशारा कर रही है। हालांकि चुप्पी से साफ झलक रहा है कि कभी राज्य की सबसे बड़ी और ताकतवर पार्टी रही एजीपी अब बीजेपी की बस पिच्छलग्गू बन कर रह गई है।