नरेंद्र मोदी सरकार ने बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है. बिरसा मुंडा आदिवासी समाज के थे और स्वतंत्रता संग्राम में उनका अमूल्य योगदान है. केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने ट्वीट कर बताया कि "केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भगवान बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवंबर को 'जनजातीय गौरव दिवस' के रूप में घोषित करने को मंजूरी दी. जनजातीय लोगों, संस्कृति और उपलब्धियों के गौरवशाली इतिहास को मनाने और मनाने के लिए 15-22 नवंबर 2021 तक सप्ताह भर चलने वाले समारोह की योजना."
Union cabinet approves declaration of 15th Nov, the birth anniversary of Bhagwan Birsa Munda, as 'Janjatiya Gaurav Diwas'. Week-long celebrations planned from 15-22 Nov2021 to celebrate & commemorate glorious history of tribal people, culture&achievements: Union Min Anurag Thakur pic.twitter.com/1zP64sYa0z
— ANI (@ANI) November 10, 2021
बिरसा मुंडा का परिचय
बिरसा मुण्डा का जन्म 15 नवम्बर 1875 में झारखंड के खुटी जिले के उलीहातु गांव में एक गरीब परिवार में हुआ था. मुण्डा एक जनजातीय समूह था जो छोटा नागपुर पठार में रहते हैं. इनके पिता का नाम सुगना पुर्ती और माता-करमी पुर्ती था. बिरसा मुंडा साल्गा गांव में प्रारम्भिक पढाई के बाद चाईबासा जीईएल चर्च विद्यालय में पढ़ाई किये थे. इनका मन हमेशा ब्रिटिश शासकों को देश से भगाने में लगा रहता था. मुण्डा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया. 1894 में छोटा नागपुर पठार भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी. बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की.
मुंडा विद्रोह का नेतृत्व
1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया.1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी.लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और जिससे उन्होंने अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया.उन्हें उस इलाके के लोग "धरती बाबा" के नाम से पुकारा और पूजा करते थे.उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी.
विद्रोह में भागीदारी और अन्त
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था.अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला.1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं.
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जनवरी 1900 डोम्बरी पहाड़ पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत सी औरतें व बच्चे मारे गये थे.उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे.बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियां भी हुईं.अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया. बिरसा ने अपनी अन्तिम सांसें 9 जून 1900 ई को रांची कारागार में लीं. जहां अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें जहर दे दिया था. आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है.
बिरसा मुण्डा की समाधि रांची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है.वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है.उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र भी है.
HIGHLIGHTS
- 1897 से 1900 के बीच बिरसा ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था
- बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवंबर को 'जनजातीय गौरव दिवस'
- बिरसा मुंडा आदिवासी समाज के थे और स्वतंत्रता संग्राम में है उनका अमूल्य योगदान