भारत की राजधानी दिल्ली में 9 और 10 सितंबर को जी20 का शिखर सम्मेलन होने वाला. पहली बार भारत की अध्यक्षता में हो रहे इस सम्मेलन में दुनिया के बड़े देशों के टॉप लीडर्स हिस्सा लेंगे.यूक्रेन युद्ध में उलझे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भारत के पीएम मोदी को इस मीटिंग को अटैंड करने में अपनी असमर्थता जता दी है. पुतिन पिछले साल बाली में हुई जी20 की मीटिंग में भी नहीं आए थे. लेकिन इस बड़ी मीटिंग में जिस शख्स के ना आने की सबसे ज्यादा चर्चा है वो हैं चीन के लीडर शी जिनपिंग.
जिंनपिंग ने हाल ही में साउथ अफ्रीका में आयोजित हुई ब्रिक्स की मीटिंग में हिस्सा लिया था लेकिन जी20 की माीटिंग में उनका ना आना कई तरह के सवाल खड़े कर रहे है और माना जा रहा हि चीन भारत अध्यक्षता में हो रही इस बड़ी मीटिंग को फ्लॉप करना चाहता है.
आखिर चीन ऐसाी क्यों चाहता है, जिनपिंग के भारत ना आने से इस मीटिंग पर क्या फर्क पड़ेगा उसके बारे में बात करने से पहले हम संक्षेप में आपको जी20 के बारे में बताते हैं. जी-20 दुनिया में बड़ी इकॉनोमिक पावर वाले 19 देशों और यूरोपीय यूनियन का एक ग्रुप हैं जिसे दुनिया की प्रीमियर इकोनॉमिक फोरम माना जाता है. साल 1999 में आई आर्थिक मंदी के दौरान आई चुनौतियों से निपटने के लिए बड़े देशों के वित्तमंत्रियों ने इस फोरम का गठन किया. साल 2008 में आई मंदी के बाद इस ग्रुप में शामिल देशों के लीडर्स की सालामा बैठक होना भी शुरू हो गया.
जी 20 का मकसद दुनिया के सामने मौजूद आर्थिक या पर्यवरण जैसे बडे़ मसलों पर एक आमसहमति बनाने का होता होता. G-20 में शामिल देशों की दुनिया के कुल जीडीपी में 85 फीसदी, कुल व्यापार में 75 फीसदी और कुल आबादी में दो-तिहाई की हिस्दारी है.
इन आंकड़ों के आप समझ गए होंगे की कि दुनिया के किसी भी मसले पर जी20 ग्रुप की राय कितनी अहमियत रखती है. इसकी मेजबानी हर बार किसी नए सदस्य देश को सौंपी जाती है और इस बार ये मौका भारत के पास है.
जी 20 की किसी भी मीटिंग मे अगर किसी मसले पर आम राय बनती है तो इसे मेजबान देश की कामयाबी माना जाता है और यही बात चीन को अखर रही है कि अगर इस बार की जी20 मीटिंग में किसी मसले पर कोई आम राय बन जाती है तो इससे इंटरनेशनल मंच पर भारत की प्रतिष्ठा में काफी इजाफा हो जाएगा लिहाजा दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी इकॉनोमिक पावर यानी चीन के प्रेजीडेंट जिनपिंग इस मीटिंग में एबसेंट रह कर किसी मसले पर आम राय ना बनने देने पर पूरी तरह आमादा दिख रहे हैं.
चीन की ओर से उनके प्रीमियर ली कियांग इस मीटिंग मे हिस्सा लेंगे, लेकिन जाहिर है कि जिस मीटिंग में अमेरिका के प्रेजीडेंट जो बाइडन के अलावा यूके, फ्रांस, कनाडा, जर्मनी जैसे बड़े देशों के लीडर्स हिस्सा ले रहे हैं वहां ली कियांग जैसे अपने छोटे लीडर को भेजकर चीन इस मीटिंग को फ्लॉप करने की पूरी प्लैनिंग कर चुका है.
इस मीटिंग को लेकर चीन की रणनीति शुरू से ही गड़बड़ पैदा करने वाली रही है. टॉप लीडर्स के सम्मेलन से पहले भी चीन ने अलग-अलग मसलों से जुड़ी जी20 के देशों के मिनिस्टर्स की कई मीटिंग में अपना ऑबजेक्शन लगाकर कोई बड़ा फैसला नहीं होने दिया. यहां तक की चीन ने इस मीटिंग के लिए भारत के स्लोगन वसुधैव कुटुंबम पर भी आपत्ति जता दी.
जाहिर है, यूक्रेन युद्ध के बाद तेजी से बदलते वैश्विक हालात में चीन नहीं चाहता कि भारत को कोई बड़ी डिप्लोमैटिक कामयाबी मिले.
साल 1962 में हुई भारत-चीन जंग के बाद से ही दोनों देशों के बीच दोस्ताना ताल्लुक नहीं रहे लेकिन रिश्तों में इतनी कड़वाहट भी नही थी जितना लद्दाख बॉर्डर पर साल 2020 में गलवान घाटी में हुई फौजी झड़प के बाद पैदा हो गई है.
भारत लगातार चीन से बॉर्डर से मसले को सुलझाने के लिए कह रहा है . पिछले दिनों ब्रिक्स की मीटिंग में भी भारत के पीएम नरेंद्र मोदी नी शी जिनिंपिंग से साथ इस मसले को उठाया था लेकिन लगता है कि जिनपिंग भारत की जमीन को कब्जाने के अपने इरादों पर बातचीत ही नहीं करना तचाहते हैं.
चीन इस वक्त पूरी दुनिया में अमेरिका की तर्ज पर खुद को स्थापित करना चाहता है और इसके लिए उसने दुनिया कई देशो के साथ अपने ताल्लुक भी गहरे किए हैं. लेकिन चीन को आशंका है कि उसका पड़ौसी भारत उसके प्रभुत्व के लिए चुनौती पेश कर सकता है.
अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकी भी चीन को परेशान कर रही हैं. एशिया-प्रशांत इलाके में चीन जिस तरह अपनी दादागिरी दिखा रहा है उसकी काट के लिए अमेरिका जी जान से जुटा है और उसके बनाए क्वॉ़ड गठबंधन में भारत का शामिल होना चीन फूटी आंख नहीं सुहा रहा है लिहाजा वो भारत की रेपुटेशन को गिराने या आगे बढ़ने से रोकने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा है.
हालांकि जी-20 की मीटिंग में भारत ना आकर जिनपिंग एक बड़ा रिस्क भी ले रहे हैं और ये रिस्क है चीन केअलग-थलग पड़ जाने का.
यूक्रेन युद्ध के बाद से ही चीन रूस का पुरजोर समर्थन कर रहा है और उसकी ये हरकत यूरोपीय देशों को रास नहीं आ रही है.
यूरोपीय देशों और चीन के बीच रोजाना 2.5 बिलियन डॉलर का व्यापार होता है. चीन में यूरोपीय देशो को भारी इनवेंट्मेंट भी है . ऐसे में चीन अगर ऐसे ही इंटरनेशनल मंचों पर बनने वाली आम सहमतियों को बिगाड़ने की कोशिश करता रहा तो बड़ी आर्थिक ताकत वाले देशों से उसके ताल्लुक बिगड़ भी सकते हैं और ये संकट में फंसती जा रही चीन की अर्थ व्यवस्था के लिए अच्छी बात नहीं होगी.
-सुमित दुबे
Source : News Nation Bureau