1 जुलाई को भारत डॉक्टर्स डे मनाता है। उन सभी डॉक्टर्स का शुक्रिया अदा किया जाता है, जो लोगों की जिंदगिया बचाते हैं। इस मौके पर देश की सेहत को समझना जरूरी है। भारत में हेल्थकेयर मार्केट के इस साल के आखिर तक 372 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। 2021 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में हेल्थकेयर सेक्टर में 47 लाख लोगों को रोजगार मिलता है! आंकड़ें बता रहे हैं कि भारत में हेल्थकेयर सेक्टर में ढेरों संभावनाएं हैं। कॉमनवेल्थ देशों के साथ-साथ मिडिल ईस्ट और अफ्रीकी देशों से हर साल करीब 20 लाख मरीज इलाज के लिए भारत आते हैं, जिससे 4 बिलियन डॉलर फॉरेन रिर्जव यानी विदेशी मुद्रा हासिल होता है।
इकानॉमी बड़ी, लेकिन खर्च काफी कम!
लेकिन ऐसा नहीं कि तस्वीर सिर्फ सुहानी है। कुछ वक्त पुरानी रिपोर्ट बताती है कि अमेरिकी सरकार अपने हर नागरिक की सेहत पर 4 लाख रूपए खर्च करती है। यूके में हर नागरिक पर 2 लाख 60 हजार रूपए खर्च होते हैं लेकिन भारत में प्रति व्यक्ति खर्चा केवल 1418 रूपए। 2 लाख 60 हजार बनाम 1418 रूपए का बहुत बड़ा अंतर तब है जबकि यूके की इकानॉमी दुनिया में पांचवें नंबर है जबकि भारत की छटे नंबर पर। यानी इकानॉमी के साइज में भले ही ज्यादा अंतर ना हो सेहत पर होने वाले खर्च में जमीन आसमान का फासला है! बेशक आंकड़ों पुराने हो सकते हैं लेकिन डराने वाले हैं। 2019 के खर्च के आधार पर आए आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका सरकारी और प्राईवेट सब मिलाकर सेहत के लिए 7 लाख रूपए प्रति नागरिक खर्च कर रहा है जबकि भारत में ये रकम केवल 5530 रूपए है! इस 5530 रूपए में सरकार की हिस्सेदारी देखें तो 2017-18 में ये रकम महज 1753 रूपए प्रति व्यक्ति थी। हालांकिं बीतते वक्त के साथ इसमें काफी इजाफा दिखा है। मसलन 2009-10 में हर नागरिक की सेहत पर सरकार 621 रूपए खर्च करती थी, जबकि 2013-14 में ये रकम 890 रूपए प्रति व्यक्ति थी।
बेशक इकानॉमी से लेकर आबादी के मोर्चे पर अमेरिका से भारत की तुलना नहीं की जा सकती लेकिन फिर भी हालात बेहतर नहीं है ये तो साफ है। खासकर तब जबकि हमारे देश में 40 करोड़ लोग ऐसे हैं जो किसी हेल्थ इंश्योरेंस के दायरे में नहीं आते हैं! करीब 5 साल पुरानी एक रिपोर्ट बताती है कि 70 फीसदी किसान अपनी आमदनी से ज्यादा इलाज में खर्च करते हैं! आंकड़ें बताते हैं कि आबादी का बड़ा हिस्सा मंहगे इलाज के चलते गरीबी रेखा के नीचे जाता है!
सेहत के मोर्चे पर उत्तर भारत फिसड्डी क्यों?
संविधान के मुताबिक सेहत राज्यों की जिम्मेदारी है। फिर भी करीब 35 फीसदी खर्चा केन्द्र सरकार करती है। वैसे दक्षिण के मुकाबले उत्तर भारत में सेहत मानों कभी किसी राज्य सरकार की प्राथमिकता नहीं रही। नीति आयोग की हाल ही की एक रिपोर्ट के मुताबिक हेल्थ सेक्टर में शानदार काम करने वाले टॉप 5 राज्यों में से एक भी उत्तर भारत का नहीं। हुक्मरानों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि केरल, तमिलनाडू, तेलगांना, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र की जगह यूपी, बिहार, राजस्थान, एमपी या फिर पंजाब टॉप 5 में क्यों नहीं? हालांकिं इस मोर्चे पर देर से सही लेकिन यूपी अब उम्मीद जगा रहा है। तेजी से अपने हेल्थकेयर सिस्टम को सुधारने वाले सूबों में यूपी पहले नंबर पर है।
राहत इस बात की भी है कि बीते कुछ सालों में हेल्थकेयर पर ध्यान दिया गया है। 2013-14 में प्रति व्यक्ति हेल्थ एक्सपैंडिचर 3,174 रूपए था, जो 2017-18 में बढ़कर 3,333 रूपए हुआ। 4 साल में 5 फीसदी का इजाफा! इस दरमियान सेहत पर जीडीपी के मुकाबले खर्च को देखें तो साल 2013-14 में सेहत पर जीडीपी का जहां 1.2 फीसदी खर्च होता था, वो आज बढ़कर 2.1 फीसदी हो चुका है यानी 4 सालों में 80-90 फीसदी की बढ़ोतरी। इसी तरह बजट की रकम पर नजर डालें तो 2013-14 में सेहत पर बजट में 35,063 करोड़ का प्रावधान था जो 2022-23 में बढ़कर 83,000 करोड़ हो चुका है। यानी करीब 135 प्रतिशत का इजाफा!
मोदी सरकार में कितने सुधरे हालात?
काम सिर्फ कागजों तक नहीं जमीन पर भी दिखता है। मसलन, साल 2017 में नेशनल हेल्थ पॉलिसी बनाई गई, जिसका मकसद बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देना है। साल 2018 में शुरू हुई आयुष्मान भारत योजना आज वक्त की जरूरत है। 50 करोड़ लोगों को 5 लाख रूपए तक का मुफ्त इलाज देने के मकसद से शुरू हुई इस स्कीम के दायरे में इस वक्त 14 करोड़ परिवार हैं यानी करीब 70 करोड़ लोग! दावा है कि 2014 के बाद से अब तक 55 फीसदी मेडिकल कॉलेज बढ़ा दिए गए हैं। सरकार की कोशिश देश के हर जिले में एक मेडिकल कॉलेज खोलने का है। देश में 6 नए एम्स भी चालू हो चुके हैं। एम्स मतलब इलाज की लाइफलाइन! दो साल पहले तक अकेले दिल्ली एम्स में ही हर रोज 12 हजार मरीज आते थे! जन औषधि केन्द्रों पर सस्ती दवाई भी यकीनन बड़ी राहत है!
मंहगे इलाज से कर्जदार होने से बचेगा गरीब?
यकीनन लेकिन अभी भी काफी काम करना बाकी है। खासकर गांव से लेकर शहर तक इलाज पर खर्च होने वाली रकम को कम करने के मोर्चे पर। नेशनल सैंपल सर्वे की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक आज शहरों में रहने वालों को प्राईवेट अस्पतालों में इलाज के लिए औसतन 32 हजार रूपए खर्च करने पड़ते हैं, जबकि गांव में रहने वालों की जेब से 26 हजार से ज्यादा रूपए खर्च होते हैं! जानकार इसे ही आउट आफ पॉकेट एक्सपेंडिचर कहते हैं, जो अभी करीब 65 फीसदी है। यानी ईलाज का औसतन 65% खर्चा हमें खुद चुकाना पड़ता है। कुछ वक्त पहले तक 25 फीसदी ग्रामीण मरीजों को अस्पताल के बिल चुकाने के लिए कर्ज पड़ता था! 18 फीसदी शहरी आबादी भी कर्ज की दलदल में फंसने को मजबूर थी। साल 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2011 से 2012 के बीच मुल्क में एक साल में 3.8 करोड़ लोग महंगे इलाज के चलते गरीबी रेखा के नीचे आने को मजबूर हुए थे! हर दिन 1 लाख से ज्यादा लोग! हर 1 मिनट में 72 भारतीय! आंकड़ें ना सिर्फ डराते हैं बल्कि शर्मसार भी करते हैं। ये तब है जबकि करीब 50 देशों में इलाज का खर्च वहां के नागरिक की जेब पर ना के बराबर पड़ता है। हाल ही में इकानॉमिक सर्वे के मुताबिक अभी जीडीपी का 2.1 फीसदी ही सेहत के मोर्चे पर खर्च किया जाता है, जिसे अगर बढ़ाकर 2.5 से 3 फीसदी तक दिया जाए तो लोगों की जेब से खर्च होने वाला 65 फीसदी हिस्सा घटकर 30 फीसदी हो जाएगा! जाहिर है लोग बचे हुए पैसे को कहीं निवेश करेंगे जो आर्थिक तौर देश के लिए फायदेमंद होगा। देखना होगा ऐसा कब हो पाता है।
वैसे साल 1999 में हमारी औसत उम्र 62 साल थी, जो 2019 में बढ़कर करीब 70 साल हो चुका है। उम्र तो बढ़ी है लेकिन वक्त पर बेहतर इलाज की कमी से होने वाली मौतें डरा रही हैं। साल 2017 में दिल की बीमारी के चलते हर 1 घंटे में 235 लोगों की जानें जा रही थीं! 2020 में हर 1 घंटे में 87 मौतें सिर्फ कैंसर के चलते हो रही थीं! ऐसी लाखों मौतों की कई वजहें हैं। हमारा सिस्टम उन गुनहगारों में एक है। गांव में बसने वाली 70 करोड़ से ज्यादा आबादी के लिए सरकारी अस्पतालों में 3 लाख से कम बिस्तर हैं जबकि देश के करीब 6 लाख गांवों में कुल 19,810 सरकारी अस्पताल हैं! कुछ साल पुरानी एक खबर के मुताबिक 10 साल में 10 हजार से ज्यादा डॉक्टरों ने गांव जाने से मना कर दिया। उन्हें लाखों रूपए का जुर्माना भरना मंजूर था लेकिन गांव जाना नहीं! रिपोर्ट बताती है कि देश की 70 फीसदी आबादी के लिए केवल 20 फीसदी डॉक्टर!
गांव क्यों नहीं जाना चाहते डॉक्टर?
आज गांव के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में 21,340 विशेषज्ञ डॉक्टरों की जरूरत है, लेकिन 3,881 विशेषज्ञ डॉक्टर ही मौजूद हैं! यानी 81 फीसदी विशेषज्ञ डॉक्टर्स की कमी है। मार्च 2020 के मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक पश्चिम बंगाल के 94 फीसदी गांवों में स्पेशलाइज्ड डॉक्टर नहीं हैं। इंटरनेशनल मानक के मुताबिक 1000 की आबादी पर 1 डॉक्टर तैनात होना चाहिए! जबकि 1600 की आबादी पर सिर्फ 1 डॉक्टर मौजूद है! साल 2014 से लेकर अब तक भारत के मेडिकल कॉलेज में UG में 75% और PG सीटों में 93% की बढ़त हो चुकी है। लेकिन आज भी भारत में करीब 5 लाख डॉक्टरों की कमी है! संसदीय समिति के मुताबिक अगले 5 साल तक हर साल 100 मेडिकल कॉलेज जोड़े जाए तब कहीं जाकर साल 2029 तक देश में डॉक्टर्स की किल्लत खत्म हो सकेगी! एक तरफ देश में डॉक्टर्स की कमी है दूसरी तरफ भारत में पढ़े करीब 70 हजार डॉक्टर पश्चिमी देशों में काम कर रहे हैं!
आखिर डाक्टर्स की कमी आज भी एक बड़ी समस्या क्यों है? आखिर गांव में क्यों नहीं जाना चाहते डॉक्टर्स? आखिर कब हर किसी को मिल सकेगा बेहतर और मुफ्त इलाज? क्या सस्ती हेल्थ इंश्योरेंस से मिल सकती है राहत? हेल्थकेयर सेक्टर में दक्षिण बनाम उत्तर भारत में भारी असमानता क्यों? मोदी सरकार में क्या वाकई सुधरे हैं हालात? जीडीपी का 3 फीसदी सेहत पर खर्च करने में सरकारों को दिक्कत क्या है? ऐसे ढेरों सवाल हैं जिनका जबाव जरूरी है, क्योंकि मुद्दा हमारी आपकी जिंदगी से जुड़ा है।
Source : Facts With Anurag