पुराने समय में कई विदेशी विद्वान भारत आये और यहां की भाषा और संस्कृति से काफी प्रभावित हुए। जिनमें कई चीनी, अरबी, फारसी और यूरोपीय यात्री शामिल हैं। ऐसे ही एक यात्री थे फादर कामिल बुल्के, जो भारत आए तो यहीं के हो गए और हिन्दी के लिए वह काम कर गए, जो शायद कोई हिन्दुस्तानी भी नहीं कर सकता था।
स्वर्गीय डॉ कामिल बुल्के का जन्म सन् 1909 में बेल्जियम के ‘रैम्सचैपल’ नामक गांव में हुआ था। वे बेल्जियम के पश्चिमी प्रांत फ्लैंडर के निवासी थे। भारत में कार्य करना उन्हें इतना प्रेरणादायक लगा कि वे भारत में ही बस गए।
शुरुआती दौर में उन्होंने दार्जिलिंग के एक स्कूल में गणित पढ़ाते हुए खड़ी बोली, ब्रज और अवधी सीखी। सन् 1938 में सीतागढ़, हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखी। सन् 1940 में प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की और फिर सन् 1942-44 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए किया।
उन्होंने लिखा है,'मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दुखी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अँगरेजी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।' उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की।
भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के अध्ययन की गहनता को और अधिक गहनतम करने के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सन् 1949 में ‘रामकथा’ पर डी.फिल. किया। बाद में तुलसी दास के रामचरित मानस का गहन अध्ययन कर, सन् 1950 में उन्होंने ‘राम कथा की उत्पत्ति और विकास’ पर पी.एच.डी की। उसी वर्ष ही वे ‘बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्’ के कार्य कारिणी सभा के सदस्य नियुक्त किये गए।
बुल्के कभी-कभी धार्मिक ग्रंथों का गहराई से अध्ययन के लिए दार्जीलिंग में रुकते थे। उनके पास दर्शन का गहरा ज्ञान तो था, लेकिन वे भारतीय दर्शन और साहित्य का व्यवस्थित अध्ययन करना चाहते थे। इसी दौरान उनका साक्षात्कार तुलसीदास की रामचरित मानस से हुआ। रामचरित मानस ने उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया। उन्होंने इसका गहराई से अध्ययन किया। इस ग्रंथ की अनिर्वचनीय काव्यात्मक उत्कृष्टता के कारण वे इस ग्रंथ की पूजा करने लगे। उन्हें इसमें नैतिक और व्यावहारिक बातों का चित्ताकर्षक समन्वय देखने को मिला।
उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सन् 1949 में ‘रामकथा’ पर डी.फिल. किया। बाद में तुलसी दास के रामचरित मानस का गहन अध्ययन कर, सन् 1950 में उन्होंने ‘राम कथा की उत्पत्ति और विकास’ पर पी.एच.डी की। उनकी यह थीसिस भारत सहित पूरे विश्व में प्रकाशित हुई जिसके बाद सारी दुनिया बुल्के को जानने लगी। उसी वर्ष ही वे ‘बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्’ के कार्य कारिणी सभा के सदस्य नियुक्त किये गए।
जिस समय फादर बुल्के इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय यह नियम था कि सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अँगरेजी में ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं। फादर बुल्के के लिए अँगरेजी में यह कार्य अधिक आसान होता पर यह उनके हिन्दी स्वाभिमान के खिलाफ था। उन्होंने आग्रह किया कि उन्हें हिन्दी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया।
वे ‘यामिनी’ और ‘दीप शिखा’ की रचयिता कवयित्री ‘महादेवी वर्मा’ का इसीलिए विशेष आदर करते थे क्योंकि वे अंग्रेजी में प्रवीण होते हुए भी, उनसे सदा अपनी मातृ भाषा में संवाद करती थीं।
महादेवी वर्मा पर एक संस्मरण लिखते हुए डा. कामिल बुल्के एक जगह कहते हैं, ‘‘अंग्रेजी भाषा के कारण ही राजनीतिक परतंत्राता के साथ भारतीयों में मानसिक दासता भी आ गई है।’’ महादेवी वर्मा के बौद्धिक स्तर एवं विचारों से वे विशेष रूप से प्रभावित थे। उन्होंने महादेवी वर्मा को सदा अपनी बड़ी बहन माना।
सन् 1949 में बुल्के सेंट जेवियर महाविद्यालय, राँची के हिन्दी और संस्कृत विभाग के प्रमुख बने, लेकिन जल्दी ही श्रवण संबंधी परेशानी के कारण उन्हें पढ़ाने के कार्य से दूर होना पड़ा। उन्होंने शोध पर अपना ध्यान केंद्रित किया। भारत सरकार ने उन्हें बड़े ही आदर के साथ 1951 में भारत की नागरिकता प्रदान की।
वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित करने वाली समिति के सदस्य बने। भारत की नागरिकता पाने के बाद वे खुद को 'बिहारी' कहकर बुलाते थे। भारत सरकार ने हिन्दी में उनके योगदान को देखते हुए 1974 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। उनकी मृत्यु 17 अगस्त 1982 को दिल्ली में हुई।
बुल्के आजीवन हिन्दी की सेवा में जुटे रहे। हिन्दी-अँगरेजी शब्दकोश के निर्माण के लिए सामग्री जुटाने में वे सतत प्रयत्नशील रहे। आज उनका शब्दकोष सबसे प्रामाणिक माना जाता है। उन्होंने इसमें 40 हजार शब्द जोड़े।
Source : न्यूज़ नेशन ब्यूरो