भारत में कोरोना संकट के कारण करोड़ो मजदूर बेरोजगार हुए हैं, वहीं निजी/प्राइवेट नौकरी करने वाले लोगों के सामने भी रोजगार बचाने का गम्भीर संकट है. इस परिदृश्य में शहरों से निराश लौट चुके लोग अपने रोजी के रास्ते को अपने गावों में तलाश रहे हैं. लॉक डाउन में हुई असुविधाओं की वजह से खड़ी होनें वाली दिक्कतों की वजह से ढेर सारे लोगों ने यह मन बना लिया है कि वो लौटकर वापस शहर नहीं जायेंगे.
कोरोना काल में कृषि से जुड़ने वाले लोगों की तादाद काफी रही है इनमें भी युवाओं की संख्या काफी है. जो लोग शहरों में रोजगार कर रहे थे वो गावों में आकर खेती में लग गए हैं. नतीजतन खेती में उत्पादन के बढ़ने के काफी आसार हैं. इस परिस्थिति में हमे बड़े बाजार की जरूरत होगी. अगर हमारे उत्पादन को खरीदने के लिए निर्यात संवर्धन इकाइयों का विकास नहीं किया जाएगा तब तक इस बढ़े उत्पादन से किसानी के कार्य में लगे लोगों को को कोई फायदा नहीं होगा.
बाजार की अनुपलब्धता की वजह से दाम गिरेंगे. खेती के लागत और खेती से मिलने वाली रकम में ज्यादा अंतर नहीं होगा या सच कहें तो खेती घाटे का सौदा हो जायेगी. इस परिस्थिति में किसान अगर अपनी सोच को प्रगतिशील करते हुए खेती के साथ साथ पौधारोपड का कार्य करे तो खेती तात्कालिक तौर पर जीविका का साधन बनेगी. इसके लिए किसान खेती के साथ -साथ अपने खेतों के किनारे पर पेड़ (सागौन, शीशम, पोपुलर, सफेदा ) लगायें या फलों (आम, अमरुद, केला, नीबू और मौशामी) आदि के बगीचे लगायें. आज उनके द्वारा की गई फिक्स डिपॉजिट आने वाले 15 से 20 साल में मिलेगी. यह कहना है Give me trees trust के पीपल बाबा का. जो लॉकडाउन में भी लगातार पेड़ लगाते रहे हैं.
जब तक रोजगार नहीं है तब तक लोगों को कृषि के साथ-साथ कीमती लकड़ियों व फलदार वृक्षों की खेती करनी चाहिए. अभी ज्यादा लोगों के कृषि कार्य से जुड़ने से जहाँ उत्पादन आवश्यकता से ज्यादा. होंगे इस वजह से कृषि फसलों के दाम गिरने के भी आसार होंगे प्रति व्यक्ति कृषि आय कम होगी ऐसे में अगर लोगों अपने जमीनों के चारो और पेड़ लगायें या फिर कुछ जमीन के हिस्से में पूरा पेड़ लगाकर उसकी देखभाल करें तो वो उनका फिक्स डिपोजिट होगा क्युकि 20 साल बाद ये पेड़ तैयार होकर अर्थव्यवस्था और पर्यावरण सुधार में चार चाँद लगायेंगे.
हमारा देश कृषि प्रधान देश हैं. आजादी के समय हमारे देश की अर्थव्यवस्था 87 % से ज्यादा कृषि पर आधारित थी 1991 में लाये गए एल पी जी (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण ) की नीतियों की वजह से हमारी अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान कम होता गया था. हमारी जो चीजें (लघु व कुटीर उधोग-जो कृषि से जुड़े हुए थे) अपनी मानी जाती थीं उसे हमने दरकिनार कर दिया अनेक बदलाव हुए पर जो देश की आत्मा हरियाली पर थी वो लिंक टूट गया.
अपना नाता ज्यादा आमदनी के लिए औधोगिक उत्पादन से जोड़ लिया. बड़े पैमाने पर गावों से लोग शहर में कारोबार करने गए. यही वह दौर था जब देश के मध्यम और निम्नवर्गीय लोग मध्य एशिया के देशों में भी नौकरी करने गए. यह देश के विकास के लिए अच्छा भी रहा था. लेकिन कोरोना जैसी विश्विक बीमारी के पूरी दुनियाँ में तेजी से प्रसार की वजह से देश ही नहीं पूरी दुनिया में आवागमन और आयात निर्यात में गिरावट आई है नतीजतन हमारी अर्थव्यवस्था फिर से बंद अर्थव्यवस्था के स्वरूप में आ गई है.
इसके अपने फायदे और नुकसान दोनों हैं. कृषि पर निर्भरता और कृषि के क्षेत्र में लोगों के द्वारा जुड़नें की रफ्तार को देखने के लिहाज से ऐसा लगता है कि कृषि में उत्पादन खूब बढेगा ऐसी स्थिति में मार्किट की भी जरूरत होगी और मार्किट में अगर ज्यादे माल आया तो उत्पादों के दाम भी गिरेंगे तो कुल मिलाकर खेती घाटे का सौदा हो जाएगी. इन सब चीजों को अगर नियोजित तरीके से किया जाय तो खेती किसानी से जुड़ने वाले लोगों के इस लॉक डाउन में किये गए कार्य से भविष्य में काफी लाभ कमाया जा सकता है. किसान खेती के कार्य के साथ साथ अपने खेतों के किनारे पेड़ लगायें या फिर पेड़ों के बागीचे लगायें जिससे कोरोना के बाद इन पेड़ों के तैयार होने से काफी फायदा होगा.
Source : News Nation Bureau