एक बार फिर चीन ने पाकिस्तान में बैठे आतंकी मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित होने से बचाया और भारत के प्रयास को एक, दो बार नहीं चौथी बार चोट पहुंचाई. चीन ने संयुक्त राष्ट्र में इस प्रस्ताव के विरोध में अपने वीटो पावर का इस्तेमाल कर ऐसा किया. इसके बाद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी ने सीधे पीएम नरेंद्र मोदी पर हमला किया और इसके लिए पीएम मोदी को ही जिम्मेदार ठहराया. बीजेपी ने इसका करारा जवाब दिया और कुछ अखबारों में पंडित जवाहर लाल नेहरू का संसद में दिया बयान भी छपा.
सवाल उठा कि क्या भारत ने ही चीन की यूएनएससी में दावेदारी का समर्थन किया था जिसकी बदौलत उसे वीटो पावर मिली जिसके चलते वह हमेशा भारत के खिलाफ अपने इरादों को और पाकिस्तान के साथ अपनी मित्रता को दोहराता आया है.
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जब नेहरू के संसद में बयान को छापा गया तब यह भी पूछा जाने लगा कि आखिर सरदार पटेल ने इस पूरे प्रकरण पर क्या राय रखते थे. ऐसे में देश के पहले उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार पटेल की एक चिट्ठी कांग्रेस के दावों की और नेहरू के संसद में दिए बयान से जुदा बात देश के सामने रखती है.
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''प्रिय जवाहरलाल,
जब से मैं अहमदाबाद से लौटा हूं और उसी दिन मंत्रिमंडल की बैठक के बाद, जिसमें मैं, 15 के नोटिस पर ही शामिल हो पाया था और उसके लिए मुझे खेद है, मैं सभी कागज पढ़ नहीं पाया हूं, मैं बड़ी ही व्याकुलता से तिब्बत की समस्या के बारे में सोचता रहा हूं और मुझे लग रहा है कि मेरे दिमाग में जो कुछ चल रहा है, उसे आपके साथ साझा करूं.
मैं विदेश मंत्रालय और पीकिंग (चीन की राजधानी को पहले पीकिंग कहा जाता था) में अपने राजदूत के बीच हुए पत्राचार और उसके माध्यम से चीनी सरकार को बड़ी सावधानीपूर्वक समझा है. मैंने, इस पत्र व्यवहार पर अपने राजदूत के पक्ष में और चीन सरकार के साथ संभव पक्ष में गौर किया है, लेकिन खेदपूर्वक कहना पड़ रहा है कि इस अध्ययन के परिणाम स्वरूप उनमें से कोई खरा नहीं उतरा है.
चीन सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों की व्याख्या से हमें बहकाने की कोशिश की है. मुझे ऐसा लगता है कि एक नाजुक समय में, वे हमारे राजदूत में, तिब्बत समस्या के शांतिपूर्ण समाधान की अपनी कथित इच्छा के बारे में एक झूठी विश्वास की भावना भरने में सफल हुए हैं.
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस पत्राचार की अवधि के दौरान, निश्चित ही चीनी तिब्बत पर भीषण कार्रवाई करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे होंगे. मेरे अनुसार, चीनियों की अंतिम कार्रवाई, विश्वासघात से कम नहीं है.
इसमें, दुख की बात यह है कि तिब्बतियों का हम पर भरोसा है, वे हमारे द्वारा मार्गदर्शन पसंद करते हैं, और हम, उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी दुर्भावना के जाल से निकालने में असमर्थ रहे हैं. ताजा स्थिति से लगता है कि हम दलाई लामा को छुड़ा नहीं पाएंगे.
भारत का संदेह
हमारे राजदूत ने चीनी की नीति और कार्रवाईयों के बारे में स्पष्टीकरण या उन्हें उचित ठहराने के लिए काफी मशक्कत की है. जैसा कि विदेश मंत्रालय ने अपने एक तार में कहा है, राजदूत ने हमारी ओर से चीन सरकार को जो एक या दो प्रतिवेदन दिए हैं, उनमें सख्ती नहीं है और उनमें अनावश्यक क्षमायाचना की गई है. किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए तिब्बत में, आंग्ल-अमेरिकी चालबाजियों से चीन को कथित खतरे की कल्पना करना असंभव है. इसलिए यदि चीनियों का इसमें विश्वास है, तो उन्होंने हम पर इस तक अविश्वास किया है कि उन्होंने हमें, आंग्ल-अमरीकी कूटनीति या रणनीति के साधन या कठपुतलियां मान लिया है.
चीनियों तक आपकी सीधी पहुंच के बावजूद, यदि चीनियों की वास्तव में यह सोच है, तो इससे तो यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम तो चीनियों को अपना मित्र मानते हैं, लेकिन वे नहीं मानते. 'जो उनके साथ नहीं है, वह उनके विरुद्ध है', की कम्युनिस्टों की सोच को देखते हुए यह एक महत्वपूर्ण संकेत है, जिसका हमें उचित रूप से ध्यान रखना होगा.
अकेला समर्थक
पिछले कई महीनों में, रूसी कैंप से बाहर, देखा जाए तो हम ही एक मात्र हैं, जो चीन के यूएनओ में प्रवेश का समर्थन कर रहे हैं और फारमूसा के बारे में अमरीकियों से आश्वासन प्राप्त करने में लगे हैं. अमेरीका और ब्रिटेन के साथ और यूएनओ में अपनी चर्चाओं और पत्राचार में चीनी भावनाओं को शांत करने, उनकी आशंकाओं को दूर करने और उनके वैध दावों की रक्षा करने के लिए हमने सब कुछ किया है. इसके बावजूद चीन को हमारी निष्पक्षता पर भरोसा नहीं है. वह अभी भी हम पर संदेह कर रहा है और कम से कम बाहर से तो ऐसा लगता है कि पूरी सोच, अविश्वास की है, जिसमें संभवतया, थोड़ी सी शत्रुता की भावना भी है.
मुझे शक है, हमने अपने इऱादों, मित्रता और सदाशयता के बारे में चीन को विश्वास दिलाने के लिए जितना कुछ किया है, उससे आगे हम जा सकते हैं या नहीं. पीकिंग में, हमारा एक राजदूत है, जो मित्रता के बारे में हमारी राय से उन्हें अवगत कराने के लिए बहुत ही उपयुक्त है. लगता है, वे भी, चीनियों का मन बदलने से नाकाम रहे हैं. हमें मिले उनके अंतिम तार के द्वारा जिस सरसरी तौर पर तिब्बत में चीनी सेनाओं के प्रवेश के खिलाफ हमारे विरोधों को निपटा दिया गया है, उस लिहाज से ही नहीं, बल्कि हमारी सोच पर विदेशी प्रभावों के बेसिरपैर के कटाक्षों के लिहाज से भी यह तार, पूर्णतया एक अशिष्टतापूर्ण कार्रवाई है. ऐसा लगता है कि यह भाषा किसी मित्र की नहीं, बल्कि संभावित दुश्मन की है.
इस पृष्ठभूमि में हमें यह सोचना है कि जिस तिब्बत को हम जानते हैं, उसके गायब होने और चीन के हमारे दरवाजे तक विस्तार के परिणामस्वरूप, अब हमें किन नहीं स्थितियों को सामना करना होगा. पूरे इतिहास में, हमने शायद ही कभी अपनी उत्तर पूर्वी सीमा के बारे में चिंता की हो. हिमालय को, उत्तर से किसी भी खतरे के लिए एक अभेद्य दीवार के रूप में माना जाता रहा है. तिब्बत हमारा मित्र था, जिससे हमें कभी भी कोई परेशानी नहीं हुई. चीनी, विभाजित थे. उनकी अपनी घरेलू समस्याएं थीं और उन्होंने हमारी सीमाओं को लेकर हमारे लिए कभी भी कोई समस्या पैदा नहीं की..... ''
खत काफी लंबा है इसलिए शुरू का जरूरी हिस्सा ही यहां पर बिना काट छाट के प्रस्तुत किया गया है.
Source : News Nation Bureau