फांसी पर चढ़ने से पहले मंदिर से चरणामृत मंगाया, फांसी से कुछ दिन पहले ही सलाह लेने आए हुए आदमी को गीता पढ़ने की सलाह देने वाले युवा को आज के सेक्यूलर बौनें क्या फिर से लटका देंगे। वंदे मातरम का नारा लगाने वालों को क्या कहोंगे दोस्तों।
तारीख- 11 अगस्त, सन 1908, यानि आज से ठीक 110 साल पहले का दिन ।
"अस्थिपूर्ण और भस्म के लिए परस्पर छीना-झपटी होने लगी। कोई सोने की डिब्बी में कोई चांदी तो कोई हाथीदांत के छोटे छोटे जिब्बों में वह पुनित भस्म भर कर ले गये, एक मुट्ठी भर भस्म के लिए हजारों स्त्री-पुरूष मचल रहे थे।" ये महज 18 साल 8 महीने के नौजवान की चिता की राख थी जिसको हाथ भर में लेकर तिलक लगाने की इच्छा से हजारों लोग श्मशान के अंदर तक चले आए थे।
फांसी के तख्ते पर झूल कर परलोक जाने वाले उस नौजवान के लिए दीवानगी की हद तक भारतवासी पहुंच गए थे जिसने सदियों की गुलामी के बाद देश के खोए हुए खोए हुए आत्मगौरव को लौटा लाने की एक पहल की थी। खुदीराम बोस जिसको मां और बाप दोनों का प्यार ही बहुत दिन तक नसीब नहीं हुआ था उसने देश की मां के लिए सबसे बड़ा बलिदान दिया। 11 अगस्त के दिन स्कूलों और कॉलिज के छात्रों ने नंगे पैर कक्षाएं की।
प्रेसीडेंसी और असेंबली कॉलेज के छात्र शोक वस्त्र पहन कर कक्षाओं में आएँ। हिंदु कॉलेज के लड़के भी नंगे पैर कॉलिज पहुंचे। खुदीराम भारत के जनमानस में इस तरह से छा गये थे कि लोगों ने अपने कपड़ों पर उनसे संबंधित कविताएं लिखवा ली थी। 1910 फरवरी में सरकारी अधिकारियों के नोटिस में आया कि लोग जिन धोतियों को पहन रहे है उन पर खुदीराम का गीत छपा है। पांच गज लंबी इस धोती की किनारी पर एक गीत था और इसका दाम चार रूपये था। गीत था
एक बार विदा दे मां, फिर आऊं/.. हंसते-हंसते चढूंगा फांसी,/ देखेंगे भारतावासी।काल का बम करके तैयार,/ खड़ा था रास्ते किनारे, मां ओ ,/ बड़े लाट को मारना था मां,/ मारा और एक इग्लैंडवासी,/ एक बार विदा दे मां फिर आऊ,।। हाथ में यदि होता छुरा,/ तेरा खुदी क्या धरा जाता ? रक्त गंगा बह जाती मां। देखते जगतवासी। एक बार विदा दे मां, फिर आऊं, होता यदि ट्टू घोड़ा, तेरा खुदी क्या जाता धरा, ओ मां, एक चाबुक में चला जाता, गया गंगा काशी, एक बार विदा दे मां फिर आऊ, शनिवार सुबह दस के बाद य जज कोर्ट में अचें ना, मां ओ, हुआ दीपराम का चालान मां, खुदीराम को फांसी, एक बार विदा दे मां, फिर आऊ,. बारह लाख तैंतीस करोड़य है मां तेरे बेटा बेटी मां ओ, उनको लेकर रहना तू मां, बहुओं कोबनाना दासी, एक बार विदा दे मां,घूम आऊँकांच के बरतन, कांच की छुरी, पहन मत मां विलायती साड़ी,ओ मां मन का दुख मन ही में रहा, हुआ ना मेरा स्वदेसी , एक बार विदा दे मां,घूम आऊं, दस मास दस दिन के बाद, जन्मलूंगा मौसी के घर मां ओ, तब यदि ना पहचान सके तू, देखना गले में फांसी, एक बार विदा दे मां , फिर आऊं
लेकिन ये तस्वीर का एक पहलू है दूसरा पहलू आपको अंग्रेजपरस्त ( ज्यादातर अंग्रेजी के वो अखबार जो आज देश के सबसे वफादार के मुखौंटे में) समाचार पत्रों ने खुदीराम के कारनामे की आलोचना की। भारतीय उदार बौद्धिकों ने भी इस बम कांड की निंदा की। लेकिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मद्रास के 1908 के अपने वार्षिक अधिवेशन में इस घटना की "तीव्र निंदा" की।
इस अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष रासबिहारी बोस ने जिन शब्दों में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी समेत क्रांत्रिकारी कार्यों की निंदा की उससे तो अंग्रेज भी सकते में आ गए होगे। अंग्रेजों से भी ज्यादा भर्त्सना करने वाले इन कांग्रेंसी बंधुओं ने देश के इस अमर सपूत को मान देने की बात तो दूर की बात है उसके उद्देश्यों पर ही सवाल उठा दिये थे।
इस कहानी में ये जोड़ना भी महत्वपूर्ण है कि आजादी के बाद 1949 में खुदीराम की स्मृति स्थल का उद्घाटन करने के लिए कांग्रेस का कोई भी बड़ा नेता तैयार नहीं हुआ। और सबसे बड़ी कहानी तो ये रही कि देश के प्रधानमंत्री नेहरू ने 1949 के मुजफ्फरपुर के दौरे में इसके उद्घाटन से इंकार कर दिया था और उसके बाद बिहार के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा ने भी इंकार कर दिया।
बाद में कांग्रेस की जिलाईकाई के सभापति बृज बिहारी प्रसाद ने इसका उद्धाटन किया। नेहरू जी ने उस साल और भी कई दूसरी जगह खुदीराम के लिए बने हुए स्मारकों के उद्धाटन से इंकार किया।
Source : Dhirendra Pundir