Advertisment

Independence Day 2023: बापू के वो 3 आंदोलन जिनसे डरकर भाग खड़े हुए अंग्रेज

देश अपना 77वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. और आज के दिन अगर महात्मा गांधी की बात न हो तो फिर ये आज़ादी अधूरी लगती है.

author-image
Mohit Saxena
एडिट
New Update
Mahatma Gandhi

Mahatma Gandhi ( Photo Credit : social media )

Advertisment

आने वाली नस्लें शायद ही यक़ीन कर पाएंगी कि हाड़-मांस से बना कोई ऐसा व्यक्ति भी इस धरती पर आया होगा', ये शब्द दुनिया के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने महात्मा गांधी के लिए कहे थे. मार्टिन लूथर किंग ने लिखा था- गांधी मेरे आदर्श और भारत मेरे लिए तीर्थ समान है. लॉर्ड माउंटबेटन ने तो गांधी को बुद्ध और ईसा मसीह का दर्जा दे दिया था. साल 2009 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा एक स्कूल के दौरे पर पहुंचे. नौवीं कक्षा के छात्र ने उनसे पूछा कि अगर आप किसी व्यक्ति के साथ डिनर करना चाहेंगे चाहे वो मृत हो या जीवित, तो वौ कौन होगा? 

ओबामा ने एक पल की देरी किए बिना कहा कि वो सिर्फ़ गांधी हो सकते हैं क्योंकि वही मेरे रोल मॉडल हैं. 30 जनवरी 1948 की जब महात्मा गांधी की  हत्या हुई तब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था- हमारे जीवन से रोशनी चली गई है. वो रोशनी बापू की थी, एक ऐसे महात्मा की थी जिसने देश की आज़ादी के लिए एक अलग ही रास्ता चुना और वो रास्ता था अहिंसा और सत्याग्रह का. आज देश अपना 77वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. और आज के दिन अगर महात्मा गांधी की बात न हो तो फिर ये आज़ादी अधूरी लगती है. वो गांधी ही थे जिनकी बदौलत देश की 140 करोड़ आबादी आज़ादी की खुली हवा में जी रहा है. गांधी की बात करें उससे पहले अंग्रेज़ों के भारत आने और फिर भारत पर राज करने की कहानी को समझ लेते हैं.

ये भी पढ़ें: Independence Day 2023: वाहनों पर तिरंगा लगाने से पहले जान लें ये नियम, गलती पड़ सकती है भारी

16वीं सदी में गृह युद्ध के चलते ब्रिटेन की हालत ख़राब हो चुकी थी. राजनीतिक उथल-पुथल के बीच माली हालत भी बेपटरी हो गई थी. ऐसे में अंग्रेज़ों की नज़र सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत पर टिक गई. सोने की चिड़िया इसलिए क्योंकि तब दुनिया के कुल उत्पादन का एक चौथाई माल सिर्फ़ भारत   में तैयार होता था. साल 1608 में पहली बार अंग्रेज़ व्यापार के इरादे से भारत के सूरत बंदरगाह पहुंचे. 

तब अंग्रेज़ों का एक ही मक़सद था- भारत से अधिक से अधिक व्यापार करके पैसे हड़पना. अंग्रेज़ों के आने से पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हो  चुकी थी. धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरे भारत में अपने पैर फैलाने शुरू किए और यहीं से पूरे यूरोप में व्यापार करने लगे. बीतते समय के साथ अंग्रेज़ों  ने दूसरे देशों की कारोबारी कंपनियों को यहां से खदेड़ दिया. अब ईस्ट इंडिया कंपनी का एकछत्र राज स्थापित हो चुका था. क़रीब 150 साल तक भारत की संपदा को चूसने के बाद अंग्रेज़ों को लगा कि ये देश राज करने के लिए सबसे मुफ़ीद है. भारत में आर्थिक और सामाजिक असमानता का अंग्रेज़ों ने भरपूर फ़ायदा उठाया और यहीं से फूट डालो और राज करो की नीति शुरू हो गई. 

अब तक सिर्फ़ व्यापार तक सीमित रहने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत की राजनीति में दख़ल देना शुरू कर दिया. साल 1757 में प्लासी की लड़ाई में बंगाल के शासक सिराज़ुद्दौला की हार के साथ ही भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन शुरू हो गया. इसके ठीक सौ साल बाद 1857 का विद्रोह हुआ और अगले ही साल ईस्ट इंडिया कंपनी की भारत से विदाई हो गई. हालांकि, भारत पर अंग्रेज़ों का शासन बना रहा और सीधे ब्रिटिश क्राउन के हाथों में भारत की सत्ता चली गई. लेकिन, 1857 के इस आंदोलन ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंत की शुरुआत कर दी. इस आंदोलन के बाद ग़ुलामी की जंजीरों में बंधी जनता को शायद पहली बार अहसास हुआ कि अंग्रेज़ों को खदेड़ा जा सकता है. 

अंदरखाने ये कोशिश चलती रही और इसी बीच भारत की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया. साल 1907 में कांग्रेस पार्टी दो धड़ों में बंट गई. गरम दल और नरम दल. गरम दल के नेता बाल गंगाधर तिलक थे और नरम दल के मोतीलाल नेहरू. जहां गरम दल अंग्रेज़ों को उन्हीं की भाषा में सबक़ सिखाने को तैयार थी. यहां तक कि अंग्रेज़ों से देश को मुक्ति दिलाने के लिए गरम दल को हिंसा के रास्ते पर जाने से भी कोई गुरेज नहीं था. वहीं दूसरी ओर नरम दल बातचीत  और अंग्रेज़ी हुक़ूमत के साथ समझौतों की पक्षधर थी. अब आया साल 1915 जो कि भारत की आज़ादी के इतिहास में एक बड़ा पड़ाव था. दक्षिण अफ़्रीका में अश्वेतों पर हो रहे अत्याचार के ख़िलाफ़ सफल सत्याग्रह कर गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर महात्मा गांधी देश लौट आए. 

देश वापसी के बाद गांधी कांग्रेस में शामिल हो गए

भले ही गांधी 21 साल बाद देश लौटे थे, लेकिन लौटे तो लोगों की उम्मीद बनकर. दक्षिण अफ़्रीका में उनके सत्याग्रह की लड़ाई के क़िस्सों ने उन्हें अंग्रेज़ों का अत्याचार झेल रहे करोड़ों भारतीयों को आज़ादी का सपना दिया. देश वापसी के बाद गांधी कांग्रेस में शामिल हो गए और कुछ ही समय में आज़ादी की लड़ाई की बागडोर संभाल ली. गांधी सत्य और अहिंसा के पक्षधर थे. उनका मानना था कि ये लड़ाई हिंसा से नहीं जीती जा सकती है. उन्होंने कहा था- 'हमारा अभियान सत्ता के लिए नहीं, बल्कि पूरी तरह से भारत की आज़ादी के लिए एक अहिंसक लड़ाई है. स्वतंत्रता का एक अहिंसक सैनिक अपने लिए किसी चीज़ का लालच नहीं करेगा, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने देश की आज़ादी के लिए लड़ता है.'

भारत लौटने के दो साल बाद ही बापू ने अंग्रेज़ों को अपनी पहली धमक दिखाई. बिहार के चंपारण से गांधी ने आज़ादी की लड़ाई के लिए पहला सत्याग्रह शुरू किया. भारत में गांधी के सत्य और अहिंसा के अस्त्र का ये पहला इस्तेमाल था. चंपारण के किसान अंग्रेज़ी हुक़ूमत की बड़ी मार झेल रहे थे. उन्हें अपनी ज़मीन पर नील की खेती के लिए मजबूर किया जाता था. इसमें मेहनत बहुत लगती थी और हाथ कुछ नहीं लगता था. अंग्रेज़ों ने इतने कर थोप दिए थे कि किसान पस्त हो चुके थे. चाह कर भी वो उन खाद्य फ़सलों की खेती नहीं कर सकते थे जो उनकी आजीविका के लिए बहुत ज़रूरी थे. 

इस शोषण के ख़िलाफ़ चंपारण के किसानों ने कई बार आवाज़ उठाई लेकिन हर बार उन्हें अंग्रेज़ी हुक़ूमत के कोड़े मिलते थे. तब उस इलाक़े में एक समृद्ध किसान हुआ करते थे राजकुमार शुक्ल. अंग्रेज़ों के अत्याचार से छुटकारे के लिए साल 1916 में वो कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में पहुंच गए. मंशा थी बाल गंगाधर तिलक को साथ लाने की. लेकिन, वहां मुलाक़ात मोहनदास करमचंद गांधी से हो गई और राजकुमार शुक्ल भांप गए कि यही वो शख़्सियत है जो उनकी आवाज़ बन सकता है. हालांकि, पहली दफ़ा राजकुमार शुक्ल गांधी जी को प्रभावित नहीं कर पाए. लेकिन, कई कोशिशों के बाद गांधी मान गए और राजकुमार शुक्ल के साथ बिहार पहुंच गए.

सत्य और अहिंसा को अपना हथियार बनाया

किसानों के हक़ की लड़ाई के लिए गांधी ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सत्य और अहिंसा को अपना हथियार बनाया. यहां उन्हें मशहूर वकीलों  ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा और आचार्य कृपलानी का साथ मिला. क़रीब एक साल तक चले सत्याग्रह के बाद अंग्रेज़ी हुक़ूमत को झुकना पड़ा और लंबे समय से चली आ रही नील की खेती बंद हो गई. शोषित-पीड़ित किसानों को अंग्रेज़ों के अत्याचार से मुक्ति मिल गई. इस सत्याग्रह ने पहली बार देश को आज़ादी की राह दिखाई. इसी आंदोलन ने मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा बना दिया. रबिंद्र नाथ टैगोर इस आंदोलन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गांधी जी को महात्मा की उपाधि दे दी.

आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के क़दम यहीं नहीं रुके. चंपारण सत्याग्रह की क़ामयाबी के तीन साल बाद यानी साल 1920 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन का ऐलान कर दिया. दरअसल 1919 के जालियांवाल बाग़ हत्याकांड के बाद पूरा देश ग़ुस्से में था. ब्रिटिश हुक़ूमत के बढ़ते अत्याचार से लोग तंग आ चुके थे. दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ स्वराज की मांग तेज़ होने लगी. ऐसे समय में गांधी जी ने एक और सत्याग्रह का बीड़ा उठाया और इसे नाम दिया असहयोग आंदोलन. 1 अगस्त 1920 को इस आंदोलन के शुरू होते ही बहुत बड़ा जनसमर्थन उमड़ पड़ा. 

अंग्रेज़ी हुक़ूमत का सहयोग कर रहे लोग

अंग्रेज़ी हुक़ूमत का सहयोग कर रहे लोग असहयोग पर उतर आए. छात्रों ने स्कूल-कॉलेज जाना बंद कर दिया. मज़दूर हड़ताल पर चले गए. अदालतों में वकील आना बंद हो गए. लोगों ने अंग्रेज़ों को कर चुकाना बंद कर दिया. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ 1921 में 396 हड़तालें हुई जिनमें 6 लाख मज़दूर शामिल थे. इन हड़तालों से सरकार को 70 लाख का नुक़सान हुआ. अचानक से गोरों की पूरी व्यवस्था धाराशायी हो गई. 1857 के विद्रोह के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि ब्रिटिश राज की चूलें हिल गईं. पूरी तरह अहिंसा के रास्ते पर चल रहा ये आंदोलन जब अपने चरम पर था, तभी साल 1922 में गोरखपुर में चौरा-चौरी कांड हो गया. हिंसक भीड़ ने पुलिस थाने को फूंक दिया. कई पुलिसवाले मारे गए. अहिंसा के पुजारी गांधी जी इस हिंसा से इतने आहत हुए कि उन्होंने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया. चौरी-चौरा कांड के तुरंत बाद गांधी जी को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया. लेकिन, इस आंदोलन ने भारतीयों में एक अलग चेतना पैदा कर दी. 

आंदोलन को अगस्त क्रांति का भी नाम दिया गया

लेकिन, जेल भी बापू की लड़ाई को रोक नहीं पाई. 1930 में नमक सत्याग्रह और 1933 में छूआछूत के विरोध दलित आंदोलन कर महात्मा गांधी ने भारत की लड़ाई को एक नई दिशा दी. लेकिन, साल 1942 भारतीय इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ. इस बार फिर एक आंदोलन हुआ और उस आंदोलन के अगुवा फिर महात्मा गांधी थे. 1939 में अंग्रेज़ों ने बिना मर्ज़ी के भारत को दूसरे विश्व युद्ध में धकेल दिया था. जबरन लोगों को फ़ौज में भर्ती किया गया था. विश्वयुद्ध के शुरुआती दो-ढाई साल में ही भारत के हज़ारों युवा शहीद हो गए थे. अंग्रेज़ों का ये अत्याचार ही भारत छोड़ो आंदोलन की वजह बना. 8 अगस्त 1942 को शुरू हुए इस आंदोलन को अगस्त क्रांति का भी नाम दिया गया. मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में बापू का भाषण हुआ और यहीं 'करो या मरो' का नारा दिया गया, बाद में इस मैदान को अगस्त क्रांति मैदान का नाम दिया गया. अंग्रेज़ों भारत छोड़ो के नारे के साथ पूरा देश इस आंदोलन के साथ खड़ा हो गया. अगले ही दिन हज़ारों लोग जेल में डाल दिए गए. महात्मा गांधी को भी जेल में डाल दिया गया. लेकिन, लोग डरे नहीं और ऐसा जनसैलाब उमड़ा कि ब्रिटिश हुक़ूमत की जड़ें हिल गईं. पहली बार देश के युवा बड़ी तादाद में आंदोलन के साथ खड़े थे. गोरे एक ओर दूसरे विश्व युद्ध में उलझे थे और दूसरी ओर भारत में उनके अंत की शुरुआत हो गई थी. अंग्रेज़ों को इस आंदोलन को ख़त्म कराने में क़रीब एक साल का वक़्त लग गया. आंदोलन तो ख़त्म हो गया, लेकिन इससे ऐसी चिंगारी उठी जो पांच साल बाद अंग्रेज़ों को भारत से विदा करने के बाद ही शांत हुई.

(By- Saroj Kumar)

Source : News Nation Bureau

newsnation newsnationtv independence-day-2023 Mahatma Gandhi Indian independence three movements of Mahatma Gandhi
Advertisment
Advertisment
Advertisment