Independence Day 2020: आजादी की जंग में मुसलमानों की भूमिका... इतनी कम भी नहीं

1498 की शुरुआत से लेकर 1947 तक मुसलमानों ने विदेशी आक्रमणकारियों से जंग लड़ते हुए ना सिर्फ शहीद हुए बल्कि बहुत कुछ कुर्बान कर दिया.

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Nihar Saxena
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Ashfaqulla Khan

मुसलमानों ने भी जगाई थी अलख गुलाम भारत में आजादी की. ( Photo Credit : न्यूज नेशन)

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भारत (India) को ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी दिलाने में अनगिनत मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों (Freedom Fighters) ने अपनी जान की कुर्बानी दी, लेकिन जब भी स्वतंत्रता आंदोलन की बात होती है तो सिर्फ एक ही नाम सामने आता है. वह और कोई नहीं बल्कि अशफाक उल्लाह खान हैं. सवाल यह है कि क्या सिर्फ अशफाक उल्लाह खान ही भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल थे? अगर देखा जाए तब आप देखेंगे कि 1498 की शुरुआत से लेकर 1947 तक मुसलमानों ने विदेशी आक्रमणकारियों से जंग लड़ते हुए ना सिर्फ शहीद हुए बल्कि बहुत कुछ कुर्बान कर दिया.

मदनी का राष्ट्रप्रेम
मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ फतवा दिया कि अंग्रेज़ों की फौज में भर्ती होना हराम है. अंग्रेज़ी हुकूमत ने मौलाना के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया. सुनवाई में अंग्रेज़ जज ने पूछा, 'क्या आपने फतवा दिया है कि अंग्रेज़ी फौज में भर्ती होना हराम है?' मौलाना ने जवाब दिया, ‘हां फतवा दिया है और सुनो, यही फतवा इस अदालत में अभी दे रहा हूं और याद रखो आगे भी ज़िंदगी भर यही फतवा देता रहूंगा.’ इस पर जज ने कहा, 'मौलाना इसका अंजाम जानते हो? सख्त सज़ा होगी.' जज की बातों का जवाब देते हुए मौलाना कहते हैं कि फतवा देना मेरा काम है और सज़ा देना तेरा काम. मौलाना की बातें सुनकर जज क्रोधिए हुए और कहा कि इसकी सज़ा फांसी है. इस पर मौलाना ने मुस्कुराते हुए अपनी झोली से एक कपड़ा निकाल कर मेज पर रख दिया और जज के पूछने पर बोले 'यह मेरा कफन है'. गौरतलब है कि फतवे और इस घटना के असर में हज़ारों लोग फौज़ की नौकरी छोड़कर जंग-ए-आज़ादी में शामिल हो गए.

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शाह अब्दुल अजीज़ का अंग्रेज़ों के खिलाफ फतवा
1772 मे शाह अब्दुल अजीज़ ने अंग्रेज़ों के खिलाफ जेहाद का फतवा दे दिया (हमारे देश का इतिहास 1857 की मंगल पांडे की क्रांति को आज़ादी की पहली क्रांति माना जाता हैं) जबकि सच्चाई यह है कि शाह अब्दुल अजीज़ 85 साल पहले हिन्दुस्तानियों के दिलों मे आज़ादी की क्रांति की लौ जला चुके थे. इस जेहाद के ज़रिए उन्होंने कहा कि अंग्रेज़ों को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो. यह फतवे का नतीजा था कि मुसलमानों के अंदर एक शऊर पैदा होना शुरू हो गया कि अंग्रेज़ लोग सिर्फ अपनी तिजारत ही नहीं चमकाना चाहते बल्कि अपनी तहज़ीब को भी यहां पर ठूंसना चाहते हैं.

हैदर अली और टीपू सुल्तान की वीरता
हालांकि आज टीपू सुल्तान को लेकर विवाद है, लेकिन हैदर अली और बाद में उनके बेटे टीपू सुल्तान ने ‘ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी’ के प्रारम्भिक खतरे को समझा और उसका विरोध किया. टीपू सुल्तान भारत के इतिहास में एक ऐसे योद्धा भी थे जिनकी दिमागी सूझबूझ और बहादुरी ने कई बार अंग्रेज़ों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. अपनी वीरता के कारण ही वह ‘शेर-ए-मैसूर’ कहलाए. अंग्रेज़ों से लोहा मनवाने वाले बादशाह टीपू सुल्तान ने ही देश में अंग्रेज़ों के ज़ुल्म और सितम के खिलाफ बिगुल बजाया था और जान की बाज़ी लगा दी मगर अंग्रेजों से समझौता नहीं किया. टीपू अपनी आखिरी सांस तक अंग्रेज़ों से लड़ते-लड़ते शहीद हो गए. टीपू की बहादुरी को देखते हुए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें विश्व का सबसे पहला रॉकेट आविष्कारक बताया था.

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बहादुर शाह ज़फर
बहादुर शाह ज़फर (1775-1862) भारत में मुगल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह और उर्दू भाषा के माने हुए शायर थे. उन्होंने 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया. इस जंग में हार के बाद अंग्रेज़ों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहां उनकी मृत्यु हुई.

गदर आंदोलन
गदर शब्द का अर्थ है विद्रोह, इसका मुख्य उद्देश्य भारत में क्रांति लाना था जिसके लिए अंग्रेज़ी नियंत्रण से भारत को स्वतंत्र करना आवश्यक था. गदर पार्टी का हेडक्वार्टर ‘सैन फ्रांसिस्को’ में स्थापित किया गया. भोपाल के ‘बरकतुल्लाह’ गदर पार्टी के संस्थापकों में से एक थे जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था. गदर पार्टी के सैयद शाह रहमत ने फ्रांस में एक भूमिगत क्रांतिकारी रूप में काम किया और 1915 में असफल गदर (विद्रोह) में उनकी भूमिका के लिए उन्हें फांसी की सज़ा दी गई. फैज़ाबाद (उत्तर प्रदेश) के अली अहमद सिद्दीकी ने जौनपुर के सैयद मुज़तबा हुसैन के साथ मलाया और बर्मा में भारतीय विद्रोह की योजना बनाई और 1917 में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया.

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खुदाई खिदमतगार मूवमेंट
‘लाल कुर्ती आंदोलन’ भारत में पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खान द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थन में खुदाई खिदमतगार के नाम से चलाया गया जो कि एक ऐतिहासिक आंदोलन था. विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी 3 वर्ष के लिए हुई थी. उसके बाद उन्हें यातनाएं झेलने की आदत सी पड़ गई. जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ने के लिए ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक संस्था की स्थापना की और अपने आंदोलनों को और भी तेज़ कर दिया.

अलीगढ़ आंदोलन
सर सैय्यद अहमद खां ने ‘अलीगढ़ मुस्लिम आंदोलन’ का नेतृत्व किया. वे अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भिक काल में राजभक्त होने के साथ-साथ कट्टर राष्ट्रवादी थे. उन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया. 1884 ई. में पंजाब भ्रमण के अवसर पर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए सर सैय्यद अहमद खां ने कहा था कि हमें (हिन्दू और मुसलमानों को) ‘एक मन एक प्राण’ हो जाना चाहिए और मिल-जुलकर कार्य करना चाहिए. यदि हम संयुक्त हैं, तब एक-दूसरे के लिए बहुत अधिक सहायक हो सकते हैं. यदि नहीं तो एक का दूसरे के विरूद्ध प्रभाव दोनों का ही पूर्णतः पतन और विनाश कर देगा. एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था कि हिन्दू एवं मुसलमान शब्द केवल धार्मिक विभेद को व्यक्त करते हैं, परन्तु दोनों एक ही राष्ट्र हिन्दुस्तान के निवासी हैं.

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