अकबर इलाहाबादी का एक बड़ा मशहूर शेर है- खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो. जाहिर है इसके पीछे उनका आशय यही था कि सिर्फ तलवार से नहीं, बल्कि अखबार अथवा कलम के जरिए भी आजादी हासिल की जा सकती है. इस लिहाज से देखें तो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन (Indian Independence) को सफल बनाने में पत्रकारिता का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है. यह अलग बात है कि गुलाम भारत में पत्रकारिता की नींव रखने वाले अंग्रेज ही थे. भारत में सबसे पहला समाचार पत्र जेम्स अगस्टस हिक्की ने वर्ष 1780 में 'बंगाल गजट' (Bengal Gazette) निकाला.
अंग्रेज पत्रकार ने अंग्रेजों का किया विरोध
रोचक बात यह है कि अंग्रेज होते हुए भी उन्होंने अपने पत्र के माध्यम से अंग्रेजी शासन की आलोचना की, जिससे परेशान गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने उन्हें मिलने वाली डाक सेवाएं बंद कर दी और उनके पत्र प्रकाशन के अधिकार समाप्त कर दिए. उन्हें जेल में डाल दिया गया और जुर्माना लगाया गया. यह अलग बात है कि किसी हिंदुस्तानी स्वतंत्रता सेनानी की तरह ही उन्होंने भी जेल में रहकर अपने कलम की पैनी धार को कम नहीं किया और वहीं से लिखते रहे.
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'हिंदोस्तान' से 'लीडर' तक
इस शुरुआती दौर के बाद के सालों में भी प्रेस को काफी कुछ झेलना पड़ा, लेकिन कलम झुकी नहीं और वह आजादी हासिल करके ही रही. 'हिंदोस्तान', 'सर्वहितैषी', 'हिंदी बंगवासी', 'साहित्य सुधानिधि', 'स्वराज्य', 'नृसिंह', 'प्रभा प्रभृति' आदि समाचारपत्रों ने जागरण मंत्र के जरिए अंग्रेज शासकों के दांत खट्टे किए. इलाहाबाद से 1907 में बसंत पंचमी के दिन मदन मोहन मालवीय ने 'अभ्युदय' साप्ताहिक निकाला. निर्भीकता, राष्ट्रप्रेम तथा समाज सुधार में अग्रणी यह पत्र 1918 में दैनिक भी हुआ. सरदार भगत सिंह की फांसी के बाद पत्र ने 'फांसी अंक' निकालकर क्रांति मचा दी. मालवीय की प्रेरणा से ही 'लीडर' का प्रकाशन हुआ, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन को गति प्रदान की. इसी प्रकार नवंबर 1907 से पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने 'नृसिंह' का प्रकाशन शुरू किया जो न्याय व औचित्य का रक्षक था. यह पत्र कांग्रेस के गरम दल को राष्ट्रीय तथा नरम दल को धृतराष्ट्रीय कहता था.
क्षेत्रीय भाषाओं में भी आजादी की अलख
इसी तरह एक लिपि विस्तार परिषद ने जातीय उत्थान के लिए भावनात्मक एकता को महत्व दिया, फलतः शारदाचरण मित्र के इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए 'देवनागर' का संपादन यशोदानंदन अखौरी ने किया. 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' (1897) तथा 'सरस्वती' (1900) ने अपने साहित्यिक स्वरूप को बनाए रखा तथा 'जागरण संदेश' को प्रसारित कर राजनेता और पत्रकारों ने 1885 से 1919 ईस्वी तक भारतवासियों को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जागरूक किया. इसके अलावा महात्मा गांधी, ऐनी बेसेंट, राजाराम मोहन राय, दयाल सिंह मजीठिया तथा कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने भी कई अखबार निकाले और भारत की आजादी के लिए बहुमूल्य योगदान दिया. न केवल हिंदी व उर्दू अखबारों, बल्कि अंग्रेजी व स्थानीय भाषाओं के अखबारों का भी स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है. अंग्रेजों के शासन काल ही में कई अंग्रेजी अखबारों की भी शुरुआत हुई, लेकिन उनमें से अधिकांश अंग्रेज भक्ति से ही सराबोर रहे. ऐसे में इस भाषा पर यहां बात करना उचित नहीं रहेगा.
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हिंदी कवि भी नहीं रहे पीछे
ऐसा नहीं कि सिर्फ विचारकों और बुद्धिजीवियों ने अपनी-अपनी कलम से आजादी के संघर्ष को धार दी. स्वतंत्रता से पहले कवि भी अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए कलम रूपी तलवार का उपयोग कर रहे थे. मैथिलीशरण गुप्त का समग्र काव्य इसी भावना से अनुप्राणित है. ‘बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी’, ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ कविता भी इसी परिपाटी की थी, माखन लाल चतुर्वेदी की ‘पुष्प की अभिलाषा’, प्रसाद की समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती, 'मेरा रंग दे बसंती चोला…' ऐसे अनेक गीत क्रांति की ज्वाला को अनंत ऊर्जा से प्रकट कर उठते थे' कवियों ने भी अलग-अलग ढंग से अपनी भावनाओं को व्यक्त किया.