लोकनायक के नाम से मशहूर जय प्रकाश नारायण उर्फ जेपी नारायण को भारतीय राजनीति में समाजवाद का वाहक माना जाता है. हालांकि 1920 में जन्में इस क्रांतिकारी और राजनेता के बारे में कहा जाता है कि वो अपने शुरुआती जीवन में रूसी क्रांति से प्रभावित थे. लेकिन जब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सानिध्य में आये तो सत्य और अहिंसा के गांधीवादी दर्शन को अपना लिया.
जेपी ने समाजवाद के जरिए आजादी के बाद सरकार से असंतुष्ट हो रही जनता को जोड़ा. सरकारी तंत्र से त्रस्त जनता के दर्द को देखते हुए जेपी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ दिनकर का कविता को नारे के रूप में इस्तेमाल किया और सरकारी महकमें के खिलाफ जंग छेड़ते हुए कहा,'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'.
इंदिरा के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत
जयप्रकाश नारायण उन ऊर्जा स्त्रोतों में से एक थे जिनके विचारों ने देश भर के युवाओं में एक अलग जोश भर दिया था. उनके विचारों और युवाओं के बीच बढ़ती लोकप्रियता ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अंदर उनकी सरकार के गिर जाने का खौफ पैदा कर दिया था.
70 के दशक की शुरुआत थी, जहां तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हाल की उपलब्धियों के जश्न मे डूबी हुई थी, वहीं देश की जनता महंगाई से त्रस्त और पीड़ित थी. इंदिरा गांधी के लिए हाल ही में मिली लोकसभा चुनाव में भारी जीत और फिर पाकिस्तान को जंग के मैदान में मिली करारी शिकस्त ने इनके कद को काफी मजबूत बना दिया था.
इंदिरा का 'गरीबी हटाओ' का नारा सुपरहिट था तो पोखरण में परमाणु परीक्षण ने उन्हें विश्व के सबसे शक्तिशाली लोगों की गिनती में ला खड़ा कर दिया.
जहां एक ओर सरकार अपनी उपलब्धियों में फूले नहीं समा रही थी, वहीं दूसरी ओर देश की जनता देश में बढ़ रही बेरोजगारी और महंगाई से त्रस्त हो रही थी. लोगों में लगातार असंतोष का भाव पनप रहा था, जिस कारण आए दिन चक्का जाम, हड़ताल और प्रदर्शन देखने को मिल रहे थे.
लोगों की पीड़ा और दर्द को देखते हुए जेपी ने तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी को खत लिखकर लोगों की हालत की जानकारी दी. इतना ही नहीं उन्होंने देश के अन्य सांसदों को भी खत लिखा. हालांकि तत्कालीन सरकार ने इस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया.
तत्कालीन सरकार पर भले ही जेपी के खत का कोई असर न हुआ हो लेकिन इस खत ने देश के युवाओं को उनके विचारों से जोड़ने का काम किया.
शुगर स्कैंडल पर इंदिरा रही नाकाम
इसी दौरान एक बेहद ही दर्दनाक घटना घटी जिसे इतिहास में 'शुगर स्कैंडल' के नाम से जाना जाता है, इस स्कैंडल में राशन की दुकान में बहुत से कोटेदार चीनी में पिसी हुई कांच को मिलाकर लोगों को बांट रहे थे. कालाबाजारी तब भी आम बात थी, इसलिए कांच के बुरादे में मिली चीनी सिर्फ राशन की दुकानों तक ही नहीं सीमित रही बल्कि वह फुटकर दुकान तक भी पहुंच गई.
इसके चलते देश में बच्चों समेत कई लोगों की मौत की घटनाएं सामने आई. हालांकि सरकार इस पर भी रोक लगा पाने में नाकाम रही.
देश में भ्रष्टाचार का माहौल जोरों पर था और तत्कालीन प्रधानमंत्री इस पर लगाम लगाने में असफल हो रही थी. इस वक्त तक कांग्रेस के कुल वित्तीय कोष में सबसे ज्यादा हिस्सा निजी चंदों का ही होती था, जिसके चलते कई कांग्रेसी सदस्य आर्थिक लाभ के लिए लोगों को राजनीतिक सुविधाएं मुहैया कराने लगे.
गुजरात छात्र आंदोलन
1973 के दौरान कोष को बढ़ाने के लिए इंदिरा गांधी ने राज्यों की कांग्रेस सरकारों से चंदा लेने की मांग की. उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल से भी राज कोष में 10 लाख रुपए जमा कराने की मांग की. चिमनभाई पटेल ने चंदे की रकम जुटाने के लिए उत्पादकों से मोटी रकम ली और राज्य में खाना पकाने के तेल के दामों में वृद्धि की अनुमति प्रदान कर दी.
इतना ही नहीं उन्होंने गुजरात में पढ़ रहे छात्रों के लिए बने छात्रावासों की फीस बढ़ा दी, न सिर्फ फीस बल्कि वहां मिलने वाले सभी जरूरी सामान की कीमतों में भी काफी इजाफा कर दिया गया.
सरकार के इस इजाफे के बाद देश की महंगाई दर जो अभी तक 20 से 25 फीसदी के बीच गोते खा रही थी एकदम से 33 फीसदी के पार पहुंच गई.
बेरोजगारी की मार से त्रस्त छात्रों के लिए महंगाई की यह मार सहन नहीं हो पाई और उन्होंने इसके खिलाफ खड़े होने का फैसला किया. सरकार के इस फैसले से लोगों में रोष बढ़ गया और राज्य में दंगे जैसी स्थिति फैल गई. आए दिन दुकानें लूटने की खबर सामने आने लगीं. घरों में डकैती की घटनाएं बढ़ गई, बसें जलाई जाने लगी और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जाने लगा.
इस दौरान सरकार ने पुलिस बल का प्रयोग छात्रों के आंदोलन को दबाने के लिए किया, जिसके चलते कई आंदोलनकारी मारे गए. तत्कालीन प्रधानमंत्री स्थिती को संभाल पाने में नाकाम नजर आ रही थी कि तभी उन्होंने मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के इस्तीफे की तारीख घोषित कर दी.
हालांकि इससे चिमनभाई के रवैये में कोई खास फर्क नहीं आया, तब तक लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने छात्रों के इस आंदोलन को समर्थन देने की घोषणा कर दी और आंदोलन में शामिल होने गुजरात जाने की तैयारी शुरू कर दी.
इंदिरा गांधी ने किसी भी राजनीतिक बवाल से बचने और राज्यपाल के जरिए सत्ता अपने पास रखने के लिए चिमनभाई पटेल से 9 फरवरी 1974 को (जयप्रकाश नारायण के गुजरात आने से दो दिन पहले) ही इस्तीफा ले लिया.
राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका था, हालांकि जनसंघ नेता मोरारजी देसाई ने जेपी के साथ मिलकर लगातार राज्य में दोबारा चुनाव कराने की मांग रखी. कहा जाये तो कांग्रेस कुछ वक्त के लिए गुजरात में अपनी सत्ता बचा पाने में कामयाब हो गयी थी.
मीसा एक्ट (दि मेंटेनेंस ऑफ सिक्योरिटी एक्ट) का लागू होना
जहां इंदिरा सरकार के दामन से गुजरात छात्र आंदोलन की आंच अभी शांत भी नहीं हो पाई थी वहीं दूसरी ओर रेलवे के करीब 17 लाख कर्मचारियों ने हड़ताल का ऐलान कर सरकारी महकमे के आगे एक नया वित्तीय संकट खड़ा कर दिया था. कर्मचारियों की मांग थी कि महंगाई को देखते हुए उनके वेतन में 75 फीसदी की वृद्दि की जाए और काम के घंटों को 8 तक निर्धारित किया जाए.
कांग्रेस सरकार ने रेलकर्मियों की मांगों को मानने से इंकार करते हुए उन्हें वापस काम पर लौटने की नसीहत दे डाली.
द रेड साड़ी पुस्तक के अनुसार तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने एक यूनियन कॉन्फ्रेंस में कहा,' जिस देश में लाखों लोगों के पास नौकरी नहीं है और जहां लाखों लोग अस्थाई नौकरियों के बीच हैं. वहीं अवसरों का समान विभाजन चाहिए. कर्मचारियों को समझना चाहिए कि हमारे जैसे देश में लोगों के पास नौकरी का होना ही अपने आप में एक सुविधा औऱ लाभ हैं.
पीएम के इस बयान के बाद लोगों में उनके प्रति रोष बढ़ गया, लेकिन लोगों के गुस्से से बेपरवाह इंदिरा ने एक और तानाशाही कदम उठाया. दूसरे शब्दों में कहे तो यह आपातकाल से पहले आपातकाल के लगने की चेतावनी थी.
इंदिरा ने मीसा एक्ट लागू कर दिया जिसके अनुसार पुलिस रेलवे कॉलोनियों पर धावा बोलती और वहां रहने वाले रेलवे कर्मियों को जबरदस्ती काम पर जाने के लिए मजबूर करती. जो कर्मी इस बात का विरोध करता पुलिस उसे गिरफ्तार कर प्रताड़ित करती थी. इस एक्ट के अनुसार सरकारी आवास में रहने वाले कर्मचारी सरकारी नियमों की अवहेलना नहीं कर सकते थे.
इस दौरान कई हिसंक झड़पों और पुलिस प्रताड़ना की खबरे सामने आई लेकिन हर बार सरकार ने ताकत का उपयोग कर लोगों के विरोध को दबाने का काम किया. 20 दिन के अंदर पूरी रेलवे हड़ताल को दबा दिया गया और रेलकर्मियों को वापस काम पर लौटने पर मजबूर कर दिया गया.
जेपी ने किया संपूर्ण क्रांति का आह्वान
गुजरात की तरह बिहार में भी छात्रों ने सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था और विधानसभा की ओर कूच कर रहे थे. विधानसभा को घेराव करने से रोकने के लिए पुलिस ने बल का प्रयोग किया औऱ गोलियां भी चलाई. इस घटना में कई छात्रों की मौत हो गई जिसके बाद छात्रों ने जय प्रकाश नारायण से आंदोलन का कमान संभालने की मांग की.
जेपी ने छात्रों की आंदोलन संभालने की मांग की बात को तो कबूल लिया लेकिन उन्होंने कहा कि इस आंदोलन में कोई भी व्यक्ति किसी भी पार्टी से जुड़ा हुआ नहीं होना चाहिए.
8 अप्रैल 1974 को जयप्रकाश नारायण ने विरोध के लिए जुलूस निकाला, जिसमें सत्ता के खिलाफ आक्रोशित जनता ने हिस्सा लिया. इसमें हजारों ही नहीं लाखों लोगों ने भाग लिया और खुद जयप्रकाश नारायण ने इसकी अगुवाई की थी.
5 जून 1974 को पटना के गांधी मैदान में छात्रों को संबोधित करते हुए जेपी ने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था.
उन्होंने कहा,' भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना, आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं, क्योंकि यह समस्याएं इस व्यवस्था की ही उपज हैं. वो तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रान्ति, ’सम्पूर्ण क्रान्ति’ आवश्यक है.'
जेपी ने संपूर्ण क्रांति का आह्वाहन करते हुए कहा कि इसका एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस को सत्ता से पूरी तरह से उखाड़ फेंकना है.
जब इंदिरा से मिलने पहुंचे जेपी नारायण
राजनीति से परे भी जेपी की एक खास शख्सियत थी जिसका पता नवंबर 1974 में हुई मुलाकात से पता चलता है. द रेड साड़ी पुस्तक में इस मुलाकात का जिक्र है जहां इंदिरा से मुलकात के लिए जेपी दिल्ली पहुंचे थे.
जेपी ने इंदिरा से मुलाकात कर बिहार की भ्रष्ट सरकार के बारे में बताया तो इंदिरा ने कहा कि उन्हें भ्रष्टाचार के बारे में जानकारी है.
इस पर जेपी ने इंदिरा से बिहार की सरकार को बर्खास्त करने की मांग की जिस पर इंदिरा ने जवाब दिया कि वो ऐसा नहीं कर सकती. प्रजातंत्र के आधार पर चुनी सरकार को हटाने का अधिकार उनके पास नहीं है.
मीटिंग के दौरान इंदिरा ने जेपी पर इल्जाम लगाया कि वो संयुक्त राष्ट्र और सीआईए के बहकावे में उन्हें सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं, जबकि इंदिरा भारत को सोवियत यूनियन की सैटेलाइट में बदलना चाहती हैं.
मीटिंग में दोनों के बीच कोई समाधान नहीं निकल सका. हालांकि मीटिंग के बाद जेपी ने उनसे अलग से एकांत में मिलने का समय मांगा.
इंदिरा राजी हो गई और वो जेपी से बिना अपने सलाहकारों के मिली. इस दौरान जेपी उनसे राजनीतिक कटुता होने के बावजूद प्रेम से पेश आए.
जेपी ने इंदिरा को अपनी पत्नी प्रभावती का एक फोल्डर थमाया जिसमें उन पत्रों का संकलन था जो कि 50 साल पहले कमला नेहरू ने उनकी पत्नी प्रभावती को आजादी के संघर्ष के दौरान लिखे थे.
जेपी ने इंदिरा को बताया कि यह पत्र उन्होंने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद संभाल कर रखे हुए थे और उन्हें सही हाथों में सौंपने का इंतजार कर रहे थे.
जेपी के इस नए रूप को देखकर इंदिरा द्रवित हो उठी. उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति राजनीतिक स्तर पर मुझे पूरी तरह से खत्म करने पर अामादा है वही मुझे जीवन की सबसे अनमोल भेंट दे रहा है.
गुजरात में हार बना कांग्रेस के लिए आपातकाल की घंटी
12 जून 1975 को जब गुजरात चुनाव के परिणाम घोषित हुए तो यह बात साफ हो गई कि जनता पार्टी के सामने कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई. हालांकि जनता पार्टी ने 5 दलों का गठबंधन कर कांग्रेस को गुजरात से बाहर का रास्ता दिखाया था. इंदिरा गुजरात चुनाव परिणामों का असर अन्य राज्यों तक नहीं पहुंचने देना चाहती थी. इसलिए उन्होंने 25 जून 1975 की रात को डेढ़ बजे जेपी को गिरफ्तार करवा लिया.
जेपी ने हंसते हुए अपनी गिरफ्तारी दी और बस एक ही बात कही- विनाश काले विपरीत बुद्धि, जेपी को संसद मार्ग थाने ले जाया गया था.
अगले ही दिन से देश में आपातकाल लागू हो चुका था.
Source : Vineet kumar