चुनाव में विरोधियों के सामने कभी हार नहीं मानने वाले डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि आज जिंदगी की जंग हार गए। करुणानिधि देश में शायद एक मात्र ऐसा नेता थे जिन्होंने जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक का दौर देखा। अभी हाल ही में उन्होंने अपना 94वां बर्थडे मनाया था। करीब 50 सालों से द्रविड़ मुनेत्र कडगम (DMK) की कमान संभाल रहे करुणानिधि पहली बार उस वक्त विधायक बने जब पंडित जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे। तब से लेकर आज कर वो कभी तमिलनाडु में चुनाव नहीं हारे और करीब 12 बार जीत कर विधानसभा पहुंचे।
1957 में करुणानिधि ने अपना पार्टी के लिए जमकर पसीना बहाया और पहली बार विधानसभा पहुंचे। 1967 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर करुणानिधि पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने थे और तब से लेकर साल 2003 तक उन्होंने पांच बार राज्य की कमान संभाली।
सिर्फ 14 साल में थाम लिया था राजनीति का दामन
करुणानिधि ने सिर्फ 14 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़कर राजनीति में कूद पड़े थे। साल 1937 में हिंदी विरोध की आवाज बुलंद करते हुए करुणानिधि ने हिंदी हटाओ आंदोलन की तख्ती लेकर लोगो के बीच में पहुंच गए और तमिल भाषा को अपना हथियार बनाते हुए स्कूलों में हिन्दी को अनिवार्य किए जाने का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने हिन्दी को लेकर अखबारों में आर्टिकल लिखा और नाटकों के जरिए भी हिंदी का विरोध किया।
करुणानिधि की तमिल भाषा पर बेहतरीन पकड़ को देखते हुए उस वक्त के राजनेता पेरियार और अन्ना दुराई ने उन्हें कुदियारासु का संपादक बना दिया था जिसके बाद राजनीतिक में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई और वो मंझे हुए राजनेता बन गए।
पत्नी की जगह पार्टी को दी अहमियत
एम करुणानिधि अपनी पत्नी से भी ज्यादा अहमियत पार्टी को देते थे शायद यही वजह है कि उनकी पत्नी जब बिस्तर पर आखिरी सांसें गिन रही थी तो उसवक्त भी करुणानिधि अपना फर्ज नहीं भूले और पार्टी की बैठक में जाकर हिस्सा लिया। करुणानिधि के इस कदम से पार्टी में उनकी लोकप्रियता और बढ़ गई और एक आम कार्यकर्ता से लेकर बड़े नेता तक उन्हें बेहद सम्मान से देखने लगे।
Source : News Nation Bureau