मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को रोजगार और शिक्षा में 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है. केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सोमवार को इसकी मंजूरी दे दी. इसके तहत सरकार सालाना 8 लाख रुपये तक की कमाई वाले को आर्थिक रूप से कमजोर माना जाएगा. साथ ही इसमें 5 एकड़ से कम कृषि योग्य भूमि वाले लोग, 1000 वर्ग फीट से कम के क्षेत्रफल में बने घर को भी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की कैटगरी में माना जाएगा. केंद्र सरकार 10 फीसदी आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश करेगी.
अगर यह 10 फीसदी आरक्षण लागू हो जाता है तो इससे सुप्रीम कोर्ट के द्वारा तय आरक्षण दिए जाने की 50 फीसदी की सीमा पार हो जाएगी. इसके अलावा आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का संविधान में कोई प्रावधान नहीं है इसलिए सरकार संविधान संशोधन बिल लाएगी.
संविधान के अनुच्छेद-16(4) के अनुसार राज्य को पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है. 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण में 50 फीसदी की सीमा तय की थी.
अभी पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जाति-जनजातियों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में कुल 49.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है. जिसमें अनुसूचित जाति (SC) को 15 फीसदी, अनुसूचित जनजाति (ST) को 7.5 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को 27 फीसदी आरक्षण की वयवस्था है.
सवर्णों को आरक्षण का प्रस्ताव कई बार हुआ है खारिज
1990 में ओबीसी को आरक्षण देने के मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के बाद पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने 1991 में आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण का दिए जाने का फैसला किया था. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में इसे निरस्त कर दिया था और 50 फीसदी की सीमा लगा दी थी.
साल 2016 में गुजरात सरकार ने भी सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़ों को 10 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की थी. इसके तहत 6 लाख रुपये तक की वार्षिक आय वाले परिवार को आरक्षण का लाभ मिलना था लेकिन उसी साल अगस्त में गुजरात हाई कोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया था.
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राजस्थान सरकार ने भी सितंबर 2015 में गरीब सामान्य वर्ग के लोगों को 14 फीसदी आरक्षण देने के लिए विधेयक पारित किया था. बाद में राजस्थान हाई कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था. हरियाणा की तत्कालीन भूपेन्द्र सिंह हुड्डा सरकार ने आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण को मंजूरी दी थी. लेकिन वहां भी इसे खत्म कर दिया गया.
1978 में बिहार में सवर्णों को 3 फीसदी आरक्षण देने के फैसले को कोर्ट ने खारिज कर दिया था. तत्कालीन कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने की व्यवस्था की थी.
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लोकसभा चुनाव से ठीक दो-तीन महीने पहले केंद्र सरकार का ये फैसला चुनावी स्टंट माना जा रहा है. मौजूदा सरकार के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण देना इतना आसान भी नहीं है इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 को संशोधित करना होगा और इसके लिए लोकसभा और राज्यसभा में विधेयक को पारित कराना होगा.
पूर्व एडिशनल सॉलिसीटर जनरल अमरेन्द्र शरण ने न्यूज़ नेशन को बताया कि सरकार के इस कदम से करीब 60% आरक्षण हो जाएगा. ये सुप्रीम द्वारा तय (अधिकतम 50 फीसदी) आरक्षण की सीमा से ज़्यादा है. लिहाज़ा उसकी न्यायिक समीक्षा हो सकती है. सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को वैध ठहराना सरकार के लिए मुश्किल होगा.
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Source : News Nation Bureau