महाराष्ट्र (Maharashtra) में 19 दिनों की राजनीतिक उठापटक के बाद मोदी सरकार (Modi Sarkar) ने राज्य में राष्ट्रपति शासन (President Rule) की अनुशंसा राष्ट्रपति को भेज दी और यह थोड़ी देर बाद लागू भी हो गया. दूसरी ओर, शिवसेना (Shiv Sena) सहित पूरे विपक्ष ने राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के फैसले की आलोचना की है. शिवसेना ने तो महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में याचिका भी दायर कर दी है. इससे पहले मोदी सरकार राष्ट्रपति शासन को लेकर उत्तराखंड (Uttarakhand) और फिर अरुणाचल प्रदेश (Arunachal pradesh) में मुंह की खा चुकी है. हालांकि इस बार का मसला थोड़ा अलग है. राज्यपाल (Governor Bhagat Singh Koshiyari) ने राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा तब की, जब बीजेपी (BJP), शिवसेना (Shiv Sena) और एनसीपी (NCP) तय समय में सरकार नहीं बना पाईं.
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जुलाई 2016 में मोदी सरकार ने अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू किया था. वहां सियासी गतिरोध के चलते राज्यपाल ने ऐसी अनुशंसा की थी, जिसे मोदी सरकार ने राष्ट्रपति को प्रेषित कर दिया था. राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद वहां राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था. राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार के फैसले को पलट दिया.
इसी तरह उत्तराखंड में भी हुआ. मई 2016 में उत्तराखंड में राजनीतिक गतिरोध के चलते राज्यपाल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा की थी, जिसे केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति को भेज दिया था. राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था. उस समय वहां हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी. कांग्रेस ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को हटाते हुए हरीश रावत की सरकार को बहाल कर दिया था.
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इसी तरह का एक और मसला 1988 में सामने आया था. तब की केंद्र सरकार ने कर्नाटक की एसआर बोम्मई की सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था. उस समय सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को लेकर विस्तृत व्याख्या की और फैसला दिया, जो आज तक नजीर माना जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने उस समय अपने फैसले में कहा था, 'बहुमत का फ़ैसला राजभवन में नहीं, विधानसभा में होना चाहिए.'
Source : सुनील मिश्र