'मुनव्वर राणा गंगा-जमुनी तहजीब के झूठ से पर्दा उठा रहे, उन्हें नफरत है इस देश से'

मुनव्वर राणा कुछ और नहीं कर रहा है इस देश में गंगा-जमुनी तहजीब के झूठ से पर्दा उठा रहा है. वो अदालत पर नहीं इस देश पर सवाल उठा रहा है क्योंकि उसको इस देश से नफरत है.

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Aditi Sharma
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Munawwar Rana

'मुनव्वर राणा गंगा-जमुनी तहजीब के झूठ से पर्दा उठा रहे'( Photo Credit : फाइल फोटो)

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मुनव्वर राणा कुछ और नहीं कर रहा है इस देश में गंगा-जमुनी तहजीब के झूठ से पर्दा उठा रहा है. वो अदालत पर नहीं इस देश पर सवाल उठा रहा है क्योंकि उसको इस देश से नफरत है.

"बुतपरस्ती को झुकाने और बुतों ( मूर्तियों ) को तोड़ने के लिए महजबू सुरूर की रौ ऊंची फड़कती थी. मोहम्मदी सेनाओं ने इस्लाम के लिए उस नापाक जमीन पर बाएं-दाएं,बिना कोई मुरव्वत मारना और कत्ल करना शुरू किया, और खून के फव्वारे छूटने लगे. उन्होंने इस पैमाने पर सोना और चांदी लूटा जिस की कल्पना नहीं हो सकती और भारी मात्रा में जवाहराता और तरह-तरह के कपड़े भी. उन्होंने इतनी बड़ी संख्या में सुंदर और छहरही लड़कियों, लड़कों और बच्चों को कब्जे में लिया, जिसका कलम वर्णन नहीं कर सकती. संक्षेप में, मुहम्मदी सेनाओं ने देश को बिलकुल ध्वस्त रख दिया और वहां के बाशिंदों की जिंदगी तबाह कर दी और शहरों को लूटा और उनके बच्चों पर कब्जा किया, ऐसा कि अनेक मंदिर उजड़ हो गए और देवमूर्तियां तोड़ डाली गईं और पैरौं के नीचे रौंदी गई, जिनमें सबसे बड़ा था सोमनाथ. उसके टुकड़े दिल्ली लाए गए और जामा मस्जिद के रास्ते में बिठा दिया गया ताकि लोग याद रखें और इस शानदार जीत की चर्चा करें. सारी दुनिया के मालिक,अल्लाह की शान बनी रहे " (तारीखे- वसाफ)

लिखा तो इसी तरह गया है लेकिन अदालत ने अगर ये कह दिया तो क्या होगा उस अदालत का. तब वो अदालत नहीं रहेगी, क्योंकि अदालत सिर्फ इनके लिए फैसला सुनाएगी और हत्यारों, बर्बरों, वहशियों और बलात्कारियों को सफेद जामा पहना कर अहिंसा के पुजारियों और प्रेम के प्रसारकों के तौर पर बताएं तब ये अदालत को अदालत मानेंगे नहीं तो इनको तवायफों के किस्से याद रहते है.

मुनव्वर राणा ( मुसलमान है और राणा लिखते है क्यों पता नहीं इंटरव्यू में तो पठान-पठान चिल्ला रहे थे) ने बताया कि तवायफ और अदालत के बीच क्या रिश्ता है. वो ये भी बताना चाह रहे थे कि उनमें और बाबर में क्या रिश्ता है. मुनव्वर एक चेहरा है जो गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर इठलाते हुए हिंदुओं को चिढ़ाने के लिए काफी है. इस देश में एक शब्द जिसको ऐसे गढ़् गया जो देश के भाल पर एक बड़ा कलंक का शब्द है और वो शब्द है गंगा-जमुनी तहजीब का. एक झूठ जिसको इतनी बार परोसा गया कि सदियों तलक जुल्म, बर्बरता और अपमान का शिकार बहुसंख्यक समाज इस शब्द को सही मानने लगा, बिना इस बात को देखे हुए कि आखिर गंगा-जमुना दोनों नदियों का इस्लाम की किसी रवायत से कोई रिश्ता नहीं है सिवाय उसके बर्बर सुल्तानों और बादशाहों के अपनी धर्मांधता में इन नदियों को बेगुनाह हिंदुओं के खून से लाल किये जाने के ले अलावा.

जब भी इन नदियों ने खून देखा तो वो उन बेगुनाहों का था जिन्होंने इन नदियों को मां मान कर अपने जन्म से ही पूजा. इस्लाम का इस देश में आक्रमण के सहारे प्रवेश हुआ और उसके बाद लगातार हमलों का इतिहास बना. जमुना के किनारे एक लाख हिंदू कैदियों का कत्लेआम तो गंगा के घाट पर हजारों तीर्थयात्रियों का कत्लेआम ये एक ही लुटेरे तैमूर की देन थी.

खैर बात बहुत इधर से उधर हो रही है लिहाजा वापस मुद्दे पर लौटते है. मुनव्वर राणा ने सर्वोच्च अदालत को जो कहा इसके अलावा मोदी या योगी को जो कहा वो उनके अकेले के उद्गार नहीं है वो इस दर्द के अकेले साझीदार नहीं है. अयोध्या में शिलान्यास और उससे पहले इस पर आये फैसले से किसको कितना दर्द हुआ. ये देखना अब बहुत आसान है, इसको आप सोशल मीडिया पर आसानी से जाकर देख सकते है.

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मुनव्वर राणा या राणा.. या राण... कोई पत्रकार के तो कोई इतिहासकार की खाल में छिपे हुए हैं. ये सब वो चेहरे हैं जिनको एक सेक्युलर जमात और खास तौर से अंग्रेजी भाषा भाषी या उनकी देखा देखी विद्वान बनने की उतावली गैर मुस्लिम जमात के लोग है. किसी में ये हौंसला नहीं कि वो एक बात भी इन धर्मनिरपेक्ष लोंगों के मुंह पर सच बोलने या लिखने की कह पाएं.

मुनव्वर राणा इतिहासकारों के अलीगढ़ स्कूल की तरह से है जिन्होंने इस देश में एक खाल ओढ़ कर इस देश को तबाह करने के मंसूबे हमेशा से रखे है उनको कभी छिपाया नहीं. इस देश की आजादी से पहले पाकिस्तान बनने की लड़ाई में अलीगढ़ स्कूल सबसे अहम किरदार था. उसके आसपास के इलाकों के अल्पसंख्यकों ने पाकिस्तान बनने के लिए सबसे ज्यादा वोट औऱ नोट जुटाएं लेकिन जब बना तो उसकी खुशी में इसी देश को आगे की संभावनाओ के लिए नहीं छोड़ा.

अपना घर का हिस्सा खोकर भी देशद्रोहियों के प्रेरणा स्थल को बनाए रखने और विशेष दर्जा देने में बहुसंख्यक समाज ने कोई उज्र नहीं की. लेकिन ये दयानतदारी नहीं कमजोरी मानते रहे जावेद,शबाना, और मुनव्वर जैसे लोग और रही सही कसर वोटों की राजनीति ने पूरी कर दी.लगता है कि सदियों पहले के किरदार से इस देश ने न सीखने की कसम खा रही है. गुंडई, धमकी, खुलेआम बहुसंख्यकों के धार्मिक विश्वासों को बेईज्जत करने जैसे कामों को देखते रहने ने मुनव्वर को ये ताकत दे दी कि वो अब सीधे सीधे वो फिर से देश को तोड़ने की धमकी देने जैसी हैसियत में आ गए हैं. वो किसी अदालत को चुनौती नहीं दे रहा है, वो साफ साफ कह रहा है कि इस देश का बुनियादी सिद्धांत मुझे मंजूर नहीं है, मैं सिर्फ शरिया को मानता हूं और उसी को मानूंगा. ये अलग बात है कि अगर वो किसी भी वेस्टर्न कंट्री में जाता है या फिर कभी चीन जैसे देश में जाएंगा तो मुंह से चूं नहीं निकाल पाता है क्योंकि वो जानता है कि वहां इस देश के बहुंसख्यकों जैसे मूर्खों को निवास नहीं है.

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इतिहास, वर्तनाम कही से भी अगर कोई भी किस्सा उठा लोगे और उस पर तर्क करने लगोगे तो कही भी आप मुनव्वर का मुंह थाम सकते हो. मुनव्वर को मालूम है कि झूठ कहां बोलना है, और सच के नाम पर गाल कहां बजाने है। वो मदरसे में बैठकर इस बात के लिए छाती ठोंक सकता है कि किस तरह राम मंदिर, सोमनाथ, विश्वनाथ और मथुरा के मंदिरों को तोड़ कर मस्जिदों में बदल दिया और सड़क पर अंग्रेजी मीडिया या फिर अपने में गाफिल लोगों के सामने अपनी छाती पीट सकता है कि ये देश रहने के लिए नहीं रह गया, अभी राणा सफवी या राणा अय्यूब इस बात के लिए रो रही थी कि ये देश वो देश नहीं रहा जिसके लिए उनके पुरखों ने कुर्बानी दी. कहां दी किसको दी ये बताने की जरूरत नहीं है लेकिन ये लोग जानते है कि गुंडई की ताकत धमकी देने में है उस पर अमल करने में. ये सिर्फ चेहरे नहीं है ये एक पूरी जमात है जिसका विश्वास है कि गजवा ए हिंद में अपना अपना किरदार निबाहने से ही जन्नत नसीब होगी.

आप अपने आस-पास देखिये तो आपको पता लग जाएंगा कि किस तरह से पाकिस्तान के नाम पर नारे लगाने वाले मौजदू है. कभी आप देखिये कि एक ही मसले पर इनकी राय किसी भी धर्म के आधार पर कैसे हो सकती है. आजादी के लड़ाई में अपने रोल को गाने वाले लोगों से पूछिये कि आजादी का उनका ख्वाब क्या था. पूरी आजादी की लडा़ई में उनके पुरखों का सपना क्या है दारूल इस्लाम बनाने के लिए लड़ने वालों को सेक्युलरिज्म या वतनपरस्ती का दावा करते हुए देखना काफी अजीब लगता है.

धोखा, लूट, बर्बरता, नफरत , बलात्कारों की कहानियों के अलावा मुनव्वर को बाकि कुछ याद नहीं आता है. बाबर, ओरंगजेब, अकबर, गजनवी या फिर गौरी इसमें उसके लिए कोई हमलावर नहीं है बल्कि ये उसके पुरखे है अब इस देश को खुद ही सोचना है कि ऐसे मुनव्वर को क्या लिखना है, लेकिन मैं इस देश के साथ पहली मुलाकात लिख देता हूं मुनव्वर के हीरो मोहम्मद बिन कासिम की

मुहम्मद ने किले को कब्जे में ले लिया और वहां दो या तीन दिन तक रहा. उसने किले में मौजूद छह हजार सैनिकों को तलवार के घाट उतार डाला और कुछ (और) को तीरों से खत्म किया. अन्य लोग उन की स्त्रियां और बच्चों समेत कब्जे में ले लिए गये .. जब कैदियों की संख्या गिनी गई तो तीस हजार थी. उन में सरदारों की तीस बेटियां भी थी. जिसमें राजा दाहिर की बहन की बेटी भी थी जसका नाम जयसिया था उन सब को हज्जाज के पास भेज दिया गया. दाहिर का कटा सिर और कैदियों का पाचंवा हिस्सा महारक के बेटे काब को सौंप दिया गया. " चाचनामाह ".

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