निर्भया के दोषियों की फांसी की सजा टालने के पटियाला हाउस कोर्ट के आदेश के खिलाफ केंद्र सरकार की अर्जी पर दिल्ली हाईकोर्ट में रविवार को विशेष सुनवाई हुई. सरकार की तरफ से कोर्ट में कहा कि सभी दोषियों की फांसी की सजा एक साथ देना जरूरी नहीं है. सभी के कानूनी राहत के विकल्प खत्म होने का इतंजार करने की जरूरत नहीं है. दोषियों को अलग-अलग भी फांसी दी जा सकती है.
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इसके बाद दोषी मुकेश की ओर से रेबेका जॉन ने कोर्ट में कहा कि 14 जनवरी को मुकेश की क्यूरेटिव पिटीशन खारिज हुई. उसके तुंरत बाद उसी दिन दया याचिका भी दायर कर दी गई. रेबेका जॉन ने कोर्ट के सामने अपने मुवक्किल की याचिका से जुड़ी टाइम लाइन रखा. कहा- जब निचली अदालत से जारी डेथ वारंट के खिलाफ हमने हाई कोर्ट का रुख किया था तो HC ने कोई दखल देने से इन्कार करते हुए हमें कोई राहत नहीं दी थी. हमें ट्रायल कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए कहा गया था तो फिर अब सरकार कैसे ट्रायल कोर्ट के आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट आ सकती है.
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वकील रेबेका जॉन ने कहा कि चाहे अपराध कितना भी जघन्य हो, दोषियों को समाज कितनी भी नफरत की नजर से देखता हो, लेकिन उनके भी कानूनी अधिकार हैं. आखिरी सांस तक उन्हें पैरवी का अधिकार है. इस लिहाज से मैं उनकी पैरवी कर रही हूं. आप मेरी बात से सहमत हो या ना हो. ये आप पर निर्भर है. उन्होंने आगे कहा कि सरकार अचानक से कल ही क्यों जागी. उससे पहले वो कहां थे. क्यों ट्रायल कोर्ट में पहले डेथ वारंट जारी करवाने के लिए सरकार की ओर से अर्जी दायर नहीं की गई. दोषी तो अंतिम सांस तक अपनी कानूनी राहत के विकल्पों के सहारा लेते रहेंगे ही.
रेबेका जॉन ने आगे कहा- सभी दोषियों की फांसी एक ही कॉमन आदेश के जरिये हुई है. फिर फांसी अलग-अलग कैसे हो सकती है. जेल नियमों में कोई प्रावधान नहीं है, जिसके जरिये अलग-अलग फांसी दी जा सकती है. एक गुनाह में शामिल दोषियों को एक ही साथ फांसी की सजा हो सकती है. उन्होंने कहा कि फांसी की सजा पाए दोषियों के भी अपने अधिकार हैं. आखिर इतनी जल्दी क्यों है. अगर ये मान भी लिया जाए कि मेरा अपराध सबसे ज़्यादा घिनौना है, तब भी मुझे आर्टिकल 21 के तहत मिले मूल अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता है.
रेबेका जॉन ने कहा कि अगर ये मान लिया जाए कि अगर राष्ट्रपति ने किसी एक दोषी की दया याचिका स्वीकार कर ली तो ये कहना कि मेरी दया याचिका पहले से ही खारिज होने के चलते मेरे केस में कोई फर्क नहीं पड़ेगा, ऐसा कहना सही नहीं होगा. अगर चाहे तो दूसरी बार दया याचिका दाखिल करने का विकल्प बचता है, लेकिन ये अधिकार सुरक्षित ही नहीं रहेगा अगर मुझे पहले फांसी हो गई हो.