केंद्र की बीजेपी सरकार पिछले कई सालों से एक देश एक चुनाव के विचार पर ज़ोर देती नज़र आ रही है, लेकिन कई बार यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला जा रहा था, पर इस बार यह मामला जोर पकड़ता जा रहा है. क्योंकि साल के आखिरी में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, वहीं, अगले साल अप्रैल में आम चुनाव है. ऐसे में लग रहा है कि सरकार इस मामले को लेकर गंभीर है. सरकार ने हाथों हाथ इसके लिए एक कमेटी भी गठित कर दी है. पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक राष्ट्र एक चुनाव के लिए कमिटी का गठन किया गया है. संसदीय कार्यमंत्री प्रह्लाद जोशी ने जानकारी साझा करते हुए बताया की अभी केवल समिति का गठन हुआ है , पहले यह समिति रिपोर्ट तैयार करेगी उसके बाद उस पर बहस होगी. फिर रिपोर्ट संसद में आएगी और वहां इस पर चर्चा होगी. अब यदि हम भारत का इतिहास देखें तो भारत में आज़ादी के बाद जो चुनाव होने शुरू हुए थे. वह एक राष्ट्र एक चुनाव की निति के अंतर्गत ही होते थे.
नया नहीं एक राष्ट्र एक चुनाव
भारत के इतिहास में यदि हम देखें तो एक राष्ट्र एक चुनाव की प्रक्रिया कोई नयी प्रक्रिया नहीं है. आज़ादी के बाद सबसे पहले चार चुनाव जो वर्ष 1952 , 1957 , 1964 और 1967 में हुए थे वह एक राष्ट्र एक चुनाव की प्रक्रिया के अंतर्गत ही हुए थे. वर्ष 1968-69 में कुछ विधानसभाओं को समय से पहले ही भंग कर के पुरानी चुनाव प्रणाली को बदल दिया गया था. इसके बाद कई बार एक राष्ट्र एक चुनाव की प्रक्रिया को शुरू करने की कोशिश की गयी लेकिन राजनीतिक दलों के बीच में सहमति ना बन पाने के कारण इसे लागू ना किया जा सका.
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कैसे इंदिरा गाँधी ने खत्म की थी "एक राष्ट्र एक चुनाव" की परम्परा
आज़ादी के बाद हमारे देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते थे.1952 से 1967 तक देश एक राष्ट्र एक चुनाव की परम्परा पर चल रहा था. 1967 के चुनाव पिछले चुनावों से थोड़े अलग थे और इसके नतीजे भी कांग्रेस के लिए एक झटके से कम नहीं थे.1967 में इंदिरा गाँधी दूसरी बार देश की प्रधानमंत्री बनी और कांग्रेस को लगतार चौथी बार जीत हासिल तो हुई लेकिन 6 राज्यों में कांग्रेस को हार का सामना भी करना पड़ा था. इन राज्यों में तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य है जहाँ आज तक कांग्रेस सत्ता में वापिस नहीं लौट पाई. 1970 में कांग्रेस पार्टी के अंदर ही बगावत हो गयी जिस कारण पहली बार समय से पहले ही 1970 में लोकसभा को भंग कर दिया गया. इसके बाद मार्च 1971 में एक राष्ट्र एक चुनाव की परम्परा को दरकिनार करते हुए 5वीं लोकसभा के लिए चुनाव करवाए गए , जिसमे 352 सीट के साथ इंदिरा गाँधी ने प्रचंड बहुमत से जीत हासिल की थी.
एक राष्ट्र एक चुनाव के क्या फायदे होंगे?
विधि आयोग की रिपोर्ट के अनुसार यदि "एक राष्ट्र एक चुनाव" लागू होता है तो सबसे पहला जो फायदा है वह ये होगा की लोकसभा और विधानसभा के चुनाव करवाने में उनकी तैयारी में जो समय और पैसा बर्बाद होता था उसमे कमी आ जायेगी. 2019 के लोकसभा में 60हज़ार करोड़ का खर्च आया था. कुछ विशेषज्ञ बताते हैं की यदि 2024 में विधानसभा और लोकसभा का चुनाव एक साथ करवाया जाता है तो पिछले चुनाव से 1750 करोड़ अधिक खर्चा आएगा. इसमें ज़्यादा खर्च evm की खरीद पर होगा जो की इसके बाद के चुनाव में नहीं आएगा. इसके अलावा प्रशासनिक और सुरक्षा बलों की व्यवस्था पर दबाव कम पड़ेगा.
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क्या होगी चनौतियाँ ?
140 करोड़ की आबादी वाले देश में एक समय पर लोकसभा और विधानसभा चुनाव करवाना किसी विश्वयुद्ध को जीतने से कम नहीं है. सबसे पहले तो सभी विधानसभाओं के कार्यकाल को लोकसभा के कार्यकाल से जोड़ने की आवश्यकता होगी. इसमें हो सकता है कि कुछ राज्यों में उनकी सरकारों का कार्यकाल बढ़ जाए और कुछ राज्यों में उनकी सरकारों का कार्यकाल कम हो जाए. जिन राज्य सरकारों का कार्यकाल कम होगा उन्हें इस नयी निति के लिए सहमत करना भी एक चनौती भरा काम होगा. इसके अतिरिक्त सविधान के पांच अनुच्छेदों-83 ,85 ,172 , 174 और 356 में संशोधन होगा.