Russia Ukraine war: यूक्रेन और रूस के हमले को लेकर संयुक्त राष्ट्र महासभा का 'आपातकालीन विशेष सत्र' बुलाने के सुरक्षा परिषद में हुए मतदान में भारत ने भाग नहीं लिया. इस मौके पर भारत ने सिर्फ इतना कहा कि समस्या का समाधान कूटनीति के जरिए और बातचीत से निकाला जाना चाहिए. इसको लेकर सवाल उठ रहे हैं कि क्या भारत का रुख सही है और क्या वैश्विक पटल पर तटस्थ रहने से भारत का हित पूरा होगा? ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूक्रेन नीति को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने जमकर सराहा है. उन्होंने एक लेख में लिखा है कि इस वक्त मोदी सरकार उसी नीति को अपना रहे हैं, जिसे शीत युद्ध के दौरान देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनाया था.
यूक्रेन और रूस के बीच छिड़े युद्ध का दुनियाभर के देशों पर एक तरफ बुरा आर्थिक प्रभाव पड़ रहा है. वहीं, इस मामले में पूरी दुनिया दो ध्रुवों में बंटी दिख रही है. एक तरफ यूक्रेन के साथ अमेरिका और उसके सहयोगी देश खड़े हैं तो दूसरी तरफ रूस समर्थक देश हैं. ऐसे में भारत के लिए भी मुश्किल की घड़ी आ गई है कि भारत को किस गुट में जाना है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव आया तो भारत ने रूस के हमले की निंदा तो की, लेकिन रूस के खिलाफ मतदान करने से परहेज करते हुए वोटिंग प्रक्रिया से खुद को बाहर रखा. वहीं, अब पश्चिमी प्रॉपेगैंडा फैलाने वाले रूस के खिलाफ भारत के खड़े नहीं होने पर मोदी सरकार के इस फैसले को अपनी जिम्मेदारी या प्रतिबद्धता से भागना करार दे रहे हैं. इन सबके बीच प्रधानमंत्री मोदी को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू का साथ मिला है. उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया में अपने लेख में भारत के रूस-यूक्रेन युद्ध पर अपनाए गए दृष्टिकोण पर लिखा है कि ऐसी कोई वजह नहीं है कि यूरोप में पूर्व और पश्चिम के बीच बने इस विवाद में भारत किसी का पक्ष ले, जो एक बार फिर से शीत युद्ध की शुरुआत मानी जा रही है. उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसी रास्ते पर चल रहे हैं, जिसे मूल रूप से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चुना था और इसके बाद की सभी सरकारें बदलते वैश्विक परिदृश्य में उसका अनुसरण करती रहीं.
बारू ने बर्लिन संकट और नेहरू को किया याद
संजय बारू अपने लेख में लिखते हैं कि 1961 में बर्लिन संकट के दौरान भी देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने निर्णय लिया था कि भारत किसी एक तरफ खड़ा नहीं होगा, बल्कि भारत बीच का रास्ता अपनाते हुए तटस्थ बना रहेगा. उन्होंने आगे लिखा है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के सलाहकार रहे हेनरी किसिंजर ने तब एक भारतीय पत्रकार के साथ बातचीत में माना ता कि मुझे छोड़कर केनेडी प्रशासन को काफी निराशा हुई थी. उन्होंने कहा था कि मुझे पता था कि अगर नेहरू बर्लिन पर अपनी पोजीशन लेते तो सोवियत के लिए महत्वपूर्ण इस मामले के चलते भारतीय हितों को काफी नुकसान हो सकता था. अगस्त 1961 में बर्लिन शहर पूर्वी और पश्चिमी हिस्से में बांट दिया गया. इस फैसले के पीछे रूस खड़ा था और दूसरी तरफ अमेरिका. दरअसल, तब बर्लिन पर भारत ने रुख स्पष्ट नहीं किया, क्योंकि इसके लिए उसे बड़ी डील को खतरे में डालना पड़ सकता था.
HIGHLIGHTS
- भारत ने किसी भी देश का नहीं दिया साथ
- युद्ध छोड़कर वार्ता शुरू करने पर दिया बल
- सुरक्षा परिषद में भारत ने नहीं डाला मत