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अब तक इजराइल यात्रा से क्यों बचते रहे हैं भारत के प्रधानमंत्री, मोदी की 'ऐतिहासिक' यात्रा से बदल जाएगी विदेश नीति

इजराइल की यात्रा से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे ऐतिहासिक करार देते हुए ट्वीट किया, 'कल में मेरी इजराइल की ऐतिहासिक यात्रा शुरू हो रही है, जो भारत का बेहद अहम सहयोगी रहा है।'

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Abhishek Parashar
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अब तक इजराइल यात्रा से क्यों बचते रहे हैं भारत के प्रधानमंत्री, मोदी की 'ऐतिहासिक' यात्रा से बदल जाएगी विदेश नीति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो)

इजराइल की यात्रा से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे ऐतिहासिक करार देते हुए ट्वीट किया, 'कल से मेरी इजराइल की ऐतिहासिक यात्रा शुरू हो रही है, जो भारत का बेहद अहम सहयोगी रहा है।' इजराइल की यात्रा पर जाने वाले नरेंद्र मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री है।

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पीएम मोदी का यह ट्वीट भारत-इजराइल के आपसी संबंधों से कहीं बढ़कर भारत की विदेश नीति में आए बड़े बदलाव का संकेत है, जिसकी नींव 1947 और 1949 के दो अहम फैसलों से जुड़ी है और प्रधानमंत्री मोदी की इजराइल यात्रा अब इसकी अभिव्यक्ति साबित होने जा रही है।

पहली घटना 1947 की है, जब भारत ने धार्मिक आधार पर इजराइल के गठन का विरोध करते हुए फलस्तीन को बांटे जाने की योजना के खिलाफ वोट दिया था। दूसरी घटना 1949 की है, जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इजराइल के प्रवेश के खिलाफ वोट दिया।

तत्कालीन भारत सरकार के दोनों ही फैसले का हिंदूवादी राष्ट्रवादी संगठनों ने विरोध करते हुए भारत सरकार के फैसले की निंदा की। वहीं राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) के नेता माधव सदाशिव गोलवलकर ने यहूदी राष्ट्रवाद की प्रशंसा करते हुए फलस्तीन को यहूदियों की प्राकृतिक भूमि करार दिया था।

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हालांकि अगले एक साल में भारत सरकार की नीति बदली और 17 सितंबर 1950 को इजराइल को मान्यता दे दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने माना कि इजराइल को यह मान्यता पहले ही दे दी जानी चाहिए थी लेकिन अरब देशों की भावनाओं का ख्याल रखते हुए ऐसा नहीं किया गया।

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1953 में तत्कालीन बंबई में इजराइल को कॉंसुलेट खोलने की इजाजत मिली लेकिन नेहरू सरकार ने कभी भी इजराइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंधों को बहाल नहीं किया। वजह यह रही कि भारत फलस्तीन के मुद्दे का समर्थन कर रहा था और वह अरब देशों के साथ अपने रिश्तों को बिगाड़ना नहीं चाहता था, जो भारत की ऊर्जा जरूरतों के लिहाज से ज्यादा अहम सहयोगी थे।

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इसके अलावा दूसरा अहम राजनीतिक कारण भारत के सामाजिक ताने-बाने से जुड़ा था। भारत की सामाजिक और धार्मिक विविधता उसके इजराइल के साथ संबंधों को प्रभावित करती रही है।

यही वजह रही कि 1950 से 90 के शुरुआती दशक तक भारत और इजराइल संबंध ठीक-ठाक रहे, जिसका संबंध घरेलू और विदेशी कारणों से था। भारत के राजनीतिक नेतृत्व को लग रहा था कि इजराइल से बेहतर संबंधों का असर मुस्लिम वोट बैंक पर पड़ सकता है वहीं भारत उदारीकरण से पहले अरब देशों के साथ खराब संबंधों का खमियाजा उठाने को तैयार नहीं था।

अरब देशों में काम कर रहे भारतीय विदेशी मुद्रा का अहम स्रोत थे और भारत इजराइल के साथ दोस्ती बढ़ाकर इस आय पर किसी तकह का संकट डालना नहीं चाहता था। 

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हालांकि ओआईसी (मुस्लिम सहयोग संगठन) में पाकिस्तान की तरफ से भारत की सदस्यता पर प्रतिबंध लगाए जाने के फैसले ने भारत और इजराइल के संबंधों को बदल कर रख दिया। कुछ रणनीतिक कारणों की वजह से दुनिया की दूसरी बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश होने के वबाजूद भारत को पाकिस्तान की शह पर इस सगंठन की सदस्यता नहीं मिली। लेकिन इसने भारत और इजराइल के संबंधों पर पड़ी बर्फ को हटाने का जरूर काम किया।

ओआईसी में भारत की सदस्यता नहीं मिलने की वजह पाकिस्तान के साथ उसके खराब संबंधों के साथ शिया देश ईरान से बेहतर संबंध होना था। इतना ही नहीं ओआईसी के सभी देश अमेरिका के सहयोगी थे जबकि भारत का झुकाव उन दिनों यूएसएसआर की तरफ था।

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आखिरकार आतंकवाद और सुरक्षा खतरों जैसे साझा हितों को देखते हुए भारत ने जनवरी 1992 में औपचारिक रूप से इजराइल के साथ संबंधों को बहाल कर दिया। जो 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद और मजबूत हुई है।

मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत अब रूस के मुकाबले अमेरिका के ज्यादा करीब गया है। वहीं ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत सुन्नी बहुल अरब देशों के साथ ईरान पर निर्भरता बनाने में सफल रहा है। ईरान पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों में ढील की वजह से भारत को ईरान के साथ तेल व्यापार बढ़ाने में सहूलियत मिली है। 

साफ शब्दों में कहा जाए तो भारत अब अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने की दिशा में अरब देशों के मुकाबले संतुलन बनाने में सफल रहा है। इतना ही नहीं वह एक साथ ईरान और अरब देशों के साथ संबंधों में तालमेल बिठाने में सफल रहा है। बदली राजनीतिक परिस्थितियों में आतंकवाद भारत समेत अन्य देशों के लिए प्राथमिक चुनौती बना हुआ है और मोदी वैश्विक मंच पर इस मामले को भारत के पक्ष में भुनाने में सफल रहे हैं। 

ऐसे में विदेश नीति के लिहाज से इजराइल की उनकी यात्रा भले ही किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली यात्रा होने जा रही है, लेकिन इसे आतंकवाद के खिलाफ साझा कोशिशों का अमलीजामा पहनाया गया है। 

2003 में एरियल शेरॉन भारत का दौरा करने वाले इजराइल के पहले प्रधानमंत्री थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी आगवानी करते हुए दोनों देशों बीच बेहतर संबंधों की उम्मीद जताई थी।

शेरॉन ने वाजपेयी को इजराइल आने का न्यौता दिया था लेकिन उनकी यात्रा नहीं हो पाई। लेकिन अब मोदी की दो दिवसीय यात्रा दोनों देशों के संबंधों को नई दिशा देने जा रही है, जिसमें कृषि, सीमा सुरक्षा और आतंकवाद प्रमुख होगा।

यात्रा से ठीक पहले मोदी अपने फेसबुक पोस्ट में लिख चुके हैं, 'मेरी इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से हमारी साझेदारी और आपसी हितों के विविध मुद्दों पर बातचीत होगी। हमारे पास हमारे साझा शत्रु आतंकवाद से लड़ने के उपायों पर भी चर्चा होगी।'

1992 की औपचारिक संबंध बहाली के बाद 2017 में प्रधानमंत्री मोदी की यह यात्रा दोनों देशों के बीच के रणनीतिक संबंधों के साथ भारत की विदेश नीति में आए बड़े बदलाव पर मुहर लगाने जा रही है।

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HIGHLIGHTS

  • भारत-इजराइल के आपसी संबंधों में प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा विदेश नीति में आए बड़े बदलाव का संकेत है
  • इसकी नींव 1947 और 1949 के दो अहम फैसलों से जुड़ी है और प्रधानमंत्री मोदी की इजराइल यात्रा इसकी अभिव्यक्ति साबित होने जा रही है

Source : Abhishek Parashar

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