दिल्ली उच्च न्यायालय ने गर्भपात की समय-सीमा '20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 या 26 सप्ताह' तक करने की मांग वाली याचिका पर मंगलवार को केंद्र सरकार से जवाब मांगा है. मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन और न्यायमूर्ति बृजेश सेट्ठी की खंडपीठ ने मामले को 6 अगस्त के लिए सूचीबद्ध कर दिया और कहा कि कुछ मुद्दों पर वैज्ञानिक तरीके से विचार करने की जरूरत होती है.
यह याचिका सामाजिक कार्यकर्ता और वकील अमित साहनी ने दायर की थी. याचिकाकर्ता ने सरकार को मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) विधेयक की धारा 3(2)(बी) में उचित संशोधन कर गर्भपात के लिए 20 हफ्तों की समय-सीमा को बढ़ाकर आगे 4 या 6 हफ्तों तक करने के लिए आदेश देने की मांग की थी.
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याचिकाकर्ता ने कहा कि एमटीपी विधेयक गर्भाधान के 20 हफ्तों बाद भ्रूण के गर्भापात की इजाजत नहीं देता है, जो निजता के अधिकार का उल्लंघन है, क्योंकि अगर भ्रूण किसी गंभीर असामान्यता का शिकार है तो भी गर्भपात करने की अनुमति नहीं दी जाती है.
याचिका के अनुसार, 'इस बात का पर्याप्त जोखिम है कि अगर ऐसे बच्चे का जन्म होता है तो उसे शारीरिक या मानसिक असामान्यता का सामना करना पड़ेगा.'
याचिका के अनुसार, जब दुष्कर्म की वजह से गर्भाधान होता है या फिर महिला व पति द्वारा प्रयोग किए गए साधन के विफल होने की स्थिति में गर्भाधान होता है तो यह विधेयक इस पर कुछ नहीं कहता. अगर गर्भपात विधेयक के अनुसार नहीं किया जाता है तो यह भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय अपराध है.
याचिका के अनुसार, भ्रूण की असमान्यता की पहचान 18 से 20 हफ्तों में होती है और अभिभावक के लिए एक से दो सप्ताह का समय यह निर्णय लेने के लिए बहुत कम होता है कि गर्भपात कराए या नहीं.
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याचिका के अनुसार, 'कानूनी अनुमति के अभाव में लोग अवैध तरीके से गर्भपात कराते हैं और यह किसी गैरपेशेवर लोगों द्वारा बिना साफ-सुथरे ढंग से किए जाते हैं, जिससे हजारों महिलाओं की जिंदगी पर खतरा उत्पन्न होता है.'
साहनी ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि महिला की निजता, गरिमा और शारीरिक शुचिता के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए.
साहनी ने इसके अलावा यह भी मांग की कि अविवाहित महिलाओं और विधवाओं को भी एमटीपी विधेयक के अंतर्गत गर्भपात कराने का अधिकार मिलना चाहिए.
Source : IANS