साहित्य में भी मॉब लिंचिंग का दौर चल पड़ा हैः प्रेम भारद्वाज

'सौंदर्य को देखकर आदमी क्रूर भी हो सकता है. आदमी दो साल की लड़की को देखकर रेप की भावना से भर सकता है. उस विकृति को पालने के लिए सौंदर्य उपासक होने की जरूरत है.'

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साहित्य में भी मॉब लिंचिंग का दौर चल पड़ा हैः प्रेम भारद्वाज

प्रेम भारद्वाज (IANS)

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'सौंदर्य को देखकर आदमी क्रूर भी हो सकता है. आदमी दो साल की लड़की को देखकर रेप की भावना से भर सकता है. उस विकृति को पालने के लिए सौंदर्य उपासक होने की जरूरत है.' यह टिप्पणी समालोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने 'पाखी' पत्रिका के 'टॉक ऑन टेबल' कार्यक्रम में सुख व नैतिकता पर चल रही बहस में की थी.

तरकश से निकला तीर व जुबान से निकले शब्द वापस नहीं आ सकते. ऐसा ही इस टिप्पणी के साथ भी है. ऐसे में साहित्य बिरादरी में कई तरह की गुटबाजियां तेज हो गईं. इस बयान को लेकर लोगों ने अचानक सोशल मीडिया पर विश्वनाथ त्रिपाठी व 'पाखी' के संपादक प्रेम भारद्वाज के खिलाफ आक्रामक टिप्पणी शुरू कर दी है.

इन विवादों व विरोध स्वरूप आलोचनाओं के बीच प्रेम भारद्वाज ने आईएएनएस से विशेष बातचीत की :

'सुखी रहना मनुष्यता की सबसे बड़ी नैतिकता है.' यहां से शुरू हुई बहस सौंदर्य तक पहुंची और फिर विवाद, इस पर आप क्या कहेंगे?

भारद्वाज कहते हैं कि सुख व नैतिकता पर लगातार बातचीत चल रही थी और विश्वनाथ त्रिपाठी जी एक बहुत ही प्रतिष्ठित आलोचक हैं, उनका लंबा लेखन व अध्यापन रहा है. वह कभी मनुष्य विरोधी नहीं हो सकते और मनुष्य विरोधी बात कर भी नहीं सकते. लेकिन हुआ यह कि नैतिकता व सौंदर्य की बात करते-करते, वह अचानक एक उदाहरण देते हैं दो साल की बच्ची वाली कि आदमी कु.. हो जाता है और आदमी रेप भी कर सकता है. उदाहरण वो सही नहीं था, शायद उसका पाठ लोगों ने गलत किया. उदाहरण की चूक की वजह से ऐसा हुआ. त्रिपाठी जी की मंशा या नीयत में कही गड़बड़ी नहीं थी. पाठ सही नहीं हुआ. उदाहरण के कारण, उदाहरण की चूक के कारण एक गलत पाठ किया गया. वहां भी आपत्ति जताई गई.

उन्होंने कहा कि पूरी प्रक्रिया एक अलग-अलग मुद्दों पर बातचीत हुई. इसमें कहीं कोई साजिश वाली बात नहीं हुई है. पहले भी हमारे यहां टॉक ऑन टेबल होता रहा है, बातचीत होती रही है और चीजें छपती रही हैं. ये भी कहा जा रहा है कि अक्षरश: जो भी पत्रकारिता का नियम है या इससे जुड़े लोग हैं, वे यह समझते हैं कि कोई भी इंटरव्यू और खासकर बातचीत, जिसमें सात-आठ लोग बैठे हैं, उसे अक्षरश: प्रकाशित नहीं कर सकते. हां, उसके मूलभाव में बदलाव नहीं होना चाहिए.

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भारद्वाज ने कहा, "अगर कोई साजिश होती या हमारी मंशा में खोट होती, तो हम ऑडियो रिलीज नहीं करते. साहित्य के लिए यह सही नहीं है, यह एक तरह का मॉब लिंचिंग है. बिना विचार किए आप एक विद्वान व विवेकशील आदमी पर भीड़ के रूप में टूट पड़ना सही नहीं है और किसी भी 80-90 साल के व्यक्ति का, जिसका साहित्य में बड़ा योगदान है, उसके लिए अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करना सही नहीं है. यह साहित्य के लिए ठीक नहीं है."

क्या साहित्य में भी मॉब लिंचिंग होती है? इस सवाल पर प्रेम कहते हैं कि यह तो सबसे बड़ा नजीर है, उदाहरण है. इससे पहले मैंने रवीश कुमार ने नीतीश से नामवर सिंह का इंटरव्यू कराया था, नीतीश ने सवाल पूछा था, जिसमें नामवर सिंह ने चेतना में भगवान शब्द का नाम लिया है, जिसको लेकर उनकी काफी फजीहत हुई. उनके लिए अपमान हुआ. वही होता है, जब लोग भीड़ में तब्दील हो जाते हैं. नामवर सिंह एक बड़ा नाम हैं. वही होता है, जब आप भीड़ में तब्दील होते हैं तो आप भाषा की गरिमा भूल जाते हैं. ऐसा ही मैनेजर पांडेय के साथ हुआ. उनकी तस्वीर पूजा करते छपी और उनको भी अपमानजनक गालियां दी गईं. यह मॉब लिंचिंग का जो ट्रेंड चला है, वह साहित्य के लिए बड़ा खतरनाक..बहुत खतरनाक है.

बीएचयू व तमाम जगहों पर प्रदर्शन हो रहे हैं. इन प्रदर्शनों को आप आलोचना के तौर पर देखते हैं या मॉब लिंचिंग के रूप या प्रतिरोध के रूप में? इस पर भारद्वाज कहते हैं कि अगर यह प्रतिरोध हो रहा है तो एक जनतांत्रिक पद्धति में व्यवस्था में ठीक है. हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन इसका भी एक तरीका होता है. पाखी की प्रतियां जलाई गईं. यह सही नहीं है.

उन्होंने कहा, "प्रतिरोध से हमें कोई गुरेज नहीं है. प्रतिरोध होना चाहिए. युवाओं में अगर आग बची है तो उसको भी मैं सलाम करता हूं. यह अच्छी बात है. उनके अंदर प्रतिरोध की क्षमता है. लेकिन, थोड़ा देखना होगा कि विवेक का इस्तेमाल भी जरूरी है. विवेकपूर्ण निर्णय जरूरी है. हां, भीड़ में न तब्दील हों.

सोशल मीडिया पर आपके खिलाफ कई गिरोह बन गए हैं? इस सवाल पर प्रेम कहते हैं, "पाखी की शुरुआत हुई, उसी समय से हमारा टैग है कि हम कोई गिरोह नहीं बनाएंगे और तमाम लामबंदी व जो चीजें चलती रही हैं, उसके खिलाफ रहेंगे, इस प्रकरण से वह बात साबित होगी. अगर गिरोह बनाना होता तो दस साल से पत्रिका निकल रही है, हमने भी गिरोह बना लिया होता है, जो भी है यह पूरा मामला सिर्फ एक तरफा चला है."

यह पूछे जाने पर कि क्या सौंदर्य दुष्कर्म का कारण है? भारद्वाज कहते हैं, "नहीं, कतई नहीं है. सौंदर्य एक बहुत बड़ी चीज है. सौंदर्य आदमी को उदात्त बनाती है, बड़े फलक, बड़े कैनवास की तरफ लेकर जाती है. कला, सुरुचि की तरफ, प्रेम की तरफ ले जाती है. सौंदर्य कभी रेप का कारण नहीं हो सकता है. कभी नहीं हो सकता.

प्रेम ने कहा, "आप लोगों ने विश्वनाथजी के सौंदर्यबोध पर बयान दिए, पर जब उन्होंने कहा कि सौंदर्य को देखकर आदमी क्रूर भी हो सकता है..अधेड़ आदमी दो साल की लड़की ..पर आपत्ति जताई थी..लेकिन सोशल मीडिया पर कई ग्रुप आपके खिलाफ दिख रहे हैं कि आप लोगों ने कोई आपत्ति नहीं दर्ज नहीं कराई?"

भारद्वाज कहते हैं कि ये भी अजीब बात है कि त्रिपाठीजी सौंदर्य की बात करते-करते, उसे करुणा से जोड़ते हुए, उदात्तता से जोड़ते हुए एक उदाहरण पेश करते हैं, तो इस पर अपूर्व जोशी व अल्पना मिश्रा ने तुरंत आपत्ति जताई थी कि यह गलत मानसिकता है. एक स्त्री होने के नाते अल्पना मिश्र की ज्यादा जिम्मेदारी थी या आपत्ति दर्ज करनी या कहें कि मनुष्य होने के नाते भी इस तरह की बातों का विरोध होना चाहिए. लेकिन वही लोग जब अल्पना मिश्र इस बयान को लेकर एक पोस्ट लिखती हैं कि इस सोच की जड़ कठुआ से जुड़ी है, तो वहां उनकी नाराजगी जताई जाती है, तब फिर अल्पना मिश्र को वहां गलत साबित किया जाता है.

प्रेम ने कहा, "गलत बात गलत होती है, चाहे देवता बोलें या वामपंथी बोले या कोई बोले. अब कहा जा रहा है कि आप लोगों ने कड़ी आपत्ति क्यों नहीं जताई. यह दोहरी मानसिकता है."

यह पूछे जाने पर कि क्या साहित्य में मॉब लिचिग का दौर चल पड़ा है? भारद्वाज कहते हैं कि अब तो चल पड़ा है. यह साहित्य के लिए समाज, लेखन, किसी लेखक के लिए कहें तो दुर्भाग्यपूर्ण, चिंताजनक व डरावना है, बहुत डरावना है. सुलभजी ने कहा है कि फेसबुक एक वधस्थल है. कभी भी किसी भी एक छोटी वजह से तुरंत निपटा दिया जाता है. यह चलन सही नहीं है. आदमी का 30 साल 25 साल काम कर रहा है, उस पर भरोसा, मॉब लिचिग मने भरोसा आप भरोसा नहीं कर रहे हैं. यह समय भरोसे के खत्म होने का समय है. कोई किसी पर भरोसा नहीं कर सकता. एक आवेग आता है, एक भीड़ आती है और निपटा दिया जाता है.

नए साहित्यकारों के लिए आप क्या कहेंगे? अगर मॉब लिचिग जैसी बाते आ रहे हैं और साहित्य में किसी टिप्पणी को लेकर आग-बबूला हो जाने को क्या कहेंगे? प्रेम कहते हैं कि पुरानी कहावत है कि जो महाभारत में नहीं है, वह भारत में नहीं है. लोगों ने मान लिया है कि जो फेसबुक वह साहित्य की अंतिम परिधि है, साहित्य की दुनिया यही खत्म नहीं होती, फेसबुक एक छोटी दुनिया है.

उन्होंने कहा, "मुक्तिबोध अक्सर कहा करते थे कि साहित्यकार को व लेखक को साहित्यिक छद्मों से दूर रहकर लिखना चाहिए. मुझे लगता है कि वह समय आ गया है कि सोशल मीडिया से दूर रहकर साहित्यिक लेखक चाहे सोशल मीडिया या हम बहुत जल्दी ट्रैप होते जा रहे हैं. साहित्यिक प्रपंच से दूर रहना चाहिए. रचनात्मकता बाधित हो रही है. साहित्यिक प्रपंच लेखक की रचनात्मकता को सोख लेती और सोख रही है. हम इन चीजों में फंस रहे हैं, ट्रैप हो रहे हैं."

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विवादों पर साहित्य प्रेमियों को कोई संदेश देंगे? इस पर प्रेम ने कहा कि संदेश का कोई मामला नहीं है, हर आदमी जो लेखन से जुड़ा हुआ है, वह चेतना संपन्न होता है उसे अपने विवेक से फैसला लेना चाहिए. भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहिए, जैसे ही एक व्यक्ति जब व्यक्ति होता है तो बहुत ही अच्छा होता है, संवेदनशीलत होता है वह मनुष्य होता है. लेकिन जैसे किसी आवेग के कारण वह भीड़ का हिस्सा बनता है तो अपनी संवेदनशीलता को खो देता है. एक मनुष्य का अपनी संवेदनशीलता को छोड़ देना, मनुष्य विरोधी हो जाता है. भीड़ में तब्दील हो जाने का मामला ठीक नहीं है.

पाखी-प्रेमियों के लिए क्या कहेंगे? इस सवाल पर भारद्वाज ने कहा, "हम लंबे समय से साक्षात्कार छापते रहे हैं. दस सालों से छापते रहे हैं. मनुष्य से कहीं भूल हो सकती है, लेकिन कहीं कोई साजिश का मामला नहीं है."

Source : IANS

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