हारी हुई बाज़ी को जीतकर सियासत के नए बाजीगर बन गए हैं राहुल गांधी. कांग्रेस के सबसे मुश्किल दौर, सबसे धूमिल दौर में पार्टी को नई चमक दिलाई कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने. 15-15 साल से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सत्ता पर काबिज़ बीजेपी को उखाड़ा तो 5 साल में ही राजस्थान से वसुंधरा राजे का राजपाट उऩसे छीन लिया. राहुल गांधी ने देश के नक्शे पर सिमटती कांग्रेस को एक झटके में हिंदी बेल्ट के 3 बड़े सूबों की सत्ता के सिंहासन पर बिठा दिया. राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद उऩकी अगुवाई में हुए सत्ता के सेमीफाइनल में मैन ऑफ द मैच बनकर सामने आए हैं राहुल गांधी.
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वजूद की जंग में राहुल का परचम
जब सत्ता पक्ष यानी बीजेपी, कांग्रेस का फातेहा पढ़ने में जुटी थी, तब कांग्रेस के नए नवेले अध्यक्ष राहुल गांधी ने सबको बता दिया कि अभी हम ज़िंदा हैं, यानी कांग्रेसमुक्त भारत सिर्फ एक ख्वाब है, जो कांग्रेस की विपक्षी पार्टी बीजेपी देख तो सकती है, उसकी तामीर नहीं हो सकती. 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले किसी बड़े राज्य के तौर पर कांग्रेस के पास सिर्फ पंजाब की ही सत्ता थी. पंजाब की सत्ता को लेकर भी बीजेपी राहुल गांधी पर तंज कसती रही है कि पंजाब में राहुल की नहीं मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की कांग्रेस है क्योंकि पंजाब विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान कैप्टन ने राहुल से पंजाब में प्रचार ना करने को भी कहा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह कई रैलियों में कांग्रेस मुक्त भारत का नारा बुलंद करते रहे हैं. देश के नक्शे पर सिमटती कांग्रेस लोकसभा में भी सिमटकर महज़ 44 सीटों पर आ चुकी थी, जो कांग्रेस के इतिहास में सबसे बुरा प्रदर्शन था. हालत तो ये है कि लोकसभा में नेता विपक्ष का पद तक कांग्रेस हासिल नहीं कर पाई. कांग्रेस के ऐसे मुश्किल दौर में चुनौती सिर्फ कांग्रेस को विपक्षी दल की ओर नहीं थी, बल्कि खुद राहुल गांधी के लिए भी ये वजूद की लड़ाई थी. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने को लेकर भी उनके ऊपर विरासत और वंशवाद के तीरों से हमले किए गए. इन सबके बीच राहुल गांधी की ताज़पोशी कांग्रेसियों में थोड़ा बहुत जोश तो भर रही थी, लेकिन उनकी काबिलियत पर सवाल खुद पार्टी के भीतर भी थे. गांधी परिवार के वट वृक्ष तले दिग्गज कांग्रेसी तो खुद को महफूज़ और आरामदायक समझते रहे हैं, लेकिन निचली कतार के नेता, बाहर से आने वाले नेता और सामान्य कार्यकर्ता के दिल में राहुल गांधी को लेकर सवाल कायम थे. विपक्ष से लेकर कई अपनों के भी कठघरे में खड़े राहुल गांधी ने पहले ही रण में चक्रव्यूह भेदते हुए ना सिर्फ अपनी पार्टी में अपना जलाल कायम किया बल्कि अपने जलाल से बीजेपी के कमल को भी झुलसा दिया.
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राजनीति के सुपरस्टार बने राहुल 3.0
राहुल गांधी ने कांग्रेस की खोई हुई चमक और कार्यकर्ताओं के जोश को लौटाया और इस लड़ाई को पूरी तरह अपने कंधों पर उठाया. रणनीति बनाने से लेकर खुद ज़मीन पर उतरकर पसीना बहाने से भी राहुल गांधी पीछे नहीं रहे. वैसे भी कहावत है कि जो काम सफलतापूर्वक करना हो उसे खुद करना चाहिए. खुद राहुल गांधी के विरोधी और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसकी जीती जागती मिसाल हैं. 2013 में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित होने के बाद से लेकर 2014 में प्रधानमंत्री बनने तक मोदी ने पूरी लड़ाई का जिम्मा खुद उठाया और सालभर तक बिना रुके, बिना थके मेहनत की, जिसका अंजाम आज सबसे सामने है. इसी तर्ज पर राहुल गांधी ने भी कांग्रेस में अपने प्रभुत्व को स्थापित करने और सियासत में अपने वजूद को चमकाने के लिए बिना रुके, बिना थके सत्ता के सेमीफाइनल को खेला. ज़ाहिर है नतीजा भी मनमाफिक निकला. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के 15 साल के वनवास को खत्म करने के लिए राहुल गांधी ने जमकर प्रचार किया. मध्य प्रदेश में राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार के दौरान 17152 किलोमीटर का सफर तय किया तो छत्तीसगढ़ में करीब 15 हजार 653 किलोममीटर जमीन नापी। राजस्थान में भी 14 चुनावी रैलियां के दौरान 14 हजार 807 किलोमीटर सफर किया और हर वर्ग से सीधे संवद बनाया. मिजोरम और तेलंगाना में भी राहुल ने प्रचार में कोई कमी नहीं छोड़ी, हालांकि यहां राहुल को कामयाबी नहीं मिल पाई. लेकिन जहां सही मायने में कांग्रेस को जीत की ज़रूरत थी, वहां सुपरस्टार बनकर सामने आए राहुल गांधी. वैसे राहुल गांधी ने कांग्रेस की जबरदस्त वापसी की भूमिका और अपने ये तेवर गुजरात चुनाव के दौरान ही दिखा दिए थे. ये राहुल गांधी का दम खम ही था कि बेशक़ कांग्रेस वहां सरकार नहीं बना पाई थी, लेकिन राहुल ने गुजरात में इतना तो साबित कर दिया था कि लोग उन पर हंस सकते हैं, उऩका विरोध कर सकते हैं, लेकिन अब उन्हें नजरअंदाज़ नहीं कर सकते.
क्षत्रपों को राहुल ने दिखाया आईना
अपनी पार्टी के भीतर और विपक्षी बीजेपी को अपना जालो-जलाल दिखाने के साथ ही राहुल गांधी ने अपने साथी दलों के बीच भी अपना इक़बाल बुलंद किया. 2019 के महारण में मोदी के मुकाबले कौन..ये सवाल महागठबंधन की सूरत में उसके भीतर भी कुलबुलाता रहा है और बीजेपी तो इसी एक सवाल पर महागठबंधन को खारिज करती रही है...मोदी हमेशा इस बात को लेकर किसी संभावित महागठबंधन को घेरते रहे हैं कि ऐसी कोई गोलबंदी मुमकिन ही नहीं, क्योंकि जितने दल है उतने नेता. पहले महागठबंधन अपने नेता का नाम तो तय कर ले फिर उनसे मुकाबला करे. मोदी या कहें कि बीजेपी का ये सवाल अब तक बेमानी भी नहीं था, क्योंकि मुलायम सिंह यादव, मायावती और तमाम छोटे क्षत्रप खुद को अगुवा बनाने में जुटे रहे लिहाज़ा 2019 के रण के महज़ 4 महीने पहले तक विपक्षी महागठबंधन अमली जामा नहीं पहन सका है. सियासत के दिग्गज ऐसे तमाम क्षत्रप कांग्रेस के झंडे तले आने तो सीधे-सीधे तैयार नहीं और ना ही राहुल गाँधी को महागठबंधन का नेता मानने को तैयार हैं. आलम ये था कि सत्ता के सेमीफाइनल में भी एसपी और बीएसपी ने राज्यों में कांग्रेस से अलग अपने उम्मीदवार उतारे थे. लेकिन राहुल गांधी का सूरज जब सिर चढ़कर चमका तो मायावती और अखिलेश यादव दोनों ने ही बिना शर्त कांग्रेस को समर्थन का एलान कर दिया. हालांकि ये समर्थन राज्यों में सरकार बनाने को लेकर ही है, लेकिन इसने काफी कुछ तस्वीर साफ कर दी है. तेलंगाना में चंद्रबाबू नायडू की शिकस्त ने भी राहुल गांधी के कद को हारने के बावजूद बढ़ा दिया है. ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे क्षत्रपों के लिए भी अब राहुल गांधी को नकारना आसान नहीं.
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Semi-Final जीता, अब Final की तैयारी
तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत राहुल गांधी की जंग का पहला पड़ाव है, मंजि़ल तो 2019 का महारण फतह करना है. राज्यों में कांग्रेस की जीत ने राहुल का कद तो बढ़ाया है, लेकिन केंद्र की सियासत में प्रधानमंत्री मोदी का कद बहुत घट गया हो ऐसा भी नहीं है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी हारकर भी बहुत पीछे नहीं गई है और सबसे बड़ी बात कि चुनावी रणनीति के चाणक्य माने जाने वाले अमित शाह और पीएम मोदी के तरकश से कब कौन सा तीर निकल आए ये कोई नहीं जानता..ऐसे में राहुल गांधी के लिए मंज़िल तक पहुंचने की रणनीति बनाना अब सबसे अहम है. सधी हुई व्यूह रचना के साथ ही राहुल गांधी को अपने ऐसे धुरंधरों को भी थामे रखना होगा जो बेबाक, बेलौस बयानबाज़ी करने से नहीं चूकते. क्योंकि जीत के बाद संभलना ज्यादा मुश्किल होता है, जबकि हार का झटका झेलने के बाद सतर्क होना स्वाभाविक है. यानी अब 2019 में राहुल गांधी का मुकाबला उस बीजेपी से नहीं होगा जो लापरवाह हो गई थी, शायद मगरूर भी हो गई थी. अब मुकाबला होगा पहले से भी ज्यादा चौकन्नी बीजेपी से. अब हमले पहले से ज्यादा तीखे होंगे, अब लड़ाई पहले से ज्यादा घमासान होगी.
Source : Jayyant Awwasthi