साल 2004 में हिंदुस्तान की सियासत में पदार्पण करने वाले राहुल गांधी अब कांग्रेस अध्यक्ष बन चुके हैं। इतने सालों में राहुल बदले हैं, तो राहुल की सियासत का तरीका भी बदला है। राजनीति में आते ही राहुल कांग्रेस में लोकतंत्र को बढ़ावा देने की मुहिम चलाते दिखे। टीम राहुल अमेरिका और इंग्लैंड की तर्ज पर पार्टी के भीतर चुनाव कराने की वकालत करती नज़र आई।
2006 में हैदराबाद अधिवेशन में पार्टी के महासचिव बने राहुल को पार्टी के छात्र संगठन एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस का प्रभार मिला। यहाँ राहुल ने मनोनयन की प्रक्रिया को खत्म करके चुनाव कराने शुरू कर दिए। राहुल के इस कदम की पार्टी के भीतर ही काफी आलोचना हुई। राहुल की इस नीति पर नेताओं का कहना रहा क़ि, सोच अच्छी है, लेकिन अभी हिंदुस्तान की सियासत इसके लिये तैयार नहीं है। साथ ही ज़्यादातर जगहों पर पैसों के अंधाधुंध इस्तेमाल की खबरें आईं और नेताओं के बच्चों- रिश्तेदारों को आसानी से पद मिल गए।
राहुल यहीं नहीं रुके, साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर 15 सीटों पर प्राइमरी योजना लागू की। इसके तहत लोकसभा सीट से पार्टी टिकट दावेदारों के बीच चुनाव कराके उम्मीदवार का चयन किया गया। वैसे तो 2014 के चुनाव में कांग्रेस विरोधी माहौल था ही, लेकिन प्राइमरी वाली सीटों में से कांग्रेस सब पर हार गई। हालाँकि, 2014 के बाद से ये योजना पूरी तरह ठंडे बस्ते में है।
दरअसल, पार्टी के पुराने रणनीतिकारों का मानना है कि, इससे चुनाव से पहले ही पार्टी के भीतर फूट और झगड़ा बढ़ जाता है, जिसका नुकसान होता है। अभी अमेरिका या इंग्लैंड की तर्ज पर भारत में सियासत नहीं हो सकती। साथ ही जब हर पार्टी इस सिस्टम से चले तो ही इसको कांग्रेस में लागू किया जाये। जैसा क़ि, अमेरिका या इंग्लैंड में होता है।
इसके बाद राहुल का पायलट प्रोजेक्ट पूरी तरह बंद तो नहीं हुआ, लेकिन यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई में चुनावी प्रक्रिया में काफी बदलाव कर दिए गए। हाँ, मूल कांग्रेस में राहुल की चुनाव कराने की योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। शायद राहुल भी हिंदुस्तान की सियासत की हकीकत से रूबरू हो चुके हैं।
लेकिन अपने दिल की ख्वाइश को राहुल भला कैसे पूरी तरह मार देते। इसीलिए पार्टी अध्यक्ष मनोनीत होने की नेताओं की सलाह को उन्होंने नकार दिया, वो चाहते तो आसानी से सोनिया के बाद पार्टी अध्यक्ष मनोनीत हो सकते थे। राहुल की ज़िद के बाद ही पार्टी अध्यक्ष के चुनाव की पूरी प्रक्रिया हुई। हालाँकि, उम्मीद के मुताबिक, राहुल के सामने किसी नेता ने नामांकन ही नहीं भरा और राहुल बिना मतदान के पार्टी अध्यक्ष का चुनाव जीत गए।
दरअसल, पार्टी नेताओं का कहना है कि, पार्टी में लोकतंत्र का मतलब है कि, पहले आपसी बातचीत से, मिल बैठ कर फैसला हो जाए वही अच्छा है। पार्टी के भीतर के चुनाव और आम चुनाव में फर्क होता है। आम चुनाव के बाद भी हर पार्टी के जीते हारे उम्मीदवारों को एक होकर किसी से मुकाबला नहीं करना होता, जबकि पार्टी के भीतर चुनाव होने के बाद दिलों में खटास आ जाती है, आपसी आरोप प्रत्यारोप होते हैं, जिसके बाद एक होकर दूसरी पार्टी से लड़ने में परेशानी आना तय है।
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इसलिए अब राहुल के सामने कांग्रेस की सबसे बड़ी फैसले लेने वाली बॉडी कार्यसमिति का गठन है। जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष समेत कुल 25 सदस्य होते हैं। इनमें 12 सदस्य मनोनीत होते हैं और 12 का चुनाव होता है। लेकिन पार्टी सूत्रों की मानें तो सभी 24 सदस्य मनोनीत ही होने वाले हैं या फिर अगर 12 सीटों पर राहुल की ज़िद पर चुनाव हुआ भी तो राहुल के अध्यक्ष पद की तर्ज पर ही होगा यानी 12 लोग ही नामांकन दाखिल करें और बिना वोटिंग के चुन लिए जाएँ।
हालाँकि, इस मुद्दे पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल का कहना है कि, 16 से 18 मार्च को दिल्ली में होने वाले प्लेनरी सेशन में पीसीसी डेलिगेट और एआईसीसी के मेम्बर होंगे। वहीं एआईसीसी के सदस्यों की राय के मुताबिक फैसला होगा क़ि चुनाव होगा या नहीं। वैसे हर 7 पीसीसी डेलिगेट में 2 एआईसीसी के मेंबर चुने जाते हैं, वही कार्यसमिति के चुनाव में वोटिंग करते हैं।
सूत्रों की मानें तो पार्टी की कोशिश यही है कि, एआईसीसी मेंबर ही सभी कार्यसमिति के सदस्यों को चुनने का हक़ एक सुर से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को सौंप दें और राहुल अपनी कार्यसमिति का गठन अपने हिसाब से कर लें।
आखिर सभी का मानना है कि, आज पार्टी को एकजुट होकर राहुल के नेतृत्व में बीजेपी से टकराने की जरूरत है। ऐसे में पार्टी के भीतर चुनाव कराके आपस में झगड़ने और मनमुटाव पैदा करने का कोई औचित्य नहीं। वैसे इस मुद्दे पर कांग्रेस नेता आरपीएन सिंह का कहना है कि, बीजेपी में तो चुनावी प्रक्रिया ही नहीं होती, उस पर मीडिया चुप रहता है, जबकि कांग्रेस में तो बाक़ायदा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का पालन होता है, कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में भी सबके सामने हुआ और आगे भी होगा।
कुल मिलाकर राहुल भी समझ गए हैं कि, आदर्शवाद और यथार्थवाद की सियासत में भरोसा यथार्थवाद पर ही करना होगा। इसीलिए बदलाव करके हल्के फुल्के तरीके से यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई में तो राहुल का प्रयोग चल रहा है, लेकिन मूल कांग्रेस में वही होता दिख रहा है जो होता आया है।
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Source : Mohit Raj Dubey