आजादी के बाद हैदराबाद और जूनागढ़ जैसी रियासतों को भारत का हिस्सा बनाने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी और देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल का कल जन्मदिन हैं. इस खास मौके पर पीएम मोदी गुजरात के सरदार सरोवर बांध पर सरदार पटेल की विश्व में सबसे बड़ी प्रतिमा का अनावरण करेंगे जिसकी लागत करीब 3 हजार करोड़ रुपये हैं। ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या आज एनडीए सरकार जितनी तवज्जों सरदार पटेल को दे रही है उतनी उन्हें आजादी के बाद नहीं मिली थी? सवाल जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल के रिश्तों को लेकर भी उठते रहे हैं.
साल 1946 में कांग्रेस के अगले अध्यक्ष को चुना जाना था. लगभग तय था कि अब जो भी अध्यक्ष बनेगा, वहीं आजादी के बाद देश का प्रधानमंत्री भी चुना जाएगा. महात्मा गांधी की पसंद नेहरू थे, लेकिन अध्यक्ष के नाम पर फैसला पार्टी की राज्य इकाइयों को लेना था. प्रदेशों की 15 इकाईयों में से 12 ने सरदार पटेल के नाम पर मुहर लगाकर राजनीतिक भूचाल ला दिया. ये एलान सिर्फ पं. नेहरू ही नहीं बल्कि महात्मा गांधी के लिए भी बड़ा झटका था, लेकिन सरदार पटेल ने उदारता दिखाई. कांग्रेस अध्यक्ष बनने की दौड़ से पीछे हटे और देश का पहला प्रधानमंत्री बनने का मौका भी छोड़ दिया! यहां याद रखना जरूरी है कि वो महात्मा गांधी ही थे, जिनसे प्रभावित होकर पटेल आजादी की लड़ाई में कूदे थे और उन्हीं का मान रखने के लिए पटेल ने प्रधानमंत्री का पद त्याग दिया.
अजमेर हिंसा ने बढ़ाई आपसी दूरियां
आजादी के साथ ही पटेल—नेहरू में दूरियां एक बार फिर बढ़ गईं. इस बार वजह बनी अजमेर हिंसा. मामला दोनों नेताओं के इस्तीफे की पेशकश तक पहुंच चुका था. तय हुआ कि महात्मा गांधी के सामने दोनों अपना पक्ष रखेंगे. हांलाकिं उसी दौरान ही महात्मा गांधी ने अपना उपवास शुरू कर दिया. 30 जनवरी 1948 को सरदार पटेल ने महात्मा गांधी से मुलाकात की. बापू ने पटेल से नेहरू के साथ आपसी मतभेद मिटाने को कहा और अगले दिन दोनों से एक साथ मिलने का भरोसा भी जताया. अफसोस कि बापू की जिंदगी का वो आखिरी दिन था. महात्मा गांधी की मौत के 3 दिन बाद ही नेहरू ने पटेल को खत लिखकर साथ काम करने को कहा. जबाव में पटेल ने भी सहमति जताई.
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के नाम पर दिखी कलह
बापू के निधन के कुछ समय बाद साल 1949 तक पटेल और नेहरू के बीच मदभेद एक बार फिर बढ़ चुका थे. दरअसल जवाहर लाल नेहरू सी राजगोपालचारी को देश का राष्ट्रपति बनाना चाहते थे जबकि सरदार पटेल की पंसद डॉ राजेन्द्र प्रसाद थे. सरदार पटेल ने अपनी सियासी सूझबूझ की बदौलत डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के नाम पर संगठन में मुहर लगवा दिया और डॉ. प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति चुने गए. यकीनन नेहरू के लिए ये एक बड़ा सियासी झटका था.
कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर फिर दिखा घमासान
साल 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव होना था. पं. नेहरू के विरोध के बावजूद सरदार पटेल ने इलाहाबाद के पुरूषोत्म दास टंडन को कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दिया. टंडन की छवि नेहरू की विचारधारा के विपरीत थी. इस झटके से नाराज नेहरू ने सी. राजगोपालचारी को खत लिखकर कहा कि कांग्रेस और सरकार में नेहरू की उपयोगिता खत्म हो चुकी है. इसके बाद राजाजी ने पटेल और नेहरू में सुलह कराने की पहल की. बाद में 1952 के पहले लोकसभा चुनाव से पहले टंडन ने इस्तीफा दे दिया और नेहरू के चेहरे के साथ कांग्रेस पार्टी चुनावी मैदान में उतरी.
पटेल ने नेहरू को ही माना नेता
वैसे 2 अक्टूबर को इंदौर में एक कार्यक्रम में पटेल ने माना था कि महात्मा गांधी के बाद नेहरू ही पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं, जिनके निर्देशों का पालन हर किसी को करना चाहिए. यकीनन ऐसे कई मौके आए जबकि पटेल और नेहरू की दुरियां साफ नजर आईं हालाकि कुछ जानकारों के मुताबिक जितना वैचारिक मतभेद था, उतना सार्वजनिक तौर पर दिखा नहीं और इसकी कई वजह थीं. सरदार पटेल का अनुभव और धैर्य, पटेल की खराब सेहत और बापू को दिया वादा भी इस सबकी वजह के तौर पर गिना जाता है.
ऐसे में आज के दौर में जरा सरदार को खोजने की कोशिश तो करिए, बड़ा शून्य नजर आएगा. आज किसी में पीएम ना बन पाने की टीस नजर आती है तो कहीं सियासी उत्तराधिकार के लिए पारिवारिक कलह दिखती है. कमी है तो बस सरदार पटेल जैसे शख्सियत की.
Source : Anurag Dixit