स्वामी विवेकानंद की आज (शुक्रवार) जयंती है। इस मौके पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई हस्तियों ने उन्हें याद किया। मोदी ने ट्विट के साथ वीडियो शेयर करते हुए कहा कि वह स्वामी विवेकानंद की जयंती पर उन्हें प्रणाम करते हैं।
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा कि स्वामी विवेकानंद की जयंती के शुभ अवसर पर उनकी स्मृति को मैं नमन करता हूं। उस महान विद्वान, संत और राष्ट्र निर्माता के सम्मान में हम आज का दिन 'राष्ट्रीय युवा दिवस' के रूप में मनाते हैं।
आपको बता दें कि अध्यात्म के क्षेत्र में किए गए उनके कार्यो को देखते हुए हर साल उनकी जयंती 12 जनवरी को 'युवा दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
I bow to Swami Vivekananda on his Jayanti. Today, on National Youth Day I salute the indomitable energy and enthusiasm of our youngsters, who are the builders of New India. pic.twitter.com/1aXEqvVRgY
— Narendra Modi (@narendramodi) January 12, 2018
जानें विवेकानंद को
'उठो, जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए', 'यह जीवन अल्पकालीन है, संसार की विलासिता क्षणिक है, लेकिन जो दूसरों के लिए जीते हैं, वे वास्तव में जीते हैं।' गुलाम भारत में ये बातें स्वामी विवेकानंद ने अपने प्रवचनों में कही थी। उनकी इन बातों पर देश के लाखों युवा फिदा हो गए थे। बाद में तो स्वामी की बातों का अमेरिका तक कायल हो गया।
12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता (अब कोलकाता) के गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट के एक कायस्थ परिवार में विश्वनाथ दत्त के घर में जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद) को हिंदू धर्म के मुख्य प्रचारक के रूप में जाना जाता है।
और पढ़ें: जगदीश सिंह खेहर ने कहा- हिंदुत्व की राजनीति भारत के हित में नहीं
नरेंद्र के पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वह चाहते थे कि उनका पुत्र भी पाश्चात्य सभ्यता के मार्ग पर चले। मगर नरेंद्र ने 25 साल की उम्र में घर-परिवार छोड़कर संन्यासी का जीवन अपना लिया। परमात्मा को पाने की लालसा के साथ तेज दिमाग ने युवक नरेंद्र को देश के साथ-साथ दुनिया में विख्यात बना दिया।
नरेंद्रनाथ दत्त के 9 भाई-बहन थे, पिता विश्वनाथ कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील हुआ करते थे और दादा दुर्गाचरण दत्त संस्कृत और पारसी के विद्वान थे।
अपने युवा दिनों में नरेंद्र को अध्यात्म में रुचि हो गई थी। वह अपना अधिक समय शिव, राम और सीता की तस्वीरों के सामने ध्यान लगाकर साधना किया करते थे। उन्हें साधुओं और संन्यासियों के प्रवचन और उनकी कही बातें हमेशा प्रेरित करती थीं।
पिता विश्वनाथ ने नरेंद्र की रुचि को देखते हुए आठ साल की आयु में उनका दाखिला ईश्वर चंद्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट में कराया, जहां से उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। 1879 में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज की एंट्रेंस परीक्षा में फस्र्ट डिवीजन लाने वाले वे पहले विद्यार्थी थे।
उन्होंने दर्शनशास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य जैसे विभिन्न विषयों को काफी पढ़ा था, साथ ही हिंदू धर्मग्रंथों में भी उनकी रुचि थी। उन्होंने वेद, उपनिषद, भगवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराण को भी पढ़ा। उन्होंने 1881 में ललित कला की परीक्षा पास की और 1884 में कला स्नातक की डिग्री प्राप्त की।
नरेंद्रनाथ दत्त की जिंदगी में सबसे बड़ा मोड़ 1881 के अंत और 1882 के प्रारंभ में आया, जब वह अपने दो मित्रों के साथ दक्षिणेश्वर जाकर काली-भक्त रामकृष्ण परमहंस से मिले। यहीं से नरेंद्र का 'स्वामी विवेकानंद' बनने का सफर शुरू हुआ।
सन् 1884 में पिता की अचानक मृत्यु से नरेंद्र को मानसिक आघात पहुंचा। उनका विचलित मन देख उनकी मदद रामकृष्ण परमहंस ने की। उन्होंने नरेंद्र को अपना ध्यान अध्यात्म में लगाने को कहा। इसके बाद तो नरेंद्र दिन में तीन-तीन बार मंदिर जाने लगे। मोह-माया से संन्यास लेने के बाद उनका नाम स्वामी विवेकानंद पड़ा।
सन् 1885 में रामकृष्ण को गले का कैंसर हुआ, जिसके बाद उन्हें जगह-जगह इलाज के लिए जाना पड़ा। उनके अंतिम दिनों में नरेंद्र और उनके अन्य साथियों ने रामकृष्ण की खूब सेवा की। इसी दौरान नरेंद्र की आध्यात्मिक शिक्षा भी शुरू हो गई थी।
रामकृष्ण के अंतिम दिनों के दौरान 25 वर्षीय नरेंद्र और उनके अन्य शिष्यों ने भगवा पोशाक धारण कर ली थी। रामकृष्ण ने अपने अंतिम दिनों में नरेंद्र को ज्ञान का पाठ दिया और सिखाया कि मनुष्य की सेवा करना ही भगवान की सबसे बड़ी पूजा है।
रामकृष्ण ने उन्हें अपने मठवासियों का ध्यान रखने को कहा। साथ ही उन्होंने कहा कि वे नरेंद्र को एक गुरु के रूप में देखना चाहते हैं। 16 अगस्त, 1886 को कोस्सिपोरे में रामकृष्ण का निधन हो गया।
सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो में हुई विश्व धर्म परिषद् में स्वामी विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे थे। जहां यूरोप-अमेरिका के लोगों द्वारा पराधीन भारतवासियों को हीन दृष्टि से देखा जाता था।
परिषद में मौजूद लोगों की बहुत कोशिशों के बावजूद एक अमेरिकी प्रोफेसर के प्रयास से स्वामी विवेकानंद को बोलने के लिए थोड़ा समय मिला। उनके विचार सुनकर वहां मौजूद सभी विद्वान चकित रह गए और उसके बाद वह तीन वर्ष तक अमेरिका में रहे और लोगों को भारतीय तत्वज्ञान प्रदान करते रहे।
अपने गुरु के दिखाए मार्ग से लोगों को अवगत कराने के लिए उन्होंने सन् 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इसके साथ ही उन्होंने दुनिया में जगह-जगह रामकृष्ण मिशन की शाखाएं स्थापित कीं।
रामकृष्ण मिशन की शिक्षा थी कि दुनिया के सभी धर्म सत्य हैं और वे एक ही ध्येय की तरफ जाने के अलग-अलग रास्ते हैं।
विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन ने धर्म के साथ-साथ सामाजिक सुधार के लिए विशेष अभियान चलाए। इसके अलावा उन्होंने जगह-जगह अनाथाश्रम, अस्पताल, छात्रावास की स्थापना की।
मिशन के तहत उन्होंने अंधश्रद्धा छोड़ विवेक बुद्धि से धर्म का अभ्यास करने को कहा। उन्होंने इंसान की सेवा को सच्चा धर्म करार दिया। जाति व्यवस्था को दरकिनार कर उन्होंने मानवतावाद और विश्व-बंधुत्व का प्रचार-प्रसार किया।
उन्होंने युवाओं में चेतना भरने के लिए कहा था कि आज के युवकों को शारीरिक प्रगति से ज्यादा आंतरिक प्रगति करने की जरूरत है। आज के युवाओं को अलग-अलग दिशा में भटकने की बजाय एक ही दिशा में ध्यान केंद्रित करना चाहिए। और अंत तक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयास करते रहना चाहिए। युवाओं को अपने प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करना चाहिए।
स्वामी विवेकानंद की कम उम्र में मृत्यु को लकेर मशहूर बांग्ला लेखक शंकर ने अपनी किताब 'द मॉन्क ऐज मैन' में लिखा था कि स्वामी अनिद्रा, मलेरिया, माइग्रेन, डायबिटीज समेत दिल, किडनी और लिवर से जुड़ी 31 बीमारियों के शिकार थे। इसी वजह से उनका सिर्फ 39 साल की उम्र में चार जुलाई, 1902 को निधन हो गया।
और पढ़ें: ISRO थोड़ी देर में भेजेगा 100वां सैटेलाइट PSLV-C40, रचेगा इतिहास
(इनपुट IANS से भी)
Source : News Nation Bureau