पूरी दुनिया में 1 मई मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर एसए डांगे, ज्योतिर्मय बसु, एके गोपालन, नंबूदरीपाद, एसएम बनर्जी, वीवी गिरी, एपी शर्मा, पीटर अलवारिस, दत्तोपंत ठेंगड़ी, दत्ता सामंत, उमरावमल पुरोहित, जॉर्ज फर्नांडिस और रामदेव सिंह सरीखे मजदूर नेताओं को भी याद करने की जरूरत है, जिन्होंने मजदूरों की भलाई के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष किया और उन्हें सफलता भी मिली. हाल ही में 14 अप्रैल 2022 को एशिया की सबसे बड़ी एल्यूमिनियम कंपनी हिंडाल्को के प्रथम मजदूर नेता रामदेव सिंह की 87 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी.
मजदूरों का मसीहा कहे जाने वाले रामदेव बाबू की याद में 28 अप्रैल 2022 को एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया जिसमें क्षेत्र के गणमान्य व्यक्तियों ने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रकाश डाला. तब से वह फिर चर्चा में हैं और लोग जगे हैं. इस अवसर पर दो महत्वपूर्ण घोषणाएँ भी हुईं. पिपरी नगर पंचायत के चेयरमैन दिग्विजय सिंह ने शहर में बनने वाले पार्क का नाम रामदेव सिंह पार्क रखने की घोषणा की. रामदेव बाबू के पुत्र कवि मनोज भावुक ने घोषणा की कि हर साल बाबूजी की पुण्यतिथि 14 अप्रैल को मजदूरों की लड़ाई लड़ने वाले एक शख्सियत को रामदेव सिंह सम्मान से नवाजा जाएगा.
रामदेव बाबू की राजनीतिक पारी इतिहास के पन्नों में आसानी से नहीं खोजी जा सकती है. वे पढ़े-लिखे नहीं थे और उन पर लिखा-पढ़ा भी नहीं गया था. वह लोक में जिंदा थे और उनकी बहादुरी की कहानियाँ मुँहजुबानी थी. रेनूकूट के कामरेड द्वारका सिंह अपने भाषणों में अक्सर कहते थे, अदमिन में नउआ, पंछिन में कउआ आ नेतवन में रमदेउआ.
नेता रामदेव की कहानी, उनके संघर्ष के साथियों की जुबानी
बाबू रामदेव के संघर्ष के दिनों के साथी वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार अजय शेखर उस दौर को याद करते हुए कहते हैं, “जब किसी तरह के जुल्म के खिलाफ, शोषण के खिलाफ, अत्याचार के खिलाफ सीना तान कर एक टोली खड़ी हो जाती थी और उस टोली में चाँद की तरह चमकता था एक चेहरा, वह चेहरा बाबू रामदेव सिंह का था. रामदेव जी की तरह अक्खड़, संकल्पशक्ति और इच्छाशक्ति वाले लोग दुर्लभ हैं. भारत में सोने की लंका का कोई महत्व नहीं है, यहाँ महत्व है चौदह साल वनवास रह कर लोक कल्याण करने वाले राम का. यहाँ महत्व है चौदह साल वनवास रहकर हिंडाल्को मैनेजमेंट के अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर और लड़कर मजदूरों का कल्याण करने वाले रामदेव का. रामदेव कभी झुके नहीं, रामदेव कभी रुके नहीं, अभाव और यातनाएँ रामदेव के कदम को रोक नहीं पाईं. किसी तरह का प्रलोभन रामदेव को डिगा नहीं पाया. शोषण और जुल्म के खिलाफ सीना तान कर वह आजन्म लड़ते रहे. कभी पराजय नहीं स्वीकार किया. मजदूर आंदोलन के इतिहास में वह एक अपराजेय योद्धा की तरह याद किये जाते रहेंगे.”
रामदेव बाबू के साथ अक्सर मजदूरों के हित के लिये किये जाने वाले असंख्य हड़ताल में हिस्सा लेने वाले श्रीनारायण पाण्डेय जब फाकामस्ती में बीते उन 60 और 70 के दशक की बात करते हैं तो उनकी आँखें डबडबा जाती हैं. वह बोलते हैं, रुक कर गला साफ करते हैं और फिर उन जिद और दृढ़ संकल्प की कहानियों को कहते जाते हैं. “रामदेव जी से मेरा परिचय 1962 में 29 जून को हुआ था. वह हिंडाल्को में पॉट रूम में काम करने के दौरान वहाँ मजदूरों की दयनीय हालत को देखकर मैनेजमेंट पर हमेशा करारा प्रहार किया करते थे जिसके कारण उन्हें कई-कई बार टर्मिनेशन का सामना करना पड़ा था. बाबू रामदेव सिंह ने एक ट्रेड यूनियन ‘राष्ट्रीय श्रमिक संघ’ की स्थापना की, जो आज भी सक्रिय है. उस समय रेनूकूट के सड़क के दोनों किनारों पर एक भी झोपड़ी नहीं थी, एक भी दुकानदार नहीं था...सिर्फ बेहया (जंगली झाड़ी) के जंगल थे. रामदेव जी ने झोपड़ियाँ बनवाईं, दुकाने खुलवाईं और व्यापार मण्डल के अध्यक्ष बने. रामदेव जी ने बिड़ला मैनेजमेंट के खिलाफ संघर्ष किया जिसके कारण उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा. रामदेव जी ने जीवन का पहला आंदोलन साल 1963 में एक रात 11 बजे शुरू किया जब उन्होंने हिंडाल्को में तीन दिन की हड़ताल करा दी. फिर दूसरी हड़ताल 12 अगस्त 1966 में हुई. उसका असर ये हुआ कि रामदेव बाबू समेत 318 लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया. वह पक्के सोशलिस्ट थे, जिद्दी और धुन के पक्के थे.”
राम को ही नहीं रामदेव को भी मिला चौदह साल का बनवास
रेनुकूट रामदेव सिंह का कर्मक्षेत्र आ कुरुक्षेत्र दोनों था. उनके जीवन के कुरुक्षेत्र में सहयोगी रहे वरिष्ठ भाजपा नेता श्रीनारायण पांडे रामदेव बाबू के बेरोजगारी में गुजरे जीवन के बारे में बताते हैं कि वह 14 साल तक बेरोजगार रहे और उन्हें इसकी सुध नहीं थी. क्योंकि वह एशिया के सबसे बड़े अल्युमिनियम कारखाने के मजदूरों के हक के लिये लड़ रहे थे. उन्हें बहुत प्रलोभन दिया गया लेकिन उनके जमीर का कोई मोल नहीं लगा सका. साल 1977 में उनके साथी और प्रसिद्ध राजनेता रहे राजनारायण जी ने रामदेव जी को पुनः हिंडाल्को जॉइन कराया. इस दरम्यान उनका परिवार, उनके बच्चे सब मुफलिसी में जीवन काटते रहे. कह सकते हैं कि रामदेव सिंह को नेता रामदेव सिंह बनाने में उनके परिवार का भी बड़ा सहयोग है. अगर लाचारी, दुख और गरीबी रामदेव बाबू ने देखा तो उनका परिवार भी उसी तरह नून तेल में अपना जीवन गुजारता रहा. जब उनकी नौकरी लगी तो भी उनका तेवर कभी नरम नहीं हुआ. रामदेव बाबू किसी की भी गलत बात को सहते-सुनते नहीं थे.
हिंडाल्को की चिमनी का धुआँ बंद कर दिया रामदेव बाबू ने
रामदेव सिंह के पुराने सहयोगी और उत्तरप्रदेश ट्रेड यूनियन कांग्रेस के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट लल्लन राय ने तमाम स्मृतियों के जाले साफ करते हुए भर्राई आवाज में कहा, “रामदेव सिंह जी मजदूरों के सर्वमान्य नेता थे और मजदूरों के ही नहीं, रेनूकूट में जो बहुमंजिली दुकाने हैं, जो चमकता बाजार है, वहाँ कभी पथरीली जमीन हुआ करती थी. उस बाजार और दुकानों का अगर कोई माई-बाप था, वो बाबू रामदेव सिंह थे. हिंडाल्को की मर्जी के खिलाफ रामदेव सिंह ने रेनूकूट के असहाय दुकानदारों को बसाया. तो यूं कहिए कि बाबू रामदेव सिंह जी मजदूरों के साथ-साथ, दुकानदारों और जनता के जननेता थे. 12 अगस्त 1966 को बाबू रामदेव सिंह की एक आवाज पर हिंडाल्को की चिमनी का धुआँ बंद हो गया था. पूरे प्लांट को बंद करना पड़ा था. इतना बड़ा जन समर्थन था, बाबू रामदेव सिंह के साथ.”
रेनूकूट में बाजार और दुकानदार को बसाने वाला आजीवन रहा टीन शेड में
जब वीरान रेनूकूट पहले लकड़ी के गुमटियों और फिर ईंट गारे से बने पक्की दुकानों से भरे बाजार में बदला तो यह सभी बदलाव एक शख्स की वजह से हो रहे थे. उनकी ही प्रेरणा और समर्थन था कि यहाँ के सामान्य लोग आज बड़े व्यापारी और दुकानदार बन गए हैं. उन्होंने सबसे पहले व्यापार मण्डल की स्थापना की और उसके अध्यक्ष बने. फिर उस बैनर के नीचे व्यापारियों और छोटे दुकानदारों के हितों के लिये पुनः बिड़ला मैनेजमेंट से भिड़ गए. कह सकते हैं कि उनके अंदर का क्रांतिकारी जब भी अन्याय और शोषण देखता, जाग जाया करता था. लेकिन समाज सेवा के लिये जीवन दे देने वाले लाल बहादुर शास्त्री, कलाम जैसे लोग प्रभावशाली स्थिति में आकर भी अंत तक मुफलिसी में रहे, वैसी ही स्थिति रामदेव बाबू की भी रही. बिजली बत्तियों से चमचमाता बाजार बसाने वाले रामदेव सिंह का जीवन टीन शेड में गुजरा. वह कभी छप्पर वाला मकान नहीं बना पाए. जिनके बारे में मशहूर है कि हिंडाल्को में सैकड़ों योग्य लोगों की नौकरी उनके एक बार कह देने से लग गई, अपने तीन बेटे और बेटी की नौकरी वह नहीं लगवा पाए. ऐसे स्वार्थहीन व्यक्तित्व थे रामदेव बाबू.
एक किसान का बेटा कैसे बना मजदूर नेता
बिहार के सिवान जिले के कौंसड़ गाँव में जन्मे रामदेव सिंह एक सामान्य किसान के बेटे थे. 18 की उम्र में परिवार का सहयोग करने के लिये नौकरी ढूंढते हुए वह गोरखपुर चले आए. एक कंपनी में सुपरवाइजर का काम मिला जिसमें उन्हें 70 रुपया तनख्वाह मिलने लगा. वह अधिक कमाई के लिये झरिया के शिवपुर कोइलरी में आ गए. वहाँ एक साल तक काम करते रहे. लेकिन जब उनकी माता जी को पता चला कि कोलफील्ड में काम करने के लिए जान जोखिम में डालना पड़ता है तो उन्हे वहाँ से नौकरी छोड़ने को कहा. फिर वह जेके नगर में गए और वहाँ कुछ दिन काम किया और उसके बाद उनका रुख रेनूकूट की ओर हुआ. 1961-62 के बीच उनकी नौकरी हिंडाल्को कारखाने के पॉट रूम में लगी, जहां आग उगलती भट्ठियाँ और उबलते बॉयलर्स होते थे. मजदूरों को वहाँ खतरनाक परिस्थितियों में काम करना पड़ता था. ऊपर से तनख्वाह और सुविधाएं नाम मात्र की थीं, तथा अधिकारियों की डाँट फटकार से वहाँ के मजदूर त्रस्त थे. आवास के नाम पर एक टीन शेड के नीचे 30-30 मजदूर भेड़ बकरियों के जैसे रहा करते थे. यह सब देख उबलते बॉयलर्स की तरह युवा रामदेव के अंदर का क्रांतिकारी उबल पड़ा. वह सीधे फोरमैन से जाकर मजदूरों की समस्या के लिये भिड़ गए. उन लोगों ने जॉब से निकालने की धमकी दी तो वह और तन गए. उनके खिलाफ वार्निंग लेटर आया, जिसे उन्होंने अधिकारियों के सामने सुलगते सिगरेट से जला दिया.
यह सब साथी मजदूरों के लिये टॉनिक की घूंट थी, कई अमरीकी भी उनके समर्थन में आए. कुछ हफ्तों में रामदेव सिंह नेता रामदेव बन गए थे. मैनेजमेंट ने एक दिन उन्हें नौकरी से निकाल दिया. जब वह अगले दिन गेट पर आए तो बीसियों सिक्योरिटी गार्ड उनका रास्ता रोकने को खड़े थे. युवा रामदेव गेट पर खड़े रहे और हजारों मजदूरों की भीड़ गेट पर ही धरने पर बैठ गई. रामदेव सिंह जिंदाबाद के नारे लगे. मजदूरों की मांग थी कि रामदेव अगर नौकरी नहीं करेगें तो हम भी काम नहीं करेंगे. मैनेजमेंट झुक गया और चेतावनी देकर उन्हें वापस काम पर रख लिया. हालांकि उन्होंने इतने बड़े समर्थन के बाद मजदूरों की लड़ाई और तेज कर दी. इस तरह हिंडाल्को के मजदूरों को अपना पहला मजदूर नेता मिल गया था. उन्होंने बाद में ट्रेड यूनियन बना ली. लेकिन कुछ महीनों बाद ही उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया. उनको जान से मारने की कई बार साजिश हुई. उनके सहयोगी को एक-एक करके झूठे मामलों में फंसा कर जेल भेज दिया गया. रामदेव सिंह को भी कई बार जेल जाना पड़ा. वह हिंडाल्को से बाहर थे लेकिन वहाँ के मजदूरों के लिये लड़ते रहे. उनके पीछे गुप्तचरों की टीम लगी रहती थी, इसलिए उन्हें देश की आजादी के क्रांतिकारियों की तरह ठिकाना बदल-बदल कर योजनाएं बनानी पड़ती थीं. हड़ताल पर हड़ताल होते गए, नेता रामदेव सिंह का नाम पहले राज्य के राजनीति में फिर केंद्र की राजनीतिक गलियारों तक पहुँच गया. पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह से रामदेव सिंह ने कई बार मीटिंग की. केन्द्रीय मंत्री रहे राजनारायण और प्रभुनारायण तो उनके संघर्ष के साथी रहे. उनका भरपूर समर्थन हमेशा मिलता रहा.
अंत समय तक सच्चे समाजवादी बने रहे
रेनुकूट से सटे पिपरी पुलिस स्टेशन के पास रामदेव सिंह का निवास स्थान था, जहां अक्सर भारतीय राजनीति के महान राजनेता राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, राजनारायण, चौधरी चरण सिंह, जॉर्ज फर्नांडीज़, विश्वनाथ प्रताप सिंह चंद्रशेखर, लालू प्रसाद यादव और वर्तमान केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह आदि का आना-जाना हुआ करता था. यहीं दावत होती और राजनीतिक विश्लेषण होते. सच्चे समाजवादी के रूप में मशहूर रामदेव सिंह की बहादुरी और बेबाकीपन के सब कायल थे. इसलिए सब उन्हें बड़ा सम्मान करते थे. रामदेव सिंह ने मजदूर आन्दोलन में अपनी उग्र छवि और साहसिक प्रदर्शनों के कारण पहचान कायम की थी.
एक बार की बात है बुजुर्ग हो रहे रामदेव सिंह की तबीयत गंभीर हो गई तो उनके बेटे उन्हें लखनऊ के अस्पताल लेकर गए. इसकी सूचना यूपी के मुख्यमंत्री रहे रामनरेश यादव को मिली. वह आनन फानन उनसे मिलने आए. वह रामदेव बाबू को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे. उनका लगाव रामदेव सिंह से आजीवन रहा.
जे. पी. आन्दोलन में भी सक्रिय रामदेव बाबू का रजनीतिक जीवन हमेशा उन्हें परिवार से दूर ही रखे रहा. राम मनोहर लोहिया और पूर्व प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर से नजदीकी के बाद दिल्ली से दौलताबाद तक मीटिंग, कान्फ्रेन्स और भाषणबाजी में उनका अधिकतर समय बीता. दो टूक और ठाँय-ठूक बतियाने वाले रामदेव सिंह को सियासी पैतराबाजी कभी समझ में नहीं आई. वह भीतर से निष्कपट थे और बेलाग और स्पष्ट मुँह पर बोलते थे. उनकी इच्छा थी कि वह एक बार बतौर सांसद मजदूरों की आवाज बन कर अपनी हाजिरी दें. उन्होंने बंगाल, बिहार और यू. पी. की कई कंपनियों में मजदूर यूनियनों के समर्थन में संघर्ष किया. जहां भी अन्याय देखा, वहीं भिड़ गए और उसके खात्मे के बाद हीं वहाँ से हटें.
उनके एकमात्र उपलब्ध साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि, “मैंने गलत कमाई और हराम के पैसे को कभी नहीं छुआ. ना कोई संपत्ति बनाई, ना गाड़ी है, ना घोड़ा. बस धोती-कुर्ता-छाता और पुराना बक्सा है जिसमें दवाइयाँ और पुरानी यादों को सहेजे कुछ तस्वीरें हैं. दुबारा जब नौकरी लगी तो उससे सेवानिवृति के बाद 300-400 रूपया पेंशन आता है. कई करीबी लोगों ने धोखा दिया, चीटिंग की. इस बात ने बड़ी तकलीफ दी. कंपनी ने भी जो वादा किया, पूरा नहीं किया. ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे इसलिए बातें देर से समझ आईं, चेहरे देर से पहचान में आए.
ये भी पढ़ें- नए सेना प्रमुख ले. जेनरल मनोज पांडेय को इन चुनौतियों का करना होगा सामना
बहुत सारी तकलीफो के साथ साँस और पेट की भी तकलीफ रहती है. खैर, लड़ने की आदत है. देखिए, और कितने दिन! ...कभी-कभी इस बात का अफ़सोस होता है कि परिवार के लिये कुछ नहीं किया, अगर परिवार सिर्फ बेटा-बेटी और पत्नी को ही कहते हैं तो. मुझे रोड की सफाई करने वाले, ईंट-पत्थर को जोड़कर मकान बनाने वाले, फैक्ट्री में अपनी हड्डी गलाने वाले अपना ही परिवार लगे तो मैं क्या करूँ? चलिये...सुख! सुख सिर्फ रुपया-पैसा और गाड़ी-बंगला नहीं है. इस बात का भी सुख होता है न कि मैं किसी के सामने झुका नहीं. इस बात का भी सुख होता है न कि लोग जहाँ नौकरी के लिये अपने बॉस से डरते हैं, हमने बिड़ला मैनेजमेंट को ललकार दिया. अत्याचार को कभी स्वीकार नहीं किया. कष्ट हुआ, कष्ट तो लोहिया और जेपी को भी भोगना पड़ा. इसलिए जो कुछ मिला है, उसके लिये ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ. अब जितने दिन बचे हैं, भगवान बस उसे बढ़िया से निकाल दें. ‘’ और सचमुच भगवान ने बढ़िया से ही निकाल दिया. हँसते-खेलते, बोलते-बतियाते, अपना सारा काम खुद करते और मजदूर नेताओं का मार्गदर्शन करते उनके लिये प्रेरणास्रोत बनकर दुनिया से विदा हो गए रामदेव बाबू. उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!
HIGHLIGHTS
- मजदूरों का मसीहा कहलाते ते रामदेव बाबू
- 87 वर्षीय मजदूर नेता की इसी वर्ष हुई है मृत्यु
- हिंडाल्कों के खिलाफ आंदोलन के थे अगवा