Polygraph Test: आज के चिकित्सा विज्ञान में ऐसे कई परीक्षण हैं, जिनके माध्यम से व्यक्ति के बारे में सब कुछ जाना जा सकता है. कोई इंसान सच बोल रहा है या झूठ ये जानने के लिए पॉलिग्राफ टेस्ट किया जाता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि पॉलीग्राफ टेस्ट की रिपोर्ट कोर्ट में मान्य नहीं होती है. आज हम आपको बताते हैं कि पॉलीग्राफ टेस्ट कैसे किया जाता है.
कैसे होता है पॉलीग्राफ टेस्ट
पॉलीग्राफ टेस्ट इस धारणा पर आधारित है कि जब कोई व्यक्ति झूठ बोल रहा होता है तो शारीरिक प्रतिक्रियाएं जैसे दिल की धड़कन, सांस लेने में बदलाव, पसीना आना आदि शुरू हो जाती हैं. पूछताछ के समय कार्डियो-कफ या सेंसेटिव इलेक्ट्रोड जैसे उपकरण व्यक्ति से जुड़े होते हैं और रक्तचाप, नाड़ी, रक्त प्रवाह आदि को मापा जाता है. कि क्या व्यक्ति सच बोल रहा है, या झूठ बोल रहा.
जानकारी के मुताबिक इस तरह का टेस्ट पहली बार 19वीं शताब्दी में इतालवी अपराधविज्ञानी सेसारे लोम्ब्रोसो द्वारा किया गया था, जिन्होंने पूछताछ के दौरान आपराधिक संदिग्धों के बीपी में परिवर्तन को मापने के लिए एक मशीन का उपयोग किया था. इसी तरह के उपकरण बाद में 1914 में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक विलियम मैरस्ट्रॉन और 1921 में कैलिफोर्निया पुलिस अधिकारी जॉन लार्सन द्वारा बनाए गए थे.
पॉलीग्राफ टेस्ट सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में अपने फैसले में कहा कि किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के खिलाफ नार्को और पॉलीग्राफ टेस्ट के लिए परेशान नहीं किया जा सकता. इसे केवल सहमति के आधार पर किया जा सकता है और इसे सहायक सबूत के रूप में माना जा सकता है. हालांकि जांच एजेंसियां इन्हें प्राथमिकता देती हैं. शायद इससे उन्हें सबूत जुटाने में मदद मिलेगी.