Village of Widow (Photo Credit: Social Media)
New Delhi:
Village of Widows: हमारे देश में लाखों गांव हैं और हर गांव में लोग अपने तौर तरीकों से रहते हैं. इसीलिए दुनियाभर में हमारे देश के गांव प्रसिद्ध हैं. हर गांव का अपना-अपना नाम होता है. लेकिन आज हम आपको एक ऐसे गांव के बारे में बताने जा रहे हैं. जिसके बारे में शायद ही आपने कभी सुना होगा. क्योंकि, इस गांव को लोग 'विधवाओं का गांव' नाम से जानते हैं. ये देश के इकलौता ऐसा गांव है जिसका नाम इतनी अजीब है. ये गांव राजस्थान के बूंदी जिले में स्थिर है.
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राजस्थान के बूंदी में विधवाओं का गांव
राजस्थान के बूंदी जिले में स्थिर एक गांव को विधवाओं के गांव के नाम से जाना जाता है. हालांकि इस गांव का नाम बुधपुरा है. इस गांव की महिलाएं दिन में 10-10 घंटे मजदूरी करती हैं, तब कहीं जाकर अपने परिवार को पालती हैं. क्योंकि इस गांव के पुरुषों की असमय ही मृत्यु हो जाती है. जिससे इस गांव की महिलाओं को मजदूरी करने को मजबूर होना पड़ता है और इसीलिए इस गांव को विधवाओं का गांव नाम से जाना जाता है.
क्यों हो जाती है इस गांव के पुरुषों की मृत्यु
बता दें कि इस गांव के पुरुषों की असमय मृत्यु का कारण यहां मौजूद खदानें है. जिनमें दिन रात काम चलता रहता है. इन्हीं खदानों में यहां के लोग काम करते हैं. इन खदानों में काम करने की वजह से ही यहां के लोगों को सिलिकोसिस नाम की एक बीमारी हो जाती है. जो बेहद खतरनाक होती है. इस बीमारी के होने के कुछ महीनों के अंदर ही इंसान की मौत हो जाती है. जिसके चलते इस गांव की तमाम महिलाएं विधवा हो जाती है इसीलिए इस गांव को लोग विधवाओं का गांव नाम से पुकारते हैं. इस गांव के ज्यादातर लोग मजदूर है और यहां की खदानों में काम करते हैं. जब उन्हें सिलिकोसिस नाम की बीमारी हो जाती है तो उन्हें समय से इलाज नहीं मिल पाता. जिसके चलते उनकी मौत हो जाती है.
पत्थरों को तराशनें से उड़ती सिलिका डस्ट
बता दें कि यहां की खदानों से सिलिका पत्थर निकाले जाते हैं. इन पत्थरों को तराशने से उनसे सिलिका डस्ट निकलती है. ये डस्ट जब मजदूरों के फेंफड़ों में चली जाती है तो उनके फेंफड़ों में संक्रमण हो जाता है और वे गंभीर रूप से बीमार पड़ जाते हैं. इलाज के अभाव में उनकी मौत हो जाती है, पति की मौत के बाद महिलाओं को ही इन खदानों में मजबूरी में काम करना पड़ता है. बिधवा महिलाएं भी जीवन यापन करने के लिए बलुआ पत्थर तराशती हैं. यहां काम करने वाले 50 फीसदी से ज्यादा लोग सांस संबंधी बीमारी से जुझते रहते हैं.
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