अनोखी परंपरा : मोक्ष की नगरी में चिता की लकड़ी से जलता है सैकड़ों घरों का चूल्हा   

देवा के देव महादेव की नगरी काशी में जीवन का अद्भुत चक्र देखने को मिलता है. यहां जहां से अंतिम यात्रा शुरू होती तो उसी की उत्त्पति से जीवित शरीर को नई ऊर्जा भी मिलती है. मोक्ष की इस नगरी में महाश्मशान सबसे पवित्र स्थान माना जाता है.

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Deepak Pandey
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मोक्ष की नगरी में चिता की लकड़ी से जलता है सैकड़ों घरों का चूल्हा   ( Photo Credit : File Photo)

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देवा के देव महादेव की नगरी काशी में जीवन का अद्भुत चक्र देखने को मिलता है. यहां जहां से अंतिम यात्रा शुरू होती तो उसी की उत्त्पति से जीवित शरीर को नई ऊर्जा भी मिलती है. मोक्ष की इस नगरी में महाश्मशान सबसे पवित्र स्थान माना जाता है और आपको जानकर हैरानी होगी कि यहां शवदाह करने वाली अधजली लकड़ियों से सैकड़ों परिवार का चूल्हा जलता है, जिसे एक समाज के जीविका का प्रमुख चक्र माना जाता है. 

काशी में दो महाश्मशान है- मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट. मान्यता है कि यहां शवदाह होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है और इंसान जीवन मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है. रोजाना करीब 400 से अधिक शवदाह होता है. हजारों टन लड़कियां रोज जलती हैं, लेकिन इससे सैकड़ों घरों का चूल्हा जलना भी निर्भर करता है. दरअसल, डोम समाज के लोग जो शवों को जलाने का काम करते हैं, उनका परिवार इसी शवदाह की अधजली लकड़ियों पर अपना चूल्हा जलने के लिए निर्भर रहता है. 

दरअसल ये परंपरा सदियों से चली आ रही है इनके पीछे इनका तर्क है की उनके आराध्य बाबा कालू राम शवदाह की लड़कियों से खाना बनाते थे और उस परंपरा का निर्वहन आज भी होता आ रहा है डोम परिवार के पांच सौ से भी अधिक लोग इसी पर निर्भर रहते है डोम परिवार की गृहणी शारदा जो आज भी इसी लकड़ी पर खाना बनाती है.

शवदाह की इन चिता की लकड़ियों से सिर्फ डोम परिवार ही नहीं बल्कि गंगा घाट पर रहने वाले अघोरी साधु संत भी इसी चिता की लकड़ी पर निर्भर रहते हैं. उनका भी मानना है कि जहां मृत शरीर को मुक्ति मिलती है ऐसे में उस लकड़ी से भोजन बनाने से ज्यादा पवित्र क्या होगा, इसलिए हम अपना भोजन इन्हीं लकड़ियों से बनाते हैं.

डोम परिवार और उनके चौधरी जो इंसान की अंतिम यात्रा के अंतिम संस्कार के लिए अग्नि देते हैं, उनका कहना है कि हमारी पीढ़ी दर पीढ़ी इन्हीं चिता की लकड़ियों से ही बना भोजन करते आए हैं और हमारे घर में आज भी इसी परंपरा का निर्वहन किया जाता है. शवदाह करने वाले पवन चौधरी कहते हैं कि शवदाह करने आए लोग 7 से 110 मन तक की लकड़ी एक शवदाह करने में लगाते हैं, जिसमें लकड़ियां बच जाती हैं और उसी लकड़ी से हमारे घर का चूल्हा जलता है. वो कहते है कि ऐसा नहीं है कि एलपीजी गैस नहीं है पर हमने अपने परंपरा का दामन नहीं छोड़ा है. हमारे घर का चूल्हा इन्हीं लकड़ियों से बनता है.

काशी के जानकार राजीव सिंह 'रानू' भी मनाते हैं कि जहां भगवान शिव का मुख खुलता हो, जिस जगह पर हमेशा बाबा भोलेनाथ का वास हो, ऐसे में ये जगह सबसे पवित्र होती है और डोम समाज की परंपरा इसी को दर्शाती है कि जहां लोग श्मशान के नाम पर डरते हैं. पर सच यही है कि इस जगह से बड़ा सत्य कोई नहीं है. हिंदू धर्मगुरु प्रो. रामनारायण दिवेदी भी मानते हैं कि चिता की अग्नि से ये प्रेम काशी की विविधता तो यहां के परंपरा को दर्शाता है, जोकि इस युग में भी तारीफ के काबिल है.

Source : Sushant Mukherjee

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